उलूक टाइम्स: टीम
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रविवार, 9 मार्च 2014

बारी बारी से सबकी ही बारी क्यों नहीं लगा दी जाती है

बंदर बाँट
काट छाँट
साँठ गाँठ

सभी कुछ
काम में जब
लाना ही
पड़ता है
बाद में भी

तो
पहले इतने
झंडे वंडे
पोस्टर वोस्टर
टिकट विकट
के झगड़े वगड़े
एक बार के लिये
करना जरूरी
नहीं होना चाहिये

आपस में ही
पक्ष और विपक्ष
को बैठ कर
फैसला एक ठोस
देश के हितार्थ
ले लेना चाहिये

बारी बारी से
हैड और टेल
करते हुऐ
अपनी अपनी
पारियों को खेल
लेना चाहिये

टीमें तो बननी
घर से ही
शुरु हो जाती है

सूक्ष्म रूप में
अगर दूरदृष्टी
किसी के पास
थोड़ी सी भी
पाई जाती है

किसी भी टीम
को बनाने और
बैठाने में
अक्ल ही तो
काम में शायद
लाई जाती है

सामन्जस्य
बिठा कर काले
पीले नीले को
उसके ही रंग की
सारी जिम्मेदारी
सौंप दी जाती है

किसी भी तरह की
मुद्रा कहीं भी
इन कामों के लिये
बरबाद नहीं जब
की जाती है

फिर इतने बड़े
देश के चुनावों
के लिये क्यों
खजाने की
ऐसी तैसी
बार बार
हर बार
की जाती है

जनता के हाथ
में आता कभी
कुछ भी नहीं है
चुनाव के बाद भी

उसकी ही खाल
खींच ली जाती है

संशोधनों पर
विचार कर लेने से
कई परेशानियाँ
चुटकी में ही
हल की जाती हैं

बहुत अच्छा
आईडिया आया है
खाली दिमाग में
“उलूक” के

चुनाव
करने की जगह
कुछ लोगों के बीच
बारी बारी से
क्यों नहीं बारी
लगा दी जाती है

पैसा देश का
बचा कर अपने
अपने लिये
इंतजाम
कर लेने से

देश के
साथ साथ
जनता की जेब
कितनी आसानी से
कटने से ऐसे में
बच जाती है

टीमें हर जगह
बनती आई हैं
अपने अपने
हिसाब से
छोटी हो या
बड़ी संस्था में
जब बिना किसी
लफड़े झगड़े के

तो सबसे
बड़ी टीम भी
पहली बार में
आपस में ही
मिल बैठ कर
क्यों नहीं बना
ली जाती हैं ।

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

पता है तुम टीम बनाने वालों में आते हो देश प्रेमियों में भी पहले गिने जाते हो

अब जब
वो कहता है
देश प्रेम
फैल रहा है

 कुर्बान
देश पर
होने के लिये

हर कोई
अपने अन्दर
ही 
अन्दर
भड़की हुई
आग में
बुरी तरह
जल रहा है

इधर मुझे
ही फुर्सत
नहीं है
अपने कुऎं में
बैठ कर
टर्राने से

मेरी तरह
और भी हैं
कुछ मेंढक
जो टर्राते टर्राते
हो चुके हैं
दीवाने से

अब कैसे
कह दूँ
मुझे देश से
प्रेम नहीं है

थोड़ी बहुत
लूट खसोट
बेईमानी
अपने इलाके
में कर ले
जाने से कोई
देश का दुश्मन
जो क्या
हो जाता है

जब भी कभी
देश की बात
पर जुलूस
निकाला जाता है

हर कोई उस
जुलूस में आगे
आगे दिखाई
तो देना हेी
चाहता है

इससे अधिक
देश उससे
और क्या
चाहता है

वैसे भी देश
के लिये
काम करना
अकेले कहाँ
हो पाता है

टीम वर्क
हो तो
सब कुछ ही
बहुत आसानी
से हो जाता है

बस केवल
सीमा पर
कोई गोली
नहीं खाना
चाहता है

इसलिये
वहाँ के लिये
टीम बनाने
की इच्छा
कोई नहीं
दिखाता है

कहता है
देश का
सवाल है
इसलिये
ऎसा काम
हमेशा सामने
वाले को ही
दिया जाता है

बाकी टीम में
कोई कहीं
रखा जाये
इस बात का
देश प्रेम से
कहाँ कोई
नाता है

इसीलिये
हर सरदार
अपनी टीम
अपने हिसाब
से बनाता है

काम किसी को
कुछ आता हो
उससे क्या कुछ
कहीं हो जाता है

ज्यादा काम
समझने वाला
वैसे भी
टीम के
सरदार के
लिये एक
सरदर्द
हो जाता है

देश का झंडा
बस होना
चाहिये कुछ
मजबूत से
हाथो में

उसके नीचे
कौन क्या
कर रहा है
उससे कहाँ
कौन सा
फर्क पड़
जाता है

इतना क्या
कम नहीं
होता है कि
जब सीमा पर
कोई देश प्रेमी
मारा जाता है

देश का
देश प्रेमी
उसके
देश प्रेम से
भावुक
हो जाता है
उसकी
फोटो में
फूल माला
चढ़ाता है

अब
छोटी मोटी
चोरियां अगर
हो भी जाती हैं
किसी से अपने
आस पास कहीं

इससे देश प्रेम
कहााँ कम
हो जाता है

होता होगा
हो ही
रहा होगा
मेरे देश में
देश प्रेम
जागरण

मुझे अपने
कुएं में टर्राने
में बहुत
मजा आता है ।

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

किसने बोला कलियुग में रामराज्य नहीं है आता

बाघ बकरी
कभी खेला
जाता था
अब नहीं
खेला जाता

बहुत सी जगह
ये देखा है जाता

बाघ
बकरी की
मदद कर
उसे बाघ
बनाने
में मदद
करने है आता

जहाँ बाघ
बकरी की
मदद कतिपय
कारणों से नहीं
है कर पाता

वहाँ
खुद ही
शहर की
मुर्गियों से
बकरियों के लिये
अपील करवाने
की गुहार
भी है लगाता

बाघ
जिन बकरियों
के साथ है रहता
उनको खाने की
इच्छा नहीं दिखाता

वो बाघ होता है
इतना गया गुजरा
भी नहीं होता

उसके पास इधर
उधर से भी खाने
के लिये बहुत
है आ जाता

बाघ की टीम
का हर सदस्य
बकरियों को
हमेशा ही है
ये समझाता

बाघ
बस बकरियों
को बाघ बनाने के
लिये अपनी
जान है लगाता

जिस बकरी की
समझ में नहीं
आ पाती है बात

उसके हाथ से
बाघ बनने का
स्वर्णिम अवसर
है निकल जाता

बाघ बकरियों को
बाघ बनाने के
लिये ही तो
उनकी लाईन
है लगवाता

अपनी कुछ खास
बकरियों को ही
इसके लिये
मानीटर है बनाता

अब इतना कुछ
कर रहा होता है

अपने लिये भी
कुछ माहौल इससे
बनवा ले जाता

बकरियों का इसमें
कौन सा कुछ
है चला जाता

बकरियों
की मैं मैं
का शोर जब
अखबार में उसकी
फोटो के साथ
छप है जाता

उसका कद थोड़ा
सा लम्बा इससे
अगर हो भी जाता

ये सब भी तो
बाघ बकरी के
खेल में आघे को
काम है आता

बाघ का ऎसा
आत्मविश्वास
कहानियों में भी
नजर नहीं आता

कौन कहता है
राम राज्य अब
कहीं यहा नहीं
पाया है जाता

बाघ बकरियों को
अपने साथ है
पानी तक पिलाता

बस कभी जब
महसूस करता है
बकरियों के लिये
कुछ नहीं कर पाता

शहर की
मुर्गियों से
उनके लिये
झंडे है उठवाता

बकरियों
के लिये
बन जाती है
ये एक बडी़ खबर

अखबार
तो कायल
होता है बाघ का
उसे छींक भी आये
उसकी फोटो अपने
फ्रंट पेज में
है छपवाता

बकरियों पर आई
आफत का होने
जा रहा है समाधान
बाघ का बस
होना ही
बकरियों के साथ
काम के होने का
संकेत है हो जाता

बाघ बकरी
कभी
खेला जाता था
अब
नहीं है
खेला जाता ।

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

टीम

कल एक मकसद
फिर सामने से
नजर आ रहा है
दल बना इसके
लिये समझा
बुझा रहा है
बहुत से दल
बनते हुऎ भी
नजर आ रहे हैं
इस बार लेकिन
इधर के कुछ
पक्के खिलाडी़
उधर जा रहे हैं
कर्णधार हैं
सब गजब के
कंधा एक ढूँढने
में समय लगा रहे हैं
मकसद भी दूर
बैठे हुऎ दूर से
दूरबीन लगा रहे हैं
मकसद बना
अपना एक
किसी को नहीं
बता रहे हैं
चुनकर दूसरे
मकसद को
निपटाने की
रणनीति
बना रहे हैं
शतरंज के
मोहरे एक
दूसरे को जैसे
हटा रहे हैं
टी ऎ डी ऎ
के फार्म इस
बार कोई भी
भरने नहीं
कहीं जा रहे हैं
मकसद खुद ही
दल के नेता के
द्वारा वाहन
का इंतजाम
करवा रहे हैं
एक दल
एक गाडी़
नाश्ता पानी
फ्री दिलवा
रहे हैं
कर्णधार कल
कुछ अर्जुन
युद्ध के लिये
चुनने जा रहे हैं
आने वाले समय
के सारे कौरव
मुझे अभी से
आराम फरमाते
नजर आ रहे हैं
पुराने पाँडव
अपने अपने
रोल एक दूसरे
को देने जा रहे हैं
नाटक करने को
फिर से एक बार
हम मिलकर
दल बना रहे हैं
पिछली बार
के सदस्य इस
बार मेरे साथ
नहीं आ रहे हैं
लगता है वो खुद
एक बड़ी मछली
की आँख फोड़ने
जा रहे हैं
इसलिये अपना
निशाना खुद
लगा रहे हैं ।