उलूक टाइम्स

बुधवार, 12 जून 2013

समाज को समझ सामाजिक हो जा

तेरे मन की जैसी नहीं होती है
तो 
बौरा क्यों जाता है 

सारे लोग लगे हैं जब लोगों को पागल बनाने में 
तू क्यों पागल हो जाता है 

जमाना तेजी से बदल रहा है 
कुछ तो अपनी आदतों को बदल डाल 
बात बात में फालतू की बात अब ना निकाल 

मान भी जा 
कुछ तो समझौते करने की आदत अब ले डाल 

देखता नहीं 
बढ़ती उम्र में भी आदमी बदल जाता है 
अच्छा आदमी होता है तो आडवानी हो जाता है 

अपने घर से शुरु कर के तो देख जरा 
थोड़ा थोड़ा घरवाली की बात पर
होना छोड़ दे अब टेढ़ा टेढ़ा

उसके बाद 
आफिस की आदतों में परिवर्तन ला 
साहब चाहते हों तुझे गधा भी बनाना 
वो भी बन कर के दिखा 
समझा कर 
तेरा कुछ भी नहीं जायेगा 
पर तेरा साहब जरूर एक धोबी हो जायेगा

सत्कर्म करने वाला ही मोक्ष पाता है 
किताबों में लिखा है ऎसा माना जाता है 
ऎसी किताबों को कबाड़ी को बेच कर के आ 
बहुमत के साथ रह बहुमत की बात कर 
बहुमत के मौन की इज्जत करने में
तेरा क्या जाता है 

तू इतना बोलता है 
तेरे को सुनने क्या कोई आता है 
समझने वाले लोग
समझदारों की बात ही समझ पाते हैं 
तेरे भेजे में ये कड़वा सच क्यों नहीं घुस पाता है 

अब भी समय है 
समझदारों में जा कर के शामिल हो जा 
अन्ना की टोपी पहन मोदी को माला पहना 
मौका आता है जैसे ही राहुल की सरकार बना 
सबके मन की जैसी करना अब तो सीख जा 
बात कहने को किसी ने नहीं किया है मना 

लेखन को धारदार बना 
लोहे की हो जरूरी नहीं लकड़ी की तलवार बना 

मन की जैसी नहीं हो रही हो तो मत बौरा 
खुद पागल क्यों होता है 
लोगों को पागल बना 

समाज से अलग थलग पड़ने का नहीं है मजा 
बहुमत को समझने की कभी तो कोशिश कर 
'उलूक' थोड़ी देर के लिये ही सही सामाजिक हो जा । 

चित्र साभार: https://www.gettyimages.in/

सोमवार, 10 जून 2013

कुछ नहीं हुआ

कुछ नहीं हुआ

 बस एक कूँची
चलाना सिखाने
वाले ने पेपर
कटर घुमा दिया

अपनी ही एक
शिष्या को
सुना है
हस्पताल में
पहुँचा दिया

सुबह से खबर
पर खबर
चल रही थी

इधर से उधर
भी आ और
जा रही थी

इसके मुँह में
बीज थी उसके
मुँह में फूल सा
एक बनता हुआ
दिखा रही थी

अखबार वाले
टी वी वाले
पुलिस वाले
हाँ असली
भूल गया
मेरे घर के
अंदर के ,
डंडे वाले

सभी टाईम
से आ गये थे
अपना अपना
धरम सब ही
निभा गये थे


टी वी में
कच्ची खबर
चलना शुरू
हो चुकी थी


असली खबर
मसाले के साथ
प्रेस में पकना
शुरु हो चुकी थी


कल सुबह
सारे अखबारों
के फ्रंट पेज में
आ भी जायेगी


क्या बतायेगी
ये तो कल को
ही पता
चल पायेगी


बहुत से मेडल
मिल रहे हैं
मेरी संस्था को
उसमें एक को
और
जोड़ ले जायेगी


मैंने जो क्या
किया है कुछ
मुझको क्यों
शरम आ जायेगी


सारी दुनियाँ
में जब हो
रहे हैं हजारों
कत्लेआम
रोज का रोज


एक बस
मेरे घर में
होने को हुआ
तो क्या हुआ


बस इतना सा
ही तो हुआ
और किसी
को कुछ भी
तो नहीं हुआ


चिंता किसी
को बिल्कुल
भी नहीं हुई


ये सबसे
अच्छा हुआ
जवाबदेही
किसी की
नहीं बनती है

थोड़ी सी भी
जब कुछ भी
कहीं भी
नहीं हुआ ।

रविवार, 9 जून 2013

क्या होता है जब कोई पेड़ हो गया होता है

पेड़ पेड़ होता है
कोई छोटा होता है
कोई बड़ा होता है
पेड़ किसी से कभी
कुछ नहीं कहता है
पेड़ अपनी धुन में
हमेशा रहता है
भूकंप के झटके हों
चाहे हवा के थपेडे़
इधर का उखडे़
उधर का उखडे़
पेड़ की कभी
कोई प्रतिक्रिया
नहीं होती है
पेड़ अपने
आसपास से
अपना पेट
भर लेता है
कोई अगर भूखा
सो गया होता है
वो पेड़ को पता
होता है या नहीं
ये किसी को भी
कहाँ पता होता है
पेड़ एक
योगी होता है
यही सब तो आज
लगता है हर किसी
ने सीखा होता है
पेड़ की तरह बस
खड़ा नहीं होता है
चल रहा होता है
लेकिन एक छोटा
या एक बड़ा पेड़
जरूर हो गया होता है
चारों तरफ कुछ भी
कहीं घट रहा होता है
निर्विकार योगीभाव
देखिये तो जरा
उसे कुछ नहीं होता है
दिमाग मत लगाइये
सोचने में इतना कि
कोई कुछ क्यों नहीं
कह रहा होता है
पेड़ होने के नुकसान
कम और फायदे ज्यादा
वो गिन रहा होता है
जिसके लिये हर चीज
एक छोटा या बड़ा पेड़
हो गयी होती है
वो चल रहा होता है
उसे खुद भी पता
हो गया होता है
तुझे ये सब आज
दिख रहा होता है
वो तो कब का एक
पेड़ हो गया होता है ।

शुक्रवार, 7 जून 2013

क्या आपने देखी है/सोची है भीड़



भीड़ देखना 
भीड़ सोचना
भीड़ में से गुजरते हुऎ भी भीड़ नहीं होना
बहुत दिन तक नहीं हो पाता है

हर किसी के 
सामने 
कभी ना कभी कहीं ना कहीं 
भीड़ होने का मौका जरूर आता है 

कमजोर दिल 
भीड़ को देख कर अलग हो जाता है
भीड़ को दूर से देखता जाता है 

मजबूत दिल 
भीड़ से नहीं डरता है कभी 
भीड़ देखते ही भीड़ हो जाता है 

भीड़ कभी 
चीटियों की कतार नहीं होती 
भीड़ कभी बीमार नहीं होती
भीड़ में से गुजरते हुऎ
भीड़ में समा जाना 
ऎसे ही नहीं आ पाता है

भीड़ का भी 
एक गुरु होता है
भीड़ बनाना भीड़ में समाना
बस वो ही सिखाता है

भीड़ेंं तो बनती 
चली जाती हैं 
भीडे़ंं सोचती भी नहीं हैं कभी
गुरु लेकिन सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाता है

भीड़ फिर कहीं 
भीड़ बनाती है 
गुरू कब भीड़ से अलग हो गया
भीड़ की भेड़ को कहाँ समझ में आ पाता है ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 1 जून 2013

स्वायत्तता

हमेशा की तरह
आज भी आया हूँ
फिर से एक
बेवकूफी भरा
सवाल लाया हूँ
स्वायत्तता और
स्वायत्तशाशी
संस्थान में मौज
मारता रहा हूँ
पर होती क्या है
अभी तक खुद भी
नहीं समझ पाया हूँ
सरकार
सी बी आई को
स्वायत्तता
देने जा रही है
सुनकर अपनी
आँख थोड़ा सा
खोल पाया हूँ
विकीपीडिया
स्वायत्तता
का मतलब
समझाती है
अपने नियम
खुद बनाना
और उससे
किसी सिस्टम
को चलाना
होता है
ऎसा कुछ
समझाती है
इसलिये
स्वायत्तशाशी
संस्थानों में
कोई बाहर
का नियम नहीं
चल पाता है
क्योंकि हर कोई
अपनी सुविधा से
अपना एक नियम
अपने लिये बनाता है
आजादी अगर
देखनी हो
तो किसी भी
स्वायत्तशाशी
संस्थान में
चले जाईये
वहाँ हाजिरी
लगना लगाना
बेवकूफी
समझा जाता है
जब मन
आये आइये
जब मन ना हो
कहीं भी घूमने
चले जाइये
छुट्टी की अर्जी
भेजने की
जहमत भी
मत उठाइये
नौकरी पा
जाने के बाद
काम करने
को किसी से
भूल में भी ना
कह ले जाइये
स्वायत्तता
में रहकर जो
काम कर
रहा होता है
वो एक
गधा होता है
उस गधे
को छोड़ कर
बाकी हर कोई
स्वायत्त होता है
देश की सरकार
और सरकारी
दफ्तरों में सरकार
स्वायत्तता क्यों
नहीं बाट
ले जा रही है
सब जगह
अपने नियम
खुद बनाने
वाले पेड़
क्यों नहीं
उगा रही है
सारे झगडे़
स्वायत्तता
मिलते ही
निपटते
चले जायेंगे
सब लोग जब
अपने अपने
नियम खुद
बनाते चले जायेंगे
कोई किसी
से कुछ भी
नहीं कहीं
कह पायेगा
जो कहेगा
वो अपनी मौत
खुद ही अपने
लिये बुलायेगा
स्वायत्तता वैसे
तो समझ में
नहीं भी कभी
आ पाती है
देश को तो
एक सरकार
ही मगर
चलाये जाती है
उसे स्वायत्त
नहीं सरकारी
ही हमेशा से
कहा जाता है
ज्यादातर
सरकार सबको
सरकारी ही रहने
देना चाहती है
बस जिसे बर्बाद
करना होता है
उसे ही स्वायत्तता
देना चाहती है ।