उलूक टाइम्स: ऊबड़ खाबड़
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रविवार, 8 जून 2014

ऊबड़ खाबड़ में सपाट हो जाता है सब कुछ

कई
सालों से

कोई
मिलने आता
रहे हमेशा

बिना
नागा किये
निश्चित समय पर
एक सपाट
चेहरे के साथ

दो ठहरी
हुई आँखे
जैसे खो
गई हों कहीं

मिले
बिना छुऐ हाथ
या
बिना मिले गले

बहुत कुछ
कहने के लिये
हो कहीं
छुपाया हुआ जैसे

पूछ्ने पर
मिले हमेशा

बस
एक ही जवाब

यहाँ आया था

सोचा
मिलता चलूँ

वैसे
कुछ खास
बात नहीं है

सब ठीक है

अपनी
जगह पर
जैसा था

बस
इसी जैसा था
पर उठते हैं
कई सवाल

कैसे
कई लोग
कितना कुछ

जज्ब
कर ले जाते हैं
सोख्ते में
स्याही की तरह

पता ही
नहीं चलता है

स्याही में
सोख्ता है
या सोख्ता में
स्याही थोड़ी सी

पर
काला

कुछ
नहीं होता
कुछ भी

कहीं
जरा सा भी

कितने
सपाट
हो लेते हैं
कई लोग

सब कुछ
ऊबड़ खाबड़
झेलते झेलते
सारी जिंदगी ।