उलूक टाइम्स: कतरा कतरा
कतरा कतरा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कतरा कतरा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 31 मार्च 2022

फाईल होना ही बहुत है कभी खाली खोलने ही क्यों नहीं चले आते

 



बन्द दिमाग की झिर्री से दिखी थोड़ी सी रोशनी
किसलिये घबराते
महीने बन्द फाईल-ए-उलूक फिर पड़ी भी अगर खोदनी
सबको जा जा कर बताते

कतरा कतरा कतरा कतरा
बामुश्किल खींच तान कर कुछ बने चाहे बने सात चाहे बने सतरा
क्यों खिसियाते

कतर दी गयी सोच में बस डर बचा
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी हर शय अब समझ लिया खतरा
एक चेहरा ओढ़ कर मुस्कुराते

कुछ परायों की दुआएं लपेटी कुछ अपनों की बद्दुआएं समेटी
अरे इस हाथ ले उस हाथ दे आते
कर्मों के हिसाब किताब किसे पता ऊपर वाला ही बनायेगा कमेटी
भाई मंदिर चले जाते घंटी बजाते

दवात स्याही कलम कागज बही खाते दिन हो गये अब
सपनों में भी नहीं आते
आभास भी आभासी हो चले कुछ लिखे का मतलब लोग
कुछ और ही लगाते

कुछ बने इसकी तरह कुछ उसकी तरह का कुछ
नहीं तो बीच का ही सही अलग सा कुछ
बता ले जाते

फिर आना अगले महीने की अंतिम तारीख को ‘उलूक’
फाईलों के दिन हैं करोड़ों एक ही से
कमाये हैं जाते

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

शनिवार, 10 अगस्त 2013

जिन्दगी भी एक प्रतिध्वनी है

उनके मुँह से जैसे ही निकला
कि जिन्दगी
एक प्रतिध्वनी है

पूछ बैठे
क्या हुआ
इसका अर्थ
समझाओगे

मेरे
दिमाग की
खुराफात
ने कहा
अभी तो
कुछ नहीं
बताउँँगा

आज
शाम को
लिखा हुआ
इसी पर आप
कुछ ना जरुर
कुछ पाओगे

अब फलसफा
है तो बहुत ही
जानदार

कहा जा
सकता है
कि इसमें तो हैं
पूरी जिन्दगी के
सारे उतार चढ़ाव

उनके हिसाब से
जिन्दगी एक
प्रतिध्वनी है
का मतलब
होता हो शायद

जो लौट के फिर
कभी ना कभी
एक बार जरूर
वापस आता है

टकरा टकरा कर
हर लम्हा जिंदगी
का फिर दुबारा
कहीं ना कहीं
खुद से खुद को
इस तरह मिलाता है

अपने को भूले हुऎ
को क्षण भर को
ही सही कुछ
अपने बारे में
कुछ कुछ याद
सा आ जाता है

नहीं तो सुबह शुरु
हुई जिंदगी को
संवारने में सारा
दिन कोई भी
गुजार ले जाता है

और
शाम होते होते
ही पता चलने
लग जाता है
कि
इस पूरी कोशिश में
फिर से कोई
कौना जिंदगी का
फटी हूई पैजामे
से निकले घुटनो
की तरह से कहीं
एक नई जगह
से मुँह अपना
निकाल ले जाता है
फिर चिढा़ता है

अब उनके जिंदगी
के इस पहलू पर
जब तक मैं
कुछ सोच भी पाता

क्या किया जाये
मजबूरी है
सोच की भी
कि कौन
सा खयाल
किस की
सोच में आता है

मुझे खुद में वो
बिलाव नजर
आता है जो
चूहे को
सामने से

कुतरते हुऎ
कतरा कतरा
जिंदगी अपने
आप को
बेबस सा
पाता है

पर कर कुछ
नहीं सकता
सिवाय अपने
पंजे के नाखूनो
को एक खम्बे
को नोच नोच
कर घायल
कर जाता है

फिर उसी
रात को
सपने में
उस चूहे
को अपने
पंजो में दबा
हुआ तड़पता
पाता है

इसी तरह कुछ
गुजर जाती
है जिन्दगी
रोज रोज
के रोज ही

जिन्दगी एक
प्रतिध्वनी है
का मतलब
शायद इन
सपनो का होना
ही हो जाता है

जो पूरे नहीं
कभी हो पाते हैं
लेकिन लौट के
आना जिन्दगी
में एक बार फिर
से उनका बहुत
जरूरी हो जाता है ।