उलूक टाइम्स: छंद
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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कविता और छंद से ही कहना आये जरूरी नहीं है कुछ कहने के लिये जरूरी कुछ उदगार होते हैं



बहुत
अच्छे होते हैं 
समझदार
होते हैं 

किसी
अपने 
जैसे के लिये 
वफादार
होते हैं 

ज्यादा
के
लिये नहीं 
थोड़े थोड़े
के लिये 

अपनी
सोच में 
खंजर
और 
बात में लिये 
तलवार
होते हैं 

सच्चे
 होते हैं 

ना खुदा
के
होते हैं 
ना भगवान
के
होते हैं 

ना दीन
के
होते हैं 
ना ईमान
के
होते हैं 

बहुत
बड़ी
बात होती है 

घर में
एक
नहीं भी हों 

चोरों के
सरदार
के 
साथ साथ

चोरों के 
परिवार
के
होते हैं 

रोज
सुबह के 
अखबार
के
होते हैं 

जुबाँ से
रसीले 
होठों से
गीले 

गले
मिलने को 
किसी के भी 
तलबगार
होते हैं 

पहचानता है 
हर कोई

समाज 
के लिये
एक 
मील का पत्थर 
एक सड़क 

हवा में
 बिना 
हवाई जहाज 
उड़ने
के लिये 
भी
तैयार होते हैं 

गजब
होते हैंं 
कुछ लोग 

उससे गजब 
उनके
आसपास 

मक्खियों
की तरह 
किसी
आस में 
भिनाभिनाते 

कुछ
कुछ के 
तलबगार
होते हैं 

कहते हैं

किसी 
तरह लिखते हैं 

किसी तरह 
ना
कवि होते हैं 
ना
कहानीकार होते हैं 

ना ही
किसी उम्मीद 

और
ना किसी
सम्मान 
के
तलबगार
होते हैं 

उलूक
तेरे जैसे
देखने

तेरे जैसे
सोचने 

तेरा जैसे
कहने वाले 

लोग
और आदमी 
तो

वैसे भी
नहीं 
कहे जाने चाहिये 

संक्रमित
होते हैं 

बस बीमार

और 
बहुत ही 
बीमार होते हैं । 

चित्र साभार: cliparts.co

बुधवार, 11 सितंबर 2013

उसका जरूर पढ़ना पर लिखना खुद अपना

ये नया
आईडिया
तेरे दिमाग में
किसने आज
घुसा दिया

वैसे भी तू
कुछ बुरा
तो नहीं
दिखता है
कुछ अजीब
सा क्यों आज
तुझको बना दिया

किसी ने
कहा तुझसे
मोर पंख
अगर कहीं
पर एक
चिपकायेगा
तो कौऎ
से मोर तू
जरूर
हो जायेगा

कोई कुछ भी
लिख रहा हो
उससे क्या
हो जायेगा

तू बहुत अच्छी
बकबास
कर लेता है
उसकी तरह
लिखने को
अगर जायेगा

कैसे सोच
लिया तूने
कवि सम्मेलन
के निमंत्रण
पाना शुरु
हो जायेगा

बच
अगर अभी भी
बच सकता है

लिख वही
जो तू खुद
लिख सकता है

छंद अलंकार
व्याकरण को
बीच में लायेगा
जो है वो भी
नहीं रहेगा
जो बनेगा
उसको कोई
सरकस वाला
जरूर उठा
के ले जायेगा

ये लेखन
की दुनिया
बहुत बड़ी
भूलभुलईया है

इसमें ज्यादा
दिमाग अगर
लगायेगा

कहाँ घुस के
कहाँ
निकल आया
कोई पता भी
नहीं कर पायेगा

अभी जाना
जाता है
पहचाना
 जाता है
कुछ आदमी
जैसा है
आदमियों
के बीच में
ये भी
माना जाता है

जैसा है
वैसा ही रहेगा
कुछ पायेगा
नहीं भी तो भी
ज्यादा कुछ
नहीं गवांऎगा

बंदर गुलाटियाँ
मारता हुआ ही
अच्छा लगता है

खुद सोच
कैसा दिखेगा
अगर कहीं वो
दो टांगो पर
चलता हुआ
देखा जायेगा

तू क्या
समझता है
जो जैसा
लिखता है
वो वैसा ही
दिखता है
बहुत से हैं
मेरी तरह
के बेईमान
यहाँ पर
जिनका ब्लाग
ईमानदार
ब्लाग के
नाम से
चलता है

 देखा देखी
और
भीड़ तंत्र के
जादू से निकल
कोशिश कर
और
अपनी टांगों
में ही चल
ऎसा ना हो
कहीं सब कुछ
तेरे हाथ
से जाये
कहीं निकल
अपनी टाँग
भी करे
चलने से
इनकार
और
बैसाखी जाये
हाथों से
दूर फिसल

बहुत कुछ है
जो तेरे पास है
और
तेरा अपना है
सामने वाले
के पास
दिख रहा
ताजमहल
खुद उसी
के लिये
एक सपना है

अपनी सुन्दर
झोपड़ी को
सबको दिखा
खूब जम
के इतरा
सब के लिखे
को पढ़ जरूर
किसी ने
नहीं रोका है
अपनी
बक बक को
बक बक
ही रहने दे
कविता को
बस एक
पाजामा
पहनाने से
ही तो
तुझे टोका है ।