उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

अच्छी छवि होना अच्छा नहीं होता है

कतिपय
कारणों से

तू अपनी एक
अच्छी छवि नहीं
बना पाया होगा

कभी ऎसा
भी होता है

समझौते करना
करवाना शायद
इसी चीज ने तुझे
तभी सिखाया होगा

होता है

इसीलिये
तू बहुत ही शातिर
हो पाया होगा

यही तो फिर
होता है

इन सब के बावजूद
सारे काम निकलवाने
के लिये तूने अपनी
बुद्धि को लगाया होगा

जो करना ही
होता है

एक अच्छी छवि
के आदमी को
बहलाया होगा
काम वही कर रहा है
सबको दिखाया होगा

हर किसी को
इस तरह का
एक आदमी
चाहिये ही
होता है

काम करवाने
के लिये
पैसे रुपिये
जमा कुछ
करवाया होगा

बिना इसके कोई
काम कैसे होता है

थोड़ा कुछ उसमें से
तूने भी खाया होगा

अब मेहताना
कौन बेवकूफ
नहीं लेता है

अच्छी छवि
वाले को
किसी ने कुछ
बताया होगा

भला ऎसा
कहीं होता है

अब समझ में
आ ही गया
होगा तेरे को

अच्छे कर्म
करने का
फायदा जरूर
होता है

ये बात
अलग है कि
उसका श्रेय कोई
और ले लेता है

इसी लिये तो
कहा गया है
नेकी करने के बाद
उसको कूँऎं में क्यों
नहीं डाल देता है

जिसे नहीं आती है
समझ में यही बात
वो सब कुछ किसी
के लिये करने
पर मजबूर
होता है

करना भी उसे
होता है
और
करनी पर रोना
भी उसे ही
होता है

तू खुद
ही सोच ले अब

एक अच्छी
छवि होने से
कोई कितना
बदनसीब
होता है ।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

सर्वगुण संपन्न की मोहर लगवा कोई नहीं देखेगा हरा है या भगवा

क्रिकेट हो फुटबाल हो
बैडमिंटन हो
या किसी और तरीके का खेल हो

साँस्कृतिक कार्यक्रमों की पेलम पेल हो

टीका हो या चंदन हो
नेता जी का अभिनन्दन हो

सभी जगह पर
'सर्वगुण संपन्न' की मोहर
माथे पर लगे हुओं को ही मौका दिया जाता है
आता है या नहीं आता है ये सोचा ही नहीं जाता है

ये मोहर भी
कोई विश्वासपात्र ही बना पाता है

कुछ खास जगहों पर
खास चेहरों के सिर पर ही
सेहरा बाँधा जाता है

खासियत की परिभाषा में
जाति धर्म राजनीतिक कर्म तक
कहीं टांग नहीं अपनी अढ़ाता है

सामने वाला
कुछ कर पाता है या नहीं कर पाता है

ये सवाल तो
उसी  समय गौंण हो जाता है
जिस समय से किसी को
बेवकूफों की श्रेणी में डालकर
सीलबंद हमेशा के लिये
करने का ठान लिया जाता है

यही सबको बताया भी जाता है

इसी बात को फैलाया भी जाता है

पूरी तरह से
मैदान से किसी का
डब्बा गोल करने का
जब सोच ही लिया जाता है

क्या करें
ये सब मजबूरी में ही किया जाता है

एक जवान होते हुऎ
शेर को देखकर ही तो
जंगल के सारे कमजोर कुत्तो से
एक हुआ जाता है

बेवकूफ की
मोहर लगा वही शख्स
रक्तदान के कार्यक्रम की
जिम्मेदारी
जरूर पा जाता है
सबसे पहले अपना रक्त
देने से भी नहीं कतराता है

समझदारों में से एक
समझदार
उसी रक्त का मूल्य
अपनी जेब में रखकर
कहीं पीछे के दरवाजे से
निकल जाता है

सफलता के ये सारे पाठों को
जो आत्मसात नहीं कर पाता है

भगवान भी उसके लिये
कुछ नहीं कर पाता है ।

आजादी भी खुद चाहती है अब आजादी

सभी भारतीयों को
स्वतंत्रता दिवस की
बहुत बहुत शुभकामनाएं
लो आ गया फिर आज
वो मुबारक दिन
पूर्ण हुई थी जब कभी
मेरे देश के नागरिकों
की सारी मनोकामनाएं
आजादी मिली थी
आज ही के दिन
ऎसा कुछ कभी
पढ़ाया गया था
बताया गया था
बुजुर्गों द्वारा अपनी
कहानियों में कभी 
सुनाया गया था
आजाद हो गये हैं
सब लोक भी
और तंत्र भी
ऎसा कुछ कभी
समझाया गया था
और
ये बात तो सच है
महसूस भी होती है
दिल को अंदर तक
कहीं छू भी लेती है
आजादी अब कहीं
भी रुकती नहीं
होता नहीं कोई
घर्षण  अब कहीं
स्वत: स्फूर्त होती है
बाहर से नहीं
दिल के अंदर
से होती है
अब आजादी
जीवित ही नहीं
बेजान में तक
जीती हुई सी
मिलती है
जब आजादी
हुऎ
हम सब
आजाद ऎसे
टूटती रही सारी
सीमाऎं जैसे
धीरे धीरे कुछ
यूँ ही सभी
कसमसाती ही रही
तब ये आजादी
चाहने लगी अपने
ही खुद के लिये
भी कुछ आजादी
अब दिख रही है
हर तरफ हर चीज
खुद से आजाद ऎसे
कुछ कहती नहीं बस
मौन सी हो
गई है आजादी
हम हो चुके हैं
तोड़ कर सारी हदें
इतना आजाद
कि अब रहना
भी नहीं चाहती
साथ में ये
ही आजादी
सब को मुबारक
आज का दिन
अभी तक तो
कह ही रही है
ये ही आजादी
कल जो करे
वो सो करे
पर आज तो
मजबूर सी क्यों
लग रही है आजादी
क्या उम्र ज्यादा
होने से बूढ़ी तो
नहीं हो गई
है ये आजादी ।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

तू बंदूक चलाने को कंधा दे देगा मेडल पर मेरे को मिलेगा

आसान होता है 
बंदूक चलाना घोडे़ को दबाना 

किसी के मरे बिना 
चारों खाने चित्त कर ले जाना 

ना खून का दिखना 
ना पुलिस का आना ना कोई मुकदमा 
ना किसी को कहीं जेल की सजा हो जाना 

कौन सी ऎसी बंदूक होगी 
दिखती भी नहीं होगी 
गोली भी नहीं होगी 
आवाज भी नहीं होगी 

और तो और 
किसी सामने वाले की 
मौत भी नहीं होगी 

सांप भी नहीं होगा लाठी भी नहीं होगी 
फौज भी नहीं होगी सरहद भी नहीं होगी 
बस होगी वाह वाह जो हर तरफ होगी 

बेवकूफ हैं जो सेना में चले जाते हैं 
सरहद में जाकर 
गोली खा खा कर मर जाते हैं 

पता नहीं बंदूक चलाने का 
सबसे आसान तरीका क्यों नहीं अपनाते हैं 
जिसमें 
बंदूक खरीदने कहीं भी नहीं जाते हैं 
बंदूक 
बस एक अपनी सोच में ले आते हैं 

जरूरत होती है एक ऎसे कंधे की 
जो आसानी से ही उपलब्ध हो जाते हैं 

सारे शूरवीर ऎसे ही कंधों में रखकर 
घोड़ों को दबाते हैं गोली चलाते हैं 
सामने वाले कोई नहीं कहीं मर पाते हैं 

कंधे देने वाले ही इसमें शहीद हो जाते हैं 
बंदूक चलाने वाले मेडल पा जाते हैं 

बेवकूफ कंधे देने वाले 
समाज में हर कोने में पाये जाते हैं 
लेकिन उस पर बंदूक रख कर 
गोली चलाने वाले बिरले ही हो पाते हैं 

समाज को दिशा देने वालों में 
आज ये ही लोग 
सबसे आगे जाते हैं 

जो अपने कंधे ही नहीं बचा पाते हैं 
ऎसे बेवकूफों से 
आप और क्या उम्मीद लगाते हैं ?

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

कभी एक रोमानी खबर क्यों नहीं तू लाता है

सब कुछ तो
वैसा 
नहीं
होता है

जैसा 

रोज का रोज
आकर तू यहां
कह देता है

माना कि
अन्दर से
ज्यादातर
वही सब कुछ
निकलता है

जैसा कि
अपने आस
पास में
चलता है

पर
सब कुछ
तुझे ही

कैसे
और क्यों
समझ में
आता है

तेरे
वहाँ तो

एक से
बढ़कर एक
चिंतकों का

आना जाना
हमेशा से ही
देखा जाता है

पर
तेरी जैसी
अजीब
अजीब सी
परिकल्पनाऎं
लेकर

कोई ना तो
कहीं आता है
ना ही कहीं पर
जाकर बताता है

दूसरी
ओर देख

बहुत
सी चीजें
जो होती
ही नहीं है

कहीं
पर भी
दिखती नहीं हैं

उन
विषयों
पर भी

आज जब
विद्वानोंं द्वारा

बहुत कुछ
लिखा हुआ
सामने
आता है

शब्दों के
चयन का
बहुत ही
ध्यान रखा
जाता है

भाषा
अलंकृत
होती है

ऊल जलूल
कुछ भी
नहीं कहा
जाता है

तब तू भी
ऎसा कुछ
कालजयी
लिखने की
कला सीखने
के लिये

किसी को
अपना गुरू
क्यों नहीं
बनाता है

वैसे भी
रोज का रोज
सारी की सारी
बातों को
कहना

कौन सा
इतना जरूरी
हो जाता है

जहाँ
तेरे चारों ओर
के हजारों
लोगों को

अपने सामने
गिरते हुऎ
एक मकान
को देखकर

कुछ भी नहीं
हुआ जाता है

तू
बेकार में
एक छोटी सी
बात को

रेल में
बदलकर
हमारे सामने
रोज क्यों
ले आता है

अपना समय
तो करता ही
है बरबाद

हमारा
दिमाग
भी साथ
में खाता है ।