उलूक टाइम्स

सोमवार, 2 नवंबर 2009

भारत की पचासवीं वर्षगांठ

प्रतीक्षा में हूँ
उन सर्द
हवाओं की
जो मेरी
अन्तरज्वाला
को शांत करें ।

प्रतीक्षा में हूँ
उन गरम
फिजाओं की
जो मेरे
ठंडेपन को
कुछ गरम करें ।

सदियों से
मेरी गर्मी
मेरी सर्दी
से राजनीति
कर रही है ।

सर्द हवाऎं
मेरी सर्दी
को अपना
लेती हैं ।

गरम फिजाऎं
मेरी ज्वाला
को उतप्त
बना देती हैं

आज भी मैं
वहीं हूँ
जहाँ मैं
जल रहा था ।

आज भी मैं
वहीं हूँ
जहाँ मैं

जम रहा था ।


अब
पचास वर्षों
के बाद

मुझे इंतजार है
न सर्द
हवाओं का ।

न इंतजार है
गरम
फिजाओं का ।

शायद यही
रास्ता है

कभी

मेरी गर्मी
मेरी सर्दी
से मिले
और
यूं ही
भटकते हुवे
मुझे स्थिरता
मिले ।

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

संदेश


चाँद पे जाना मंगल पे जाना
दुनिया बचाना बच्चो
मगर 
भूल ना जाना ।

मोबाइक में आना मोबाइल ले जाना
कापी पेन बिना लेकिन स्कूल ना जाना ।

केप्री भी बनाना हिपस्टर सिलवाना
खादी का भी थोड़ा सा नाम कुछ बचाना ।

जैक्सन का डांस हो बालीवुड का चांस हो
गांधी टैगोर की बातें कभी तो सुन जाना ।

पैसा भी कमाना बी एम डब्ल्यु चलाना
फुटपाथ मे सोने वालों को ना भूल जाना ।

भगत सिंह का जोश हो सुखदेव का होश हो
आजाद की कुर्बानी जरा बताते चले जाना ।

पंख भी फैलाना कल्पना में खो जाना
दुनिया बनाने वाले ईश्वर को ना भुलाना ।

कम्प्टीशन में आना कैरियर भी बनाना
माँ बाबा के बुढापे की लाठी ना छुटवाना ।


चित्र साभार: 
https://www.vecteezy.com/

रविवार, 27 सितंबर 2009

आशिक

वो अब हर बात में पैमाना ढूंढते हैं
मंदिर भी जाते हैं तो मयखाना ढूंढते हैं ।

मुहल्ले के लोगों को अब नहीं होती हैरानी
जब शाम होते ही सड़क पर आशियाना ढूंढते हैं ।

पहले तो उनकी हर बात पे दाद देते थे वो
अब बात बात में नुक्ताचीनी का बहाना ढूंढते हैं ।

जब से खबर हुवी है उनकी बेवफाई की
पोस्टमैन को चाय पिलाने का बहाना ढूंढते हैं ।

तारे तक तोड़ के लाने की दीवानगी थी जिनमें
बदनामी के लिये अब उनकी एक कारनामा ढूंढते हैं ।

उनकी शराफत के चरचे आम थे हर एक गली में
अब गली गली मुंह छुपाने का ठिकाना ढूंढते हैं ।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

साये का डर


गुपचुप गुपचुप गुमसुम गुमसुम
अंधेरे में खड़ी हुई तुम

अलसाई सी घबराई सी
थोड़ा थोड़ा मुरझाई सी

बोझिल आँखे पीला चेहरा
लगा हुवा हो जैसे पहरा

सूरज निकला प्रातः हुवी जब
आँखों आँखों बात हुवी तब

तब तुम निकली ली अंगड़ाई
आँखो में फिर लाली छाई

चेहरा बदला मोहरा बदला 

घबराहट का नाम नहीं था
चोली दामन साँथ नहीं था

हँस कर पूछा क्या आओगे
दिन मेरे साथ बिताओगे

अब साया मेरी मजबूरी थी
ड्यूटी बारह घंटे की पूरी थी

पूरे दिन अपने से भागा
साया देख देख कर जागा

सूरज डूबा सांझ हुवी जब
कानो कानो बात हुवी तब

तुम से पूछा क्या आओगे
संग मेरे रात बिताओगे

सूरज देखो डूब गया है
साया मेरा छूट गया है

बारह घंटे बचे हुए हैं
आयेगा फिर से वो सूरज

साया मेरा जी जायेगा
तुम जाओगे सब जायेगा

अब यूँ ही मैं घबरा जाउंगा

गुपचुप गुपचुप गुमसुम गुमसुम
अपने में ही उलझ पडूंगा ।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

करवट

अचानक
उन टूटी खिड़कियों का
उतरा रंग 
चमकने लगा 

शायद
जिंदगी ने अंगड़ाई ली

शमशान
की खामोशी नहीं
शहनाईयां बज रही हैं आज

फिर से
आबाद होने को है 
उसका घरौंदा

कल तक 
रोटी कपडे़ के लिये 
मोहताज हाथों में 

दिखने लगी हैं
चमकती चूड़ियां 
जुल्फें संवरी हुवी हैं
होंठो पे लाली भी है

लेकिन
कहीं ना कहीं 
कुछ छूटा हुवा सा लगता है

चेहरे पे
जो नूर था
रंगत थी आंखों में 
आज वो उतरा हुवा सा
ना जाने क्यों लगता है

बच्चों के
चीखने की आवाज
अब नहीं आती है

बूड़े माँ बाप
के चेहरों पे
खामोशी सी छाई है 

शायद
किसी आधीं ने 
उड़ा दिया सब कुछ

अपनी जगह
पर ही है हर एक चीज
हमेशा की तरह 

पर कुछ तो हुआ है
ना जाने 

जो
महसूस तो होता है
पर दिखता नहीं है।