उलूक टाइम्स: डोर
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मंगलवार, 31 जुलाई 2018

गुलामी आजाद कर रहे हैं ये तो मनमानी है आओ किसी की पाली हुयी एक ढोर हो जायें

दूर करें
अकेलापन
बहुत
आसानी से

किसी भी
भीड़ में एक
कहीं घुसकर
खो जायें

आओ
एक चोर हो जायें

मुश्किल है
बचाना
सोच को अपनी
बहुत दिनों तक

क्या परेशानी है

आओ
जंगल में
नाचता हुआ
एक मोर हो जायें

कारवाँ
भटकने
लगे हैं रास्ते

पहुचने की
किसने ठानी है

खोने का डर
निकालें दिल से

आओ
निडर होकर

किसी गिरोह
को जोड़ने की
एक डोर हो जायें

सच रखे हैं
सबने अपने
अपनी जेब में

कौन सा
बे‌ईमानी है

बहुमत
की मानें
इतने सारे
एक से हैं

आओ
एक और हो जायें

पाठ्यक्रम
सारे बदल गये हैं
किताबें सब पुरानी हैं

‘उलूक’ की
बकबक में
दिमाग ना लगायें

आओ
किसी की
पाली हुयी
एक ढोर हो जायें।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

बिना डोर की पतंग होता है सच हर कोई लपेटता है अपनी डोर अपने हिसाब से


सोचने
सोचने तक
लिखने
लिखाने तक
बहुत दूर
चल देता है
सोचा हुआ

भूला
जाता है
याद नहीं
रहता है
खुद ने
खुद से
कुछ कहा
तो था

सच के
बजूद पर
चल रही
बहस
जब तक
पकड़ती
है रफ्तार

हिल जाती है
शब्द पकड़ने
वाली बंसी

काँटे पर
चिपका हुआ
कोई एक
हिलता हुआ
कीड़ा

मजाक
उड़ाता है
अट्टहास
करता हुआ

फिर से
लटक
जाता है
चुनौती दे
रहा हो जैसे

फिर से
प्रयास
करने की

पकड़ने की
सच की
मछली को
फिसलते हुऐ
समय की
रेत में से

बिखरे हुऐ हैं
हर तरफ हैं
सच ही सच हैं

झूठ कहीं
भी नहीं हैं

आदत मगर
नहीं छूटती है
ओढ़ने की
मुखौटे सच के

जरूरी भी
होता है
अन्दर का
सच कहीं
कुढ़ रहा
होता है

किसने
कहा होता है
किस से
कहा होता है

जरूरत ही
नहीं होती है
आईने के
अन्दर का
अक्स नहीं
होता है

हिलता है
डुलता है
सजीव
होता है

सामने से
होता है
सब का
अपना अपना
बहुत अपना
होता है

सच पर
शक करना
ठीक नहीं
होता है

‘उलूक’

कोई कुछ
नहीं कर
सकता है
तेरी फटी
हुई
छलनी का

अगर
उसमें
थोड़ा सा
भी सच
दिखाने भर
और
सुनाने भर
का अटक
नहीं रहा
होता है ।

चित्र साभार: SpiderPic