उलूक टाइम्स

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शैतान बदरिया

ओ बदरिया कारी
है गरमी का मौसम
और तू रोज रोज
क्यों आ जा रही
बेटाईम आ आ के
भिगा रही
बरस जा रही
सबको ठंड लगा रही
जाडो़ भर तूने नहीं
बताया कि तू क्यों
नही बरसने
को आ रही
लगता है तू आदमी
को अपना
मूड दिखा रही
आदमी के
कर्मों का
फल उसको
दिला रही
पर तू ये भूल
क्यों जा रही
कि तेरे बदलने
से ही तो
आदमी की पौ
बारा हो जा रही
क्लाईमेट चेंज और
ग्लोबल वार्मिंग
के नाम पर
जगह जगह दुकानें
खुलते जा रही
जैसे ही नदी सूख
जाने की खबर
दी जा रही
तू शैतान बरस
के पानी से लबालब
करने क्यों आ रही
बदरिया जरा कुछ
तो बता जा री।

रविवार, 29 अप्रैल 2012

स्वामी विवेकानन्द और अल्मोड़ा 1863 - 2013


एक पूरी और एक आधी सदी
पुन : एक बार फिर से खुली
एक बंद खिड़की

आहट कुछ हुवी
नरेन्द्र के यहाँ कभी आने की

भारत के झंडे
अमेरिका में गाड़े थे
जिस युवा ने कभी

कोशिश करी किसी ने तो
उस स्मृति को हिलाने की

मेरे शहर अल्मोड़ा ने
देखा फिर से एक बार
वो अवतार

स्वामी विवेकानन्द
अवतरित होकर आया
बच्चों के रूप में इस बार

एक दिन के लिये ही कहीं
बच्चे युवा बुजुर्ग जुड़े यहीं

किया याद अश्रुपूर्ण नेत्रों से
उस अवतार को

जिसपर लुटाया था
मेरे शहर ने अपने प्यार को

कम उम्र में माना कि
वो हमेंं छोड़ कर चला गया

"उठो जागो रुको मत करो प्राप्त अपना लक्ष्य "
का संदेश पूरे जग को दे गया।

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

"चुहिया"

गीदड़ ने
अखबार में
छपवाया है
वो शेर है

ताज्जुब है
वो अब
तो गुर्राता
भी है

शेरों को
कोई फर्क
कहाँ पड़ता है

हर शेर
हमेशा
की तरह
आफिस
आता है

बॉस को
लिखाता है
वो अभी
भी शेर है

चुहिया
हमेशा
की तरह
लिपिस्टिक
लगा कर
आती है
पूंछ
उठाती है
हर शेर के
चारों तरफ
हौले हौले
कदमताल
रोज कर के
ही जाती है

शेर कुछ
कह नहीं
पाते हैं

बस
मूँछ मूँछ
में ही कुछ
बड़बड़ाते हैं
चुहिया की
मोटापे को
सुन्दरता
की पायजामा
अपने शब्दों
में पहनाते है

चूहा
शेरों की
दुकान
चलाता है
भेजता
जाता है
चुहिया को 
गीदड़ के
घर रोज

ताकि
किसी दिन
गीदड़ भटक
ना जाये
और
कबूल ना
कर ले जाये
वो शेर नहीं है ।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

पप्पू और दुकान


पप्पू
की
दुकान में
अब
कोई नहीं आता

पिछली
सरकार से 
पप्पू
का था
कुछ नाता

पप्पू
पाँच साल
तक रहा 
पुराना राशन
बिकवाता

सभी
संभ्रांत लोगों
को
पप्पू
था बहुत ही भाता

ज्यादातर
लोगों
का 
पप्पू
की दुकान तक

इसीलिये
दिनभर में
एक
चक्कर तो था
लग ही जाता 

पप्पू
का
दीदार एकबार
होना ही
खाना पचा पाता

जब से
सरकार बदली है
अपने
कर्मों से
अभी तक
भी
नहीं वो संभली है

पता नहीं
चल पा रहा 
ऊँट
किस करवट 
बैठने को है
जाता

कौन सा
दुकानदार
अबकी बार
सरकार में
है
कुछ पैठ बनाता

बुद्धिजीवी
शाँत हो गया
कुछ नहीं है
वो बताता

पप्पू
भी
अब दुकान में
बहुत कम ही है
जाता

पप्पू की
दुकान में
अब
कोई नहीं आता।

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

सायरन बजा देवता नचा

कुछ ही दिन पहले तक
लोगों के बीच में था
एक आदमी अब
सायरन सुना रहा है
सड़क पर खड़ी जनता को
अपने से दूर भगा रहा है
सायरन बजाने वालों
में बहुत लोगों का अब
नम्बर आ जा रहा है
जिसका नहीं आ पा रहा है
वो गड्ढे खोदने को जा रहा है
काफिले बदल रहे हैं
झंडे बदल रहे हैं
कुछ दिन पहले तक
सड़क पर दिखने वाला 

चेहरा आज बख्तरबंद 
गाड़ी में जा रहा है
पुराने नेता और उनको
शहर से बाहर तक 

छोड़ने जाने वाले लोगों
को अब बस बुखार
ही आ रहा है
गाड़ियां फूलों की माला
सायरन की आवाज
काफिले का अंदाज
नहीं बदला जा रहा है
टोपी के नीचे वाला
हर पाचं साल में
बदल जा रहा है
शहर में लाने ले जाने
वाले भी बदल जा रहे हैं
बदल बदल के पार्टियों
के राजकाज को वोटर 

सिर खुजाता जा रहा है
बस सुन रहा है सायरन
का संगीत बार बार
पहले वो बजा रहा था
अब ये बजा रहा है
देव भूमि के देवताओं
को नचा रहा है
मेरा प्रदेश बस 
मातम  मना रहा है
दिन पर दिन
धरती में समाता
जा रहा है 

उसको क्या पड़ी है
वो बस सड़क पर
गाड़ियां दौड़ा रहा है
सायरन बजा रहा है।