उलूक टाइम्स: आँधी
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मंगलवार, 3 जून 2014

अपना समझना अपने को ही नहीं समझा सकता

उसने कुछ लिखा
और मुझे उसमें
बहुत कुछ दिखा
क्या दिखा
अरे बहुत ही
गजब दिखा
कैसे बताऊँ
नहीं बता सकता
आग थी आग
जला रही थी
मैं नहीं
जला सकता
उसके लिखे में
आग होती है
पानी होता है
आँधी होती है
तूफान होता है
नहीं नहीं
कोई जलजला
मैं यहाँ पर
लाने का रिस्क
नहीं उठा सकता
पता नहीं
वो लिखा भी
है या नहीं
जो मुझे दिखा है
किसी को बता
भी नहीं सकता
इसी तरह रोज
उसके लिखे
को पढ़ता हूँ
जलता हूँ
भीगता हूँ
सूखता हूँ
हवा में
उड़ता हूँ
और भी बहुत
कुछ करता हूँ
सब बता के
खुले आम
अपनी धुनाई
नहीं करवा सकता ।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

करवट

अचानक
उन टूटी खिड़कियों का
उतरा रंग 
चमकने लगा 

शायद
जिंदगी ने अंगड़ाई ली

शमशान
की खामोशी नहीं
शहनाईयां बज रही हैं आज

फिर से
आबाद होने को है 
उसका घरौंदा

कल तक 
रोटी कपडे़ के लिये 
मोहताज हाथों में 

दिखने लगी हैं
चमकती चूड़ियां 
जुल्फें संवरी हुवी हैं
होंठो पे लाली भी है

लेकिन
कहीं ना कहीं 
कुछ छूटा हुवा सा लगता है

चेहरे पे
जो नूर था
रंगत थी आंखों में 
आज वो उतरा हुवा सा
ना जाने क्यों लगता है

बच्चों के
चीखने की आवाज
अब नहीं आती है

बूड़े माँ बाप
के चेहरों पे
खामोशी सी छाई है 

शायद
किसी आधीं ने 
उड़ा दिया सब कुछ

अपनी जगह
पर ही है हर एक चीज
हमेशा की तरह 

पर कुछ तो हुआ है
ना जाने 

जो
महसूस तो होता है
पर दिखता नहीं है।