उलूक टाइम्स: शेर
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शनिवार, 17 मार्च 2012

शेर

सारे शेर भी थे
एक जंगल के भी थे
सबके सपने
अपने अपने थे
गीदड़ों ने मिल कर
उनका शिकार किया
एक नहीं ग्यारह
शेरों पर वार किया
अब शेरों के
घर वालों को
रोना आ रहा है
हर कोई
शेर था शेर था
करके बता रहा है
गीददों से मार
खाई करके बिल्कुल
नहीं शरमा रहा है
जंगल इसीलिये
बरबाद होता जा रहा है
शेर लोग तो जायें गड्ढों में
बेचारे जानवरों को क्यों
जमीन के अंदर बिना
बात ले जाया जा रहा है ?

गुरुवार, 8 मार्च 2012

सबक

मायूस क्यों
होता है भाई
कुर्सी तेरे
आदमी तक
अगर नहीं
पहुंच पायी

तू लगा था
सपने देखने मे
तेरे हाथ भी
कभी एक
स्टूल आ
ही जायेगा
शेखचिल्ली
बनेगा तो
आगे भी जमीन
पर ही आयेगा
आसमान
से गिरेगा
खजूर में
अटक जायेगा

इधर तू दूल्हा
सजा रहा था
उधर तेरा
ही रिश्तेदार
कुर्सी
खिसका रहा था

कहा गया है
कई बार
जिसका काम
उसी को साजे
और करे
तो ठेंगा बाजे

अब भी
सम्भल जा
उस्तरा उठा
और
सम्भाल अपनी
दुकान को
नाई था
नाई हो जा
नेता जी
की दुकान
सजाने अब
तो नहीं जा

कुर्सी सबके
नसीब में होती
तो मैने भी
पैदा होते ही
एक मेज
खरीद ली होती

नाई
दुकानदार
हलवाई
सब अपनी
अपनी जगह
ठीक लगते
हैं भाई

इतिहास
गवाह है
जिस दिन
मास्टर बंदूक
उठाता है
शेर के
शिकार
पर जाना
चाहता है
गोली पेड़
की जड़ मे
लगी हुवी
पाता है
और
मुंह की
खाता है

नेता को
नेतागिरी
अब तो
मत सिखा
लौट के
दुकान पर आ
उस्तरा उठा
शुरू हो जा।