उलूक टाइम्स: सीधी
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सोमवार, 3 नवंबर 2014

आज आपके पढ़ने के लिये नहीं लिखा है कुछ भी नहीं है पहले ही बता दिया है

एक छोटी सी बात
छोटी सी कहानी
छोटी सी कविता
छोटी सी गजल

या और कुछ
बहुत छोटा सा

बहुत से लोगों को
लिखना सुनाना
बताना या फिर
दिखाना ही
कह दिया जाये
बहुत ही अच्छी
तरह से आता है

उस छोटे से में ही
पता नहीं कैसे
बहुत कुछ
बहुत ज्यादा घुसाना
बहुत ज्यादा घुमाना
भी साथ साथ
हो पाता है

पर तेरी बीमारी
लाईलाज हो जाती है
जब तू इधर उधर का
यही सब पढ़ने
के लिये चला जाता है

खुद ही देखा कर
खुद ही सोचा कर
खुद ही समझा कर

जब जब तू
खुद लिखता है
और खुद का लिखा
खुद पढ़ता है
तब तक कुछ
नहीं होता है

सब कुछ तुझे
बिना किसी
से कुछ पूछे

बहुत अच्छी तरह

खुद ही समझ में
आ जाता है

और जब भी
किसी दिन तू
किसी दूसरे का
लिखा पढ़ने के लिये
दूसरी जगह
चला जाता है

भटक जाता है
तेरा लिखना
इधर उधर
हो जाता है

तू क्या लिख देता है
तेरी समझ में
खुद नहीं आता है

तो सीखता क्यों नहीं
‘उलूक’

चुपचाप बैठ के
लिख देना कुछ
खुद ही खुद के लिये

और देना नहीं
खबर किसी को भी
लिख देने की
कुछ कहीं भी

और खुद ही
समझ लेना अपने
लिखे को

और फिर
कुछ और लिख देना
बिना भटके बिना सोचे

छोटा लिखने वाले
कितना छोटा भी
लिखते रहें

तुझे खींचते रहना है
जहाँ तक खींच सके
कुत्ते की पूँछ को

तुझे पता ही है
उसे कभी भी
सीधा नहीं होना है

उसके सीधे होने से
तुझे करना भी क्या है
तुझे तो अपना लिखा
अपने आप पढ़ कर
अपने आप
समझ लेना है

तो लगा रह खींचने में
कोई बुराई नहीं है
खींचता रह पूँछ को
और छोड़ना
भी मत कभी

फिर घूम कर
गोल हो जायेगी
तो सीधी नहीं
हो पायेगी ।

चित्र साभार: barkbusterssouthflorida.blogspot.in

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

कोई नहीं कोई गम नहीं तू भी यहीं और मैं भी यहीं



साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन

तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं

हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं


कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर

घर से
निकलता
है सुबह

ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या

असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ

सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ

क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये

और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का

और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है

और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की

पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है

और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ

इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।

चित्र साभार: http://www.gograph.com/