उलूक टाइम्स: रोटी
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सोमवार, 23 सितंबर 2019

चलो बस यूँ ही चाँद पर रोटी तोड़ने के लिये हो के आते हैं


कौन 
सोया 
हुआ है

कौन

जागा 
हुआ है

अब तो

ये भी 

पता 
नहीं चलता

वो 
कहते हैं

तुम

सो रहे हो

हमें

वो 
सोये
हुऐ से
नजर 
आते हैं

चलो

इस तरह
ही सही

उनकी 
रात हो
रही होती है

हम 
उठ कर
घूमने

चले
जाते हैं

भूख

और 
रोटी

एक

पुरानी 
सी बात 
लगती है

कुछ

नया 
करते हैं

चलो

चाँद पर

घूम कर

चले

आते हैं ।

----------------



(अपनी 

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मे एक बात)

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गुरुवार, 18 जनवरी 2018

आग लगा दीजिये शराफत को समझ में आ गये हैं बहुत शरीफ हैं बहुत सारे हैं हैं शरीफ लोग

कुछ में
बहुत कुछ
लिख देते हैं
बहुत से लोग

बहुत से लोग
बहुत कुछ
लिख देते हैं
कुछ नहीं में भी

कुछ शराब
पर लिख देते
हैं बहुत कुछ
बिना पिये हुऐ भी

कुछ पीते हैं शराब
लिखते कुछ नहीं हैं
मगर नशे पर कभी भी

कुछ दूसरों
के लिखे को
अपने लिखे में
लिख देते हैं

पता नहीं
चलता हैं
पढ़ने वाले को

बहुत बेशरम
होते हैं बहुत से
बहुत शरीफ
होते हैं लोग

चेहरे कभी
नहीं बताते
हैं शराफत
बहुत ज्यादा
शरीफ होते हैं
बहुत से लोग

दिमाग घूम
जाता है
‘उलूक’ का
कई बार

उसकी पकाई
हुई रोटियाँ
अपने नाम से
शराफत के
साथ जब
उस के सामने
से ही सेंक
लेते  हैं लोग ।

चित्र साभार: http://www.clker.com

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

झगड़े होते होंगे कहीं पर अब सामने से खुलेआम नहीं होते हैं

बिल्लियाँ बंदर
तराजू और रोटी
की कहानी कोई
नई कहानी नहीं है
एक बहुत पुरानी
कहानी है
इतनी पुरानी कहानी
जिसे सुनाते सुनाते
सुनाने वाले सभी
घर के लोग इस समय
घर में बने लकड़ी के
कानस पर रखी हुई
फोटो में सूखे फूलों
की मालाऐं ओढ़े
धूल मिट्टी से भरे
खिसियाये हुऐ से
कब से बैठे हैं
जैसे पूछ रहे हैं
बिल्लियों बंदरों के
झगड़े क्या अब भी
उसी तरह से होते हैं
इस बात से अंजान
कि दीमक चाट चुकी है
कानस की लकड़ी को
और वो सब खुद
लकड़ी के बुरादे
पर चुपचाप बैठे हैं
कौन बताये जाकर
उन्हें ऊपर कहीं कि
बिल्लियाँ और बंदर
अब साथ में ही
दिखाई देते हैं
रोटी और तराजू भी
नजर नहीं आते हैं
तराजू की जरूरत
अब नहीं पड़ती है
उसे ले जाकर दोनों
साथ ही कहीं पर
टाँग कर बैठे हैं
तराजू देखने वाले
सुना है न्याय देते हैं
रोटी के लिये क्यों
और किस लिये
कब तक झगड़ना
इसलिये आटे को ही
दोनो आधा आधा
चुपचाप बांट लेते हैं
बिल्लियों और
बंदरों की नई
कहानियों में अब
ना रोटियाँ होती हैं
ना झगड़े होते हैं
ना तराजू ही होते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

सपने बदलने से शायद मौसम बदल जायेगा

किसी दिन
नहीं दिखें
शायद
सपनों में
शहर के कुत्ते
लड़ते हुऐ
नोचते हुऐ
एक दूसरे को
बकरी के नुचे
माँस के एक
टुकड़े के लिये

ना ही दिखें
कुछ बिल्लियाँ
झपटती हुई
एक दूसरे पर
ना नजर आये
साथ में दूर
पड़ी हुई
नुची हुई
एक रोटी
जमीन पर

ना डरायें
बंदर खीसें
निपोरते हुऐ
हाथ में लिये
किसी
दुकान से
झपटे हुऐ
केलों की
खीँचातानी
करते हुऐ
कर्कश
आवाजों
के साथ

पर अगर
ये सब
नहीं दिखेगा
तो दिखेंगे
आदमी
आस पास के
शराफत
के साथ
और
अंदाज
लूटने
झपटने का
भी नहीं
आयेगा
ना आयेगी
कोई
डरावनी
आवाज ही
कहीं से

बस काम
होने का
समाचार
कहीं से
आ जायेगा

सुबह टूटते
ही नींद
उठेगा डर
अंदर का
बैठा हुआ
और
फैलना शुरु
हो जायेगा
दिन भर
रहेगा
दूसरे दिन
की रात
को फिर
से डरायेगा

इससे
अच्छा है
जानवर
ही आयें
सपने में रोज
की तरह ही

झगड़ा कुत्ते
बिल्ली बंदरों
का
रात में ही
निपट जायेगा
जो भी होगा
उसमें वही होगा
जो सामने से
दिख रहा होगा

 खून भी होगा
गिरा कहीं
खून ही होगा
मरने वाला
भी दिखेगा
मारने वाला भी
नजर आयेगा

‘उलूक’
जानवर
और आदमी
दोनो की
ईमानदारी
और सच्चाई
का फर्क तेरी
समझ में
ना जाने
कब आयेगा

जानवर
लड़ेगा
मरेगा
मारेगा
मिट जायेगा

आदमी
ईमानदारी
और
सच्चाई को
अपने लिये ही
एक छूत
की बीमारी
बस बना
ले जायेगा

कब
घेरा गया
कब
बहिष्कृत
हुआ
कब
मार
दिया गया

घाघों के
समाज में
तेरे
सपनों के
बदल जाने
पर भी
तुझे पता
कुछ भी
नहीं चल
पायेगा ।


चित्र साभार: http://www.clker.com/

रविवार, 14 सितंबर 2014

इस पर लिख उस पर लिख कह देने से ही कहाँ दिल की बात लिखी जाती है



डबलरोटी
और
केक 
की
लड़ाई
लड़ने वालों 
की
सोचते सोचते 

तेरी
खुद की सोच 
क्यों
घूम जाती है 

रोटी
मिल तो 
रही है तुझको 
क्या
वो भी तुझसे 
नहीं
खाई जाती है 

कल
लिखवा गया 
कुछ
उस्तादों के 
उस्ताद
और
उसके 
धूर्त शागिर्दों पर 

आज
बाबाओं और 
भक्तों पर
कुछ 
लिखने की
तेरी 
फरमाईश
सामने 
से आ जाती है 

बदल रही है 
दुनियाँ
बड़ी तेजी से 

घर घर में
खुलती 
बाजार पर
तेरी 
नजर
क्यों
फिर 
भी नहीं जाती है 

आदमी
बेच रहा है 
आज आदमी को 

इंसानियत
सबसे 
आसानी से 
जगह जगह 
बेची जाती है 

बाबा चेले गुरु शिष्य 
हुआ करते होंगे 
किसी जमाने 
की
परम्पराऐं 

आज
हर किसी की 
नजर
हजारों करोड़ों 
की
सम्पति होने 
पर ही
भक्तिभाव
और 
चमक दिखाती है 

ग्रंथ
श्रद्धा के प्रतीक 
हुआ करेंगे
सोच कर 
लिख गये योगी 

देखते
आज सामने 
से ही अपने 
मनन चिंतन
की 
सीमाओं को तोड़कर 

कैसे पाठकगण 
उपभोक्ता

और 
कल्पनाऐं
उपभोग 
की
वस्तु हो जाती हैं 

अच्छी सोच की 
कोपलें भी हैं 
बहुत सी डालों पर 
जैसे एक तेरी 

हर जगह अलग अलग 
रोज ही खिलती हैं
और 
रोज के रोज ही 
मुरझा भी जाती हैं 

‘उलूक’ देखता है 
सब कुछ अंधेरे में 

रोज का रोज 
लिखना लिखाना 
उसके लिये

बस एक 
आवारगी
हो जाती है ।
  
चित्र साभार: http://www.illustrationsof.com/

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

सुधर जा


सुधर जा

कुछ नया पढ़ कुछ नया पढ़ा

जमाने के साथ जा
गेरुआ कपड़ा दिखा
तिरंगे की सरकार बनवा 
करोड़ों खा लिये को गलिया
हजार के नोट की गड्डी घर ले जा

सुधर जा
बहुत ज्यादा मत खिसिया
वो पढ़ा
जो कहीं भी किताबों में नहीं है लिखा

समुंदर देख कर आ
नल पे लगी कतार को हटवा
नहीं कर सकता है
तो किसी को ठेकेदार बनवा

सुधर जा

कुछ चेले चपाटे बनवा
दूसरों के पीछे लगा
अपनी रोटी सेक उनको पागल बना

सुधर जा

कुछ भी हो जा
कुछ उधर दे के आ कुछ इधर दे जा

तेरी कोई नहीं सुनता
तू फेसबुक में खाता बना

ब्लाग में फूलों की फोटो दिखा
हजार निष्क्रिय दोस्त बना
चार के लाईक पर इतरा

जो हमेशा देता है इज्जत
उस सरदार को दुआ देता जा

सुधर जा।

https://www.facebook.com/Masti-comedy-express

शनिवार, 1 सितंबर 2012

तेरी रोटी रोटी थी पर खोटी थी

अपनी एक
रोटी बनाना
टेढ़ी मेढ़ी
मोटी सूखी
स्वाद के साथ
उसको खाना
खुशी मनाना
किसी का इसको
ना देख पाना
उसका घीं का
डब्बा एक लाना
ला लाकर
सबको दिखाना
एक दिन
एक जगह पर
खाने के लिये
सबको बुलाना
सारे सूखी रोटी
वालों का
इक्ट्ठा होकर
वहाँ जाना
घीं वाले का
अपनी रोटी के
साथ वहाँ आना
टेढ़ी मेढ़ी रोटी
वालों को
डब्बा दिखाना
घीं लेकिन
अपनी रोटी
पर लगाना
सूखी रोटी
वालों का
दुखी बहुत
हो जाना
अपनी रोटी
लेकर वापस
अपने घर
आ जाना
घीं के डब्बे
वाले का
जम कर
गाली खाना
जो नहीं
गया कहीं
उसका अपनी
रोटी पर
इतराना
रोटी थी पर
खोटी थी
मुहावरे का
जन्म कहीं
हो जाना ।

गुरुवार, 15 मार्च 2012

अपना कल याद नहीं

वो कल नंगा
हो गया था
आज उसे
कुछ याद नहीं

हंस रहा है
आज सुबह से
सामने खड़े हुवे
नंगो को
देख देख कर

बिना कपड़ों के
भूखे की रोटी
छीन कर खाने
मरीज की
दवा बेच कर
उसे ऊपर पहुंचाने
में माहिर होने के
आरोपों के मेडल
छाती से चिपकाये

आज भौंक रहा है
सुबह से उन्ही
भाई भतीजों पर
जिनको आज उसने
इस लायक बना के
यहां तक आने के
लिये तैयार किया है

उससे दो
कदम आगे
पहुंचने वाले
उसके शागिर्द
काट खा रहे हैं
एक दूसरे को
खुले आम

कर रहे हैं
वो काम
जो उसने
भी किया

चुटकी में
पटक दिया
अपने सांथी को
बिना भनक लगे

सुना था
देख
भी लिया
गुरू सब
दाँव सिखाता है

एक को
छोड़ कर
अपने बचाव
के लिये।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

भूखे के लिये सेमिनार

मैं जानता हूँ
बहुत दिनो से
उसकी जरूरत
भूख से बिलबिलाती
आंतो का हाल
जो उसके मुंह
पर साफ नजर
आता है और
मुझे ये भी
मालूम है
कि केवल एक
रोटी की जरूरत
भर से उसके
चेहरे पर
लाली भरपूर
आने वाली है
मैं खुश हूँ
तब से
जब से
सुना है
मैंने
बहुत जल्दी
ही होने
वाला है
इसका समाधान
शिक्षाविदों
कृषि विशेषज्ञों
पर्यावरण विशेषज्ञों
के एक
विशालकाय
सम्मेलन में।