उलूक टाइम्स: इतिहास
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शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

लिखना जरूरी है इतिहास ताकि वो बदल सकें समय आने पर उसे


जरूरत है
फिर से देखने की फिर से सोचने
और फिर से मनन करने की
विक्रमादित्य को भी और उसके बेताल को भी

यहाँ तक
उस वृक्ष को भी खोजना जरूरी है इतिहास में
जहां जा कर बार बार बेताल
फिर फिर लटक जाया करता था

उम्र बढ़ने के सांथ सुना है
सांथ छूटने लगता है यादाश्त का
वो बात अलग है कि अब जो भी याद है
पता नहीं याद है या नहीं याद है

पर याद दिलाया जरूर जा रहा है
कि हम सब अपनी अपनी
यादाश्त खो चुकें हैं

बहुत कुछ गिराया गया था
कुछ नया बनाए जाने के लिए
अभी सब कुछ
जमीन पर चल रहा है

‘उलूक’ रात में भी पता नहीं
कैसे देख लेता है जमीन के नीचे तक
उसे मालूम है राख तो बह चुकी है
कई शरीरों की पानी में
पहुँच चुकी हैं समुन्दर के अनंत में
पर लाशें जमीन में दबी हुई
अभी भी देखी जा सकती हैं कि
ज़िंदा है या मर चुकी है वाकई में

बहुत कुछ खोदा जाना है
बहुत कुछ पर मिट्टी डाली जानी है
अभी व्यस्त है समय
और मशीने लगी है नोट गिनने में
पकडे गए जखीरों के

कुछ भी है
लेकिन बेताल और 
विक्रमादित्य को भी
सबक सिखाना जरूरी है
और समझना है कि 
भगवान कल्कि का 
कलयुगी अवतार
इसीलिए पैदा किया गया है |



सोमवार, 16 दिसंबर 2019

आओ बोयें कल के लिये आज कुछ इतिहास


आओ बोयें 

कल 
के लिये 

आज 
कुछ 
इतिहास 

जो 
सच है 
बस 
उसे 
छोड़कर 

कुछ भी 
चलेगा 

होनी चाहिये 
मगर 

कुछ ना कुछ 
शुद्ध 
बिना मिलावट 
की 

कोई भी 
आसपास की 

रद्दी 
की 
टोकरी 
में 
फेंकी गयी 

ज्यादा
चलेगी 
ही नहीं 
बकायदा 
दौड़ेगी 

होनी चाहिये 

एक 
खूबसूरत 
समय की 
बदसूरत 
बकवास 

सारे 
आबंटित 
कामों को त्याग 

विशेष 
काम पर लगे 

सारे 
आसपास के 
तगड़े घोड़ों 
की 
प्रतिस्पर्धाएं 

अर्जुन बने 
चार सौ बीसी 
के 
धनुष 

मक्कारी 
के तीर 

हवा में 
ध्यान लगाये 

समाधिस्थ 
नजर आते 

मछलियों 
की आँखें 
ढूँढते 

कलयुगी 
तीरंदाज 

सोये हुऐ 
दिन दोपहरी 

बिना पिये 
नशे में 

शुद्ध हवा 
पानी वाले पहाड़ 

बर्फ से लबालब 
खासमखास 

सिकुड़ति 
हुई 
पंक्तियों से 
भागते 

लम्बी 
होती हुई 
पंक्तियों
पर 

जमा
होते हुऐ 
शूरवीर 

देखिये 
पने 
आस पास 

‘उलूक’ 
रात के प्रहरी 

बुरी बात है 

करना 
दिन 
की 
बात ।

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

पुरानी कुछ इमारतें कई बार पैदा की जाती है हर बार एक नया नाम देकर उन्हें फिर लावारिस छोड़ दिया जाता है


कुछ की
किस्मत में
नहीं होता है
खुद जन्म लेना

उन्हें पैदा
किया जाता है

नश्वर
नहीं होते हैं
पर
मरने का उनके
मौका भी
नहीं आता है

जरूरी नहीं है
जीवन होना
सब कुछ में

कुछ निर्जीव
चीजों को भी
आदत हो जाती है

झेलना
जीवन को

जिसका असर
समय समय पर
देखा भी जाता है

कुछ
इमारतों के
पत्थर

आईना
हो जाते हैं

समय
का चेहरा
उनमें
बहुत साफ
नजर आता है

इतिहास
लिख देना
किसी चीज का
अलग बात हो जाती है

लिखने वाला
सामान्य मनुष्य ही हो
जरूरी नहीं हो जाता है

पूर्वाहग्रह ग्रसित होना
किसी
मानसिक रोग
की
श्रेणी में

कहीं
 लिखा हुआ
नजर नहीं आता है

ना नया
गृह बनता है
ना गृह प्रवेश होता है

कुछ घरों का नाम
समय के साथ
बदल दिया जाता है

जन्मदिन
मनाया जाता है
नगाढ़े भी बजते हैं
ढोल भी पीटे जाते हैं
अखबार के पन्ने को भी
रंग दिया जाता है

‘उलूक’
कुछ लावारिस

ऐसी ही
किस्मत लेकर
पैदा होते हैं

हर बार
जन्म देने के बाद
एक लम्बे समय के लिये

फटे हाल
होने के लिये
उन्हें छोड़ दिया जाता है।

चित्र साभार: https://making-the-web.com/university-cliparts

सोमवार, 30 सितंबर 2019

वो कहीं नहीं जाता है ये हर जगह नजर आता है आने जाने के हिसाब से यहाँ हिसाब लगाया जाता है



गजब है

सारे

उसके
हिसाब से

हिसाब
समझा रहे हैं

गणित
की लिखी
पुरानी
एक किताब को

किसी
बेवकूफ
के द्वारा
लिखा गया
इतिहास
बता रहे हैं

वो
पता नहीं

क्यों
बना हुआ है

अभी तक

कागज के नोट पर

जिसकी
एक सौ
पचासवी
तेरहवी
मनाने के लिये

उसकी
धोती के

हम सब
मिल कर

उसके
परखच्चे
उड़ा रहे हैं

वहम
है शायद
या समझ में
नहीं आता है

जो
सामने
से होता है
किसी को भी
नजर नहीं आता है

कुछ
कहने की
कोशिश करो तो

नजरें
देख कर
सामने वाले की

डर लगता है

जैसे कह रहा हो

औकात
में रहा कर

पहाड़
से लाकर
अपने पहाड़ी कव्वे

किसलिये
रेगिस्तान में
लाकर उड़ाता है

हर किसी ने
ओढ़ा हुआ होता है

एक गमछा
मूल्यों का
अपने गले में

रंग उसका
उसकी
सोच का
परचम
उसके साथ
लहराता है

लाल को
हरे गमछे
में बदल देने से
कौन सा
मूल्य बदल जाता है

मुस्कुराईये मत

अगर

रोज
पैंट पहन कर
घूमने वाला आदमी

कहीं
किसी जगह
एक रंग की
हाफ पैंट के साथ
टोपी भी पहना हुआ
नजर आता है

लाजमी है
उतरना
 रंग चेहरों का
देखकर

कोई अगर
आईना
उनके
सामने से
आ जाता है

शहर में
बहुत कुछ
होता है

हर कोई
कहीं ना कहीं
अपना जमीर
तोलने जाता है

परेशान
किस लिये
होता है
‘उलूक’
इस सब से

अगर तुझे
खुद को
बेचना
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: https://www.kissclipart.com/

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

‘उलूक’ साफ करना है बहुत सारा इतिहास है


ना खुश है ना उदास है 
थोड़ी सी बची हुयी है
है कुछ आस है 

बहुत कुछ लिखना है 
कागज है कलम की है इफरात है 

ना नींद है ना सपने हैं 
शाम से जरा सा पहले की है बात है 

बन्द है बोतल है खाली है गिलास है
अंधेरा है अमावस की है रात है 

ना पढ़ना है ना पढ़ाना है 
किताबों के नीचे दबी है खुद की है किताब है 

श्याम पट काला है सफेद है चॉक है 
खाली है कक्षा है बस थोड़ी सी उदास है 

ना समझना है ना समझाना है 
नयी तकनीक है आज है सब की है बॉस है 

गुरु घंटाल हैं जितने मालामाल हैं 
सरकारी ईनाम हैं लेने गये हैंं सारे हैं खास हैं 

ना राधा है ना कृष्ण है 
राधाकृष्णन का जन्मदिन
सुना है शायद है आज है 

पदचिन्ह हैंं मिटाने हैं नये अपने बनाने हैं ‘उलूक’ 
साफ करने हैंं बहुत हैंं सारे हैं इतिहास हैंं । 

चित्र साभार:
https://www.1001freedownloads.com

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

स्टेज बहुत बड़ा है आग देखने वालों की भीड़ है ‘उलूक’ तमाशा देख मदारी का


किस लिये
ध्यान देना

कई
दिशाओं में

कई कई
कोसों तक
बिखरे हुऐ

सुलगते
छोटे छोटे
कोयलों
की तरफ

ना
आग ही
नजर आती है

ना ही
नजर आता है
कहीं
धुआँ भी
जरा सा

बेशरम
कोयले
समय भी
नहीं लेते हैं

कब
राख हो जाते हैं

कब
उड़ा ले जाती है
हवा

निशान भी
इतिहास
हो जाते हैं

इतिहास
लिखे जाने से
पहले ही

अपने
घर से
कहीं
 बहुत दूर
लगी

बहुत
बड़ी
लपट की
बड़ी आग

होती है
काम की आग

आकर्षित
करते हैं
उसके रंग

चित्र भी
अच्छे आते हैं
कैमरे से

कलाकार
की
तूलिका भी
दिखा सकती है
कमाल

आग को
रंगों में उतार कर
कागज पर

लगता तो है

कहीं
कुछ जला है

धुँआ
भी हुआ है

और
सोच भी
हो पाती है
कुछ
पानी पानी सी

कौन सा
गीला
करना होता है
समय को
शब्दों से

और
कहाँ
लिखा होता है

किसी की भी
मोटी
पूज्यनीय
किताब में

कि
जरूरी होता है
उड़ा देना
राख को
गरमी
रहते रहते

इत्मीनान
भी कोई
चीज होती है

इतिहास
के लिये
ना सही

बही खाते में
लिख कर
जमा कर लेने
से भी
फायदा होता है

साठ सत्तर
दशक बाद
कोई भी
 किसी पर भी
लगा देगा
इल्जाम

चकमक पत्थर
घिस घिसा कर
आग लगाने का

‘उलूक’
तमाशा देख
मदारी का

स्टेज
बहुत बड़ा है

आग
देखने वालों की
भीड़ है

वैसे भी

आग
किसी को
सोचनी जो
क्या है

सोच लेने
से भी
कुछ
जलता
नहीं है 

ठंड रख।

चित्र साभार: https://pngtree.com

रविवार, 4 अगस्त 2019

किसलिये खुद सोचना फिर बोलना भी खुद ही हमारे होने के डर का अहसास किसी दिन तेरे चेहरे पर भी दिखेगा



मत सोच 

हम
हैं ना 
सोचने के लिये

मत बोल

हम
बोल तो रहे हैं

मत देख

दिख रहा है
की
गलतफहमी
मत पाल

हम
देख रहे हैं
बता देंगे
खुद देख कर

क्या करेगा
वैसे भी

खुद
सोच लेना

पाप हो चुका है

देखना
और
दिख रहा है
मान लेना

उससे बड़ा
पाप बन गया है

बोलना
सोच कर
दिख रहे के
ऊपर कुछ

महापाप है

बल्कि
सबसे बड़ा
साँप कहिये

या
समझ लीजिये

खुद को
खुद दिया गया
एक श्राप है

मान लिया
देख भी लिया
तूने
सब कुछ
या
थोड़ा कुछ भी

और
सोच भी लिया
चल

लगा कर
कुछ
अपना दिमाग ही

कोई बात नहीं

बोलना

शुरु
मत कर देना

कर भी देगा

तो भी
क्या होना

हम हैं ना
बोये हुऐ
उसके

उगे हुऐ उसके लिये

घेर लेंगे

जबान
खुलते ही तेरी

बेकार
में ही
हतोत्साहित
करना पड़ेगा

हम
एक नहीं उगे हैं

भीड़
हो चुके हैं

बच नहीं सकेगा

बोलने से
पहले
गिर पड़ेगा
अपनी ही नजर में

समझदारी कर

मान ले

कुछ नहीं
दिख रहा है

मान ले

कुछ नहीं
सुन रहा है

मान ले

सोच में
कीड़ा
लग चुका है

हम हैं ना

बता
तो रहे हैं
क्या देखना है

हम हैं ना

समझा
तो रहे हैं
क्या सोचना है

पूछ लेगा

बोलने
से पहले
अगर
‘उलूक’

लिखने लिखाने
पर
ईनाम भी
भारी मिलेगा

उस की
जय जय
हमारी भी
जय जय
के साथ

तेरी
किस्मत का
नया एक अध्याय
शुरु होगा

चैन से
जीने
 दिया जायेगा

भीड़ के
चेहरे में
तेरा चेहरा
मिलमिला कर

एक
 इतिहास 
नया

गुलामों
की मुक्ति का

फिर से

हमारा
जैसा
कोई एक

भीड़
में से
ही लिखेगा।

चित्र साभार:
http://www.picturesof.net


सोमवार, 24 सितंबर 2018

बेकार की ताकत फालतू में लगाकर रोने के लिये यहाँ ना आयें

पता नहीं
ये मौके
फिर

कभी और
हाथ में आयें

चलो
कुछ भटके
हुओं को

कुछ और
भटकायें

कुछ
शरीफ से
इतिहास

पन्नों में
लिख कर लायें

बेशरम सी
पुरानी
किताबों को

गंगा में
धो कर के आयेंं

करना कराना
बदसूरत सा
अपना ना बतायें

खूबसूरत तस्वीरें
लाकर गलियों
में फेंक आयें

अच्छा लिखा
अच्छे आदमी
अच्छी
महफिल सजायें

तस्वीरें
झूठी समय की

समय की
नावों में रख
कर के तैरायें

अपने थाने
अपने थानेदार

अपने गुनाह
सब भुनायें

कल बदलती
है तस्वीर

थोड़ा उधर
को चले जायें

मुखौटे ओढ़ें नहीं
बस मुखौटे
ही खुद हो जायें

आधार पर
आधार चढ़ा कर
आधार हो जायें

मौज में
लिखे को
समझने के
लिये ना आयें

सारी बातें
सीधे सीधे
लिखकर
बतायें

‘उलूक’
जैसों की
बकबक को
किनारे लगायें

सच
का मातम
मनाना भी
किसलिये

खुश होकर
मिलकर
झूठ का
झंडा फहरायें ।

चित्र साभार: https://www.colourbox.com/

रविवार, 3 दिसंबर 2017

कभी कुछ भैंस पर लिख कभी कुछ लाठी पर भी

कभी सम्भाल
भी लिया कर
फुरसतें

जरूरी नहीं है
लिखना ही
शुरु हो जाना

खाली पन्नों को
खुरच कर इतना
भी कुरेदना
ठीक नहीं

महसूस नहीं
होता क्या
बहुत हो गया
लिखना छोड़
कभी कुछ कर
भी लिया जाये

पन्ने के
ऊपर पन्ना
पन्ने के
नीचे पन्ना
आगे पन्ना
पीछे पन्ना
कोई नहीं
पूछने वाला
कितने
कितने पन्ने

गन्ने के खेत में
कभी गिने हैं
खड़े होकर गन्ने

नहीं गिने
हैं ना
कोई नहीं
गिनता है

गन्ने की
ढेरियाँ होती हैं
उसमें से गुड़
निकलता है

पन्ने गिन
या ना गिन
ढेरियाँ पन्नों की
लग कर गन्ने
नहीं हो
जाने वाले हैं

कुछ भी
नहीं निकलने
वाला पन्नों से
निचोड़ कर भी

किताब जरूर
बना ले जाते हैं
किताबी लोग

किताबों से
दुकान बनती है

इस दुकान से
उस दुकान
किताबों के
ऊपर किताब
किताबों के
नीचे किताब
इधर किताब
उधर किताब
हो जाती हैं

किताबों की
खरीद फरोख्त
की हिसाब
की किताब
कई जगह
पायी जाती है

रोज की
कूड़ेदान से
निकाल धो
पोंछ कर
परोसी गयी
खबरों से
इतिहास नहीं
बनता है बेवकूफ

समझता
क्यों नहीं है
इतिहास
भैंस हो
चुका है
लाठी लिये
हाँकने भी
लगे हैं लोग

अभी भी वक्त है
सुधर जा ‘उलूक’

कुछ भैंस
पर लिख
कुछ लाठी पर
और कुछ
हाकने वालों
पर भी

आने वाले
समय के
इतिहास के
प्रश्न पत्र
उत्तर लिखे हुऐ
सामने से आयेंगे

परीक्षा देने वाले
से कहा जायेगा
दिये गये उत्तरों
के प्रश्न बनाइये
और अपने
घर को जाइये।

चित्र साभार: www.spectator.co.uk

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

कुत्ता हड्डी और इतिहास












कुछ दिन
अच्छा होता है
नहीं देखना
कुछ भी
अपनी
आँखों से

दिख रहे
सब कुछ में

कुछ दिन
अच्छा होता है
देखना
वो सब कुछ


जो सब को
दिखाई

दे रहा होता है
उनके अपने
चारों ओर

उनकी अपनी
आँखों से


रोज
अपने अपने

दिखाई दे रहे को
दिखाने की होड़ में

दौड़ लगा रहे
देखे गये
बहुत कुछ में

आँखें बन्द कर
देख लेने वालों का
देखा हुआ

रायते की
तरह
फैला
देना सबसे

अच्छा होता है

जिसकी
आँख से

सब देखना
शुरु
कर
दिये होते हैं

वो ईश्वर हो
चुका होता है

गाँधी
बहुत बौना

हो चुका
होता है

अपनी लाठी
पकड़े हुऐ


उसको
गाली देता

एक लोफर
गली का

एक झंडा लिये
अपने हाथ में
एक
बेरंगे
हो गये रंग का

समय हो
चुका होता है


‘उलूक’
समय खोद
रहा होता है
समय को
समझने

के लिये

समय
इतिहास

हो गया
होता है


ऐसा
इतिहास

जिसमें
एक

कुत्ते का
गड्ढा खोदना
और उसमें
उसका

एक हड्डी
दबाना
ही
बस इतिहास

रह गया होता है |

चित्र साभार:
 cliparts

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

श्रद्धांजलि अविनाश जी वाचस्पति

एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है

सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है

चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है

ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है

तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं

चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना

कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं

विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है

इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है

आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है

तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं

चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं

जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी

श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी

बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है

दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है

चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है

‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है

‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में

थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।

चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com

सोमवार, 25 मई 2015

‘दैनिक हिन्दुस्तान’ सबसे पुरानी दोस्ती की खोज कर के लाता है ऐसा जैसा ही उसपर कुछ लिखा जाता है

सुबह कुछ
लिखना चाहो
मजा नहीं
आता है
रात को वैसे
भी कुछ नहीं
होता है कहीं
सपना भी कभी कभी
कोई भूला भटका
सा आ जाता है
शाम होते होते
पूरा दिन ही
लिखने को
मिल जाता है
कुछ तो करता
ही है कोई कहीं
उसी पर खींच
तान कर कुछ
कह लिया जाता है
इस सब से इतर
अखबार कभी कुछ
मन माफिक
चीज ले आता है
संपादकीय पन्ने
पर अपना सब से
प्रिय विषय कुत्ता
सुबह सुबह नजर
जब आ जाता है
आदमी और कुत्ते
की दोस्ती पुरानी
से भी पुरानी होना
बताया जाता है
तीस से चालीस
हजार साल का
इतिहास है बताता है
आदमी ने क्या सीखा
कुत्ते से दिखता है
उस समय जब
आदमी ही आदमी
को काट खाता है
विशेषज्ञों का मानना
मानने में भलाई है
जिसमें किसी का
कुछ नहीं जाता है
आदमी के सीखने
के दिन बहुत हैं अभी
कई कई सालों तक
खुश होता है
बहुत ही ‘उलूक’
चलो आदमी नहीं
कुत्ता ही सही
जिसे कुछ सीखना
भी आता है
दिखता है घर से
लेकर शहर की
गलियों के कुत्तों
को भी देखकर
कुत्ता सच में
आदमी से बहुत कुछ
सीखा हुआ सच में
नजर आता है  ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जानवर पढ़ के इस लिखे लिखाये को कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा


नंगों के लिये कपड़े लिख देने से
ढका कुछ भी नहीं जायेगा
कुछ नहीं किया जा सकता है
कुछ बेशर्मियों के लिये
जिन्हें ढकने के लिये
पता होता है कपड़ा ही छोटा पड़ जायेगा

आँखों को ढकना सीखना सिखाना
चल रहा होता है सब जगह जहाँ
मालूम होता है अच्छी तरह
एक छोटे से कपड़े के टुकड़े से भी काम चल जायेगा

दिखता है सबको सब कुछ
दिख गया लेकिन किसी से नहीं कहा जायेगा
ऐसे देखने वालों की आँखों का देखना
देखने का चश्मा कहाँ मिल पायेगा

दिखने को लिखना बहुत ही आसान है
मगर यहीं पर हर कोई
गंवार और अनपढ़ बन जायेगा

लिखता रहेगा रात भर अंधेरे को ‘उलूक’
हमेशा ही सवेरे के आने तक 
सवेरा निकलेगा उजाले के साथ
आँखों में धूप का चश्मा बहुत काला मगर लगायेगा

जल्दी नहीं आयेगा समझ में कुछ
कुछ समय खुद ही समय के साथ सिखायेगा

नंगेपन को ढकना नहीं है
लिखना सीखना है ज्यादा जरूरी
लिखते लिखते नंगापन ही एक फैशन भी हो जायेगा

कपड़ा सोचना कपड़ा लिखना
कपड़े का इतिहास बने या ना बने
बंद कुछ पढ़ने से खुला सब पढ़ना
हमेशा ही अच्छा कहा जायेगा ।

चित्र साभार: www.picsgag.com

रविवार, 11 मई 2014

किताबों के होने या ना होने से क्या होता है

किताबें सब के
नसीब में
नहीं होती हैं
किताबें सब के
बहुत करीब
नहीं होती हैं
किताबें होने से
भी कुछ
नहीं होता है
किताबों में जो
लिखा होता है
वही होना भी
जरूरी नहीं होता है
किताबों में लिखे को
समझना नहीं होता है
किताबों से पढ़ कर
पढ़ने वालो से बस
कह देना ही होता है
किताबों को खरीदना
ही नहीं होता है
किताबों का कमीशन
कमीशन नहीं होता है
किताबें बहुत ही
जरूरी होती है
ऐसा कहने वाला
बड़ा बेवकूफ होता है
किताबें होती है
तभी बस्ता
भी होता है
किताबें डेस्क
में होती है
किताबें अल्मारी
में सोती हैं
किताबे दुकान
में होती हैं
किताबे किताबों के
साथ रोती हैं
किताबों में
लिखा होना
लिखा होना
नहीं होता है
किताबों में
इतिहास होता है
किताबों में हास
परिहास होता है
किताबों की बातों को
किताबों में ही
रहना होता है
जो अपने
आस पास होता है
किताबों से नहीं होता है
किसी को पता
भी नहीं होता है
होना या ना
होना भी
किताबों में
नहीं होता है
सब पता होना
इतना भी जरूरी
नहीं होता है
इतिहास
पुराना हो
बहुत अच्छा
नहीं होता है
नया होने
के लिये
ही कुछ
नया होता है
जो पहले से
ही होता है
उसका होना
होना नहीं होता है
किताबों को पढ़ना
और पढ़ाना होता है
बताना कुछ
और ही होता है
जिसको इतना
पता होता है
गुरुओं का भी
गुरु होता है ।

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

उस पर क्यों लिखवा रहा है जो हर गली कूंचे पर पहुंच जा रहा है

लिख तो
सकता हूँ
बहुत कुछ
उस पर
पर नहीं
लिखूंगा
लिख कर
वैसे भी
कुछ नहीं
होना है
इसलिये
मुझ से
उस पर
कुछ लिखने
के लिये
तुझे कुछ
भी नहीं
कहना है
सबके अपने
अपने फितूर
होते हैं
मेरा भी है
सब पर कुछ
लिख सकता हूँ
उसपर भी
बहुत कुछ
पर क्यों लिखूं
बिल्कुल
नहीं लिखूंगा
अब पूछो
क्यों नहीं
लिखोगे भाई
जब एक
पोस्टर जो
पूरे देश की
दीवार पर
लिखा जा
रहा है और
हर कोई
उसपर
कुछ ना कुछ
कहे जा रहा है
तो ऐसे पर
क्या कुछ
लिखना जिसे
देख सब रहे हैं
पर पढ़ कोई भी
नहीं पा रहा है
मेरा इशारा उसी
तरफ जा रहा है
जैसा तुझ से
सोचा जा रहा है
उसे देखते ही मुझे
अपने यहाँ का वो
याद आ रहा है
होना कुछ
नया नहीं है
पुराने पीतल
पर ही सोना
किया जा रहा है
कुछ दिन
जरूर चमकेगा
उसके बाद
सब वही
जो बहुत
पुराने से
आज के नये
इतिहास तक
हर पन्ने में
कहीं ना कहीं
नजर आ रहा है
गांधी की
मूर्तियों से
काम निकलना
बंद हो भी
गया तो परेशान
होने की कोई
जरूरत नहीं
उन सब को
कुछ दिन
के लिये
आराम दिया
जा रहा है
खाली जगह
को भरने
के लिये
सरदार पटेल
का नया
सिक्का
बाजार में
जल्दी ही
लाया जा
रहा है | 

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

निपट गये सकुशल कार्यक्रम

गांंधी जी
और शास्त्री जी

दो एक दिन से
एक बार फिर से 

इधर भी और उधर भी
नजर आ रहे थे

कल का पूरा दिन
अखबार टी वी समाचार
कविता कहानी और
ब्लागों में छा रहे थे

कहीं तुलना हो रही थी
एक विचार से
किसी को इतिहास
याद आ रहा था

नेता इस जमाने का
भाषण की तैयारी में
सत्य अहिंसा और
धर्म की परिभाषा में
उलझा जा रहा था

सायबर कैफे वाले से
गूगल में से कुछ
ढूंंढने के लिये गुहार
भी लगा रहा था

कैफे वाला उससे
अंग्रेजी में लिख कर
ले आते इसको

कहे जा रहा था

स्कूल के बच्चों को भी
कार्यक्रम पेश करने
को कहा जा रहा था

पहले से ही बस्तों से
भारी हो गई
पीठ वालो का दिमाग
गरम हुऎ जा रहा था

दो अक्टूबर की छुट्टी
कर के भी सरकार को
चैन कहाँ आ रहा था

हर साल का एक दिन
इस अफरा तफरी की
भेंट चढ़ जा रहा था

गुजरते ही जन्मोत्सव
दूसरे दिन का सूरज
जब व्यवस्था पुन:
पटरी पर  होने का
आभास दिला रहा था

मजबूरी का नाम
महात्मा गांंधी होने का
मतलब एक बार फिर
से समझ में आ रहा था ।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सदबुद्धि दो भगवान

एक
बुद्धिजीवी
का खोल

बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है

जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है

बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है

यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता

किस नाली में
समा जाता है

सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है

जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है

एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है

देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है

उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है

ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है

जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।

रविवार, 1 जुलाई 2012

योगी लोग

घर हमारा
आपको
बहुत ही
स्वच्छ
मिलेगा

कूड़ा
तरतीब
से संभाल
कर के

नीचे
वाले पड़ोसी
की गली में

पौलीथिन में
पैक किया
हुआ मिलेगा

पानी हमारे
घर का
स्वतंत्र रूप
से खिलेगा

वो गंगा
नहीं है कि
सरकार
के इशारों
पर उसका
आना जाना
यहां भी चलेगा

जहाँ उसका
मन चाहेगा
बहता ही
चला जायेगा

किसी की
हिम्मत नहीं है
कि उसपर
कोई बाँध बना
के बिजली
बना ले जायेगा

नालियों में
कभी नहीं बहेगा
जहां भी मन
आये अपनी
उपस्थिति
दर्ज करायेगा

हम ऎसे वैसे
लोग नहीं हैं
अल्मोड़ा शहर
के वासी हैं
गांंधी नेहरू
विवेकानन्द
जैसे महापुरुषों
ने भी कभी
इस जगह की
धूल फाँकी है

इतिहास में
बुद्धिजीवियों
के वारिसों
के नाम से
अभी भी
इस जगह को
जाना जाता है

पानी भी
पी ले
कोई मेरे
शहर का
तो बुद्धिजीवी
की सूची में
अपना नाम
दर्ज कराता है

योगा करना
जिम जाना
आर्ट आफ
लिविंग के
कैम्प लगाना
रामदेव और
अन्ना के
नाम पर
कुर्बान होते
चले जाना

क्या क्या
नहीं आता
है यहां के
लोगों को
सीखना
और
सिखाना

सुमित्रानन्दन पंत
के हिमालय
देख देख
कर भावुक
हो जाते हैं

यहाँ की
आबो हवा
से ही लोग
पैदा होते
ही योगी
हो जाते है

छोटी छोटी
चीजें फिर
किसी को
प्रभावित नहीं
करती यहाँ

कैक्टस के
जैसे होकर
पानी लोग
फिर कहाँ
चाहते हैं

अब आप को
नालियों और
कूड़े की पड़ी
है जनाब

तभी कहा
जाता है
ज्यादा पढ़ने
लिखने वाले
लोग बहुत
खुराफाती
हो जाते हैं

अमन चैन
की बात
कभी भी
नहीं करते

फालतू बातों
को लोगो को
सुना सुना
सबका दिमाग
खराब यूँ ही
हमेंशा करने
यहाँ भी
चले आते हैं।

सोमवार, 16 जनवरी 2012

काले कौआ

कौऔं को बुलाने का
सुबह बहुत सुबह
हल्ला मचाने का
रस्में निभाने का
क्रम आज भी जारी है
कौऔं का याद आना
मास के अंतिम दिन का
मसांति कहलाना
जिस दिन का होता है
भात दाल बचाना
संक्रांति के दिन के
उरद के बड़े सहित
पकवान बनाना
दूसरे दिन सुबह
पकवानों की माला
गले में लटकाना
फिर चिल्ला चिल्ला
के कौऔ को बुलाना
"काले काले घुघुति माला खाले"
दादा जी के जमाने थे
वो भी रस्में निभाते थे
सांथ छत पर आते थे
काले काले भी
हमारे सांथ चिल्लाते थे
देखे थे मैने तब कौऎ आते
जब भी थे उनको हम बुलाते
वो थे आते घुघुती खाते
फिर थे उड़ जाते
समय के सांथ
परिवर्तन हैं आये
कौऔ ने सांथ
हमारे नहीं निभाये
कौऔ को बुलाना
और उनका आना
इतिहास सा हो गया
कौआ पता नहीं
कहाँ
है खो गया
कल को फिर हम
सुबह सुबह चिल्लायेंगे
कौऎ शायद इस बार भी
नहीं आ पायेंगे
लगता है कौऔं के
यहा चुनाव अब नहीं
हो पाते हैं
इस लिये वो जरूरी
नहीं समझते होंगे
और इसीलिये अब
वो हमसे मिलने
पकवान निगलने
शायद नहीं आते हैं।