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मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

जिसके नाम के आगे नहीं लगाया जा सके पीछे से हटा कर कुछ उसकी जरूरत अब नहीं रह गयी है

जरा
सा भी

झूठ नहीं है

सच्ची में

सच

साफ
आईने
सा

यही है

जाति धर्म

झगड़े
फसाद
की जड़

रहा होगा
कबीर के
जमाने में

अब तो
सारी जमीन

कीटाणु
नाशक

गंगा जल से
धुल धुला कर

खुद ही
साफ
हो गयी है

नाम कभी
पहचान
नहीं हुऐ

जाति
नाम के पीछे

लगी हुयी
देखी गयी है

झगड़ा
ही खत्म

कर
गया ये तो

नाम
के आगे से
लग कर

सबकी

एक
ही पहचान

कर दी गयी है

पीछे से
धीरे धीरे

रबर से
मिटाना
शुरु कर
चुके हैं

देख लेना
बस कुछ
दिनों में

सारी
भीड़

एक नाम
एक जाति

एक धर्म
हो गयी है

काम
थोड़ा बढ़
गया है

मगर

आधार
पैन में
सुधार करने
के फारम में

नाम के
कॉलम
की जरूरत

अब रह भी
नहीं गयी है

सच में
सोचें

मनन करें

कितनी
अच्छी बात

ये हो गयी है

उलूक
तेरा कुछ
नहीं कर
पायेगा

वो भी

तेरे आगे
कुछ नहीं है

और तेरे
पीछे
भी नहीं है

रात
के अँधेरे में
पेड़ पर बैठ

चौकीदारी
बहुत कर
चुका तू

अब
सब जगह
हो गया

तू ही तू है

बस
तेरी ही
जरूरत
अब

कहीं
आगे

या पीछे

लगाने की

नहीं रह गयी है ।

चित्र साभार: blog.ucsusa.org

सोमवार, 26 मई 2014

कोई ना कोई पाल बिल सबसे पहले लाया जायेगा

बहुत ही 
बेवकूफ थी 
पिछली सरकार 

कोशिश में
लगी 
हुई थी
बनाने में 
कागज के टुकड़े से 
आदमी का आधार 

इतना भी
नहीं 
समझी
देश प्रेम
को 
कैसे कागज
में 
उतारा जायेगा 

सारे कागज
ही 
एक जैसे हों जहाँ 

कौन
कितना प्रेमी है 
ऐसे में
कैसे 
हिसाब
लगाया जायेगा 

अब
लग रहा है
लेकिन 
इसका भी समाधान 
आसानी से
ही 
निकल आयेगा 

दिखने शुरु
हो जायेंगे

जैसे ही
पूत के पाँव 
पालने से बाहर 

उसी को
देख कर 
देश प्रेम निर्धारित 
कर
लिया जायेगा 

स्केल मिलेगा 
नापने का
कुछ 
पुराने प्रेमियों को 

उनसे
नापने के लिये 
इशारा दिया जायेगा 

उन में से ही
होगा 
बताने वाला भी 

कितने
अंकों के साथ 
देश प्रेमी होने के लिये 
कोई
योग्यता हासिल 
कर ले जायेगा 

देश प्रेम को
अंदर 
छुपाने वाले को 
नोटिस
दे दिया जायेगा 

लोकपाल
शोकपाल 
आये या ना आ पाये 

अपने पाल
अपने सँभाल 
बिल
सबसे पहले 
बहुमत से
पास हो कर 
सामने से आ जायेगा 

अभिमन्यु

कब से 
सीख रहे थे
पेट के अंदर 

बाहर
आने के बाद 
उनका कमाल 

‘उलूक’
देख लेना 
तू भी

बहुत जल्दी 
अपने
सामने सामने 
ही
देख पायेगा ।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

एक भीड़ एक पोस्टर और एक देश



इधर
कुछ 
पढ़े लिखे कुछ अनपढ़
एक दूसरे के ऊपर चढ़ते हुऐ

एक सरकारी 
कागज हाथ में
कुछ जवान कुछ बूढ़े
किसी को कुछ पता नहीं
किसी से कोई कुछ पूछता नहीं

भीड़
जैसे भेड़ 
और बकरियों का एक रेहड़
कुछ लैप टौप तेज रोशनी फोटोग्राफी
अंगुलियों और अंगूठे के निशान
सरकार बनाने वालों को मिलती एक खुद की पहचान
एक कागज का टुकड़ा 'आधार' का अभियान

उसी भीड़ का अभिन्न 
हिस्सा 'उलूक'
गोते लगाती हुई उसकी अपनी पहचान
डूबने से अपने को बचाती हुई

दूसरी तरफ
शहर की सड़कों पर बजते ढोल और नगाड़े
हरे पीले गेरुए रंग में बटा हुआ देश का भविष्य

थम्स अप लिमका 
औरेंज जूस 
प्लास्टिक की खाली बोतलें 
सड़क पर बिखरे
खाली 
यूज एण्ड थ्रो गिलास 
हजारों पैंप्लेट्स

नाच और नारे
परफ्यूम से ढकी सी आती एल्कोहोल की महक
लड़के और लड़कियां
कहीं खिसियाता हुआ
लिंगदोह

फिर कहीं 'उलूक'
बचते बचाते अपनी पहचान को
निकलता हुआ दूसरी भीड़ के बीच से

और
तीसरी तरफ 
प्रेस में छपते हुए
एक आदमी के पोस्टर

जो कल 
सारी देश की दीवार पर होंगे

और
यही भीड़ पढ़ रही होगी
दीवार पर लिखे हुऐ
देश के भविष्य को
जिसे इसे ही तय करना है ।

चित्र साभार: https://www.pikpng.com/

मंगलवार, 14 मई 2013

कुछ तो सीख बेचना सपने ही सही

उसे देखते ही
मुझे कुछ हो
ही जाता है
अपनी करतूतों
का बिम्ब बस
सामने से ही
नजर आता है
सपने बेचने
में कितना
माहिर हो
चुका है
मेरा कुनबा
जैसे खुले
अखबार की
मुख्य खबर
कोई पढ़
कर सामने
से सुनाता है
कभी किसी
जमाने में
नयी पीढी़ के
सपनों को
आलम्ब देने
वाले लोग
आज अपने
सपनों को
किस शातिराना
अंदाज में
सोने से
मढ़ते चले
जा रहे हैं
इसके सपने
उसके सपने
का एक
अपने अपने
लिये ही बस
आधार बना
रहे हैं
सपने जिसे
देखने हैं
अभी कुछ
वो बस
कुछ सपने
अपने अपने
खरीदते ही
जा रहे हैं
सच हो रहे
सपने भी
पर उसके
और इसके
जो बेच
रहे हैं
खरीदने वाले
बस खरीद
रहे हैं
उन्हे भी
शायद पता
हो गया है
कि वो
सपने सच
होने नहीं
जा रहे हैं
वो तो बस
इस बहाने
हमसे सपने
बेचने की
कला में
पारंगत होना
चाह रहे हैं ।