उलूक टाइम्स

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

किसी की लकीरों का किसी को समझ में आ जाना

कई दिन से
देख रहा हूँ
उसका एक
खाली दीवार
पर कुछ
आड़ी तिरछी
लकीरें बनाते
चले जाना
उसके चेहरे
के हाव भाव
के अनुसार
उसकी लकीरों
की लम्बाई
का बढ़ जाना
या फिर कुछ
सिकुड़ जाना
रोज निकलना
दीवार के
सामने से
राहगीरों का
कुछ का
रुकना
कुछ का
उसे देखना
कुछ का
बस दीवार
को देखना
कुछ का
उसके चेहरे
को निहारना
फिर मुस्कुराना
उसका किसी
के आने जाने
ठहरने से
प्रभावित
नहीं होना
बिना नागा
जाड़ा गरमी
बरसात
लकीरों को
बस गिनते
चले जाना
हर लकीर
के साथ
कोई ना
कोई अंतरंग
रिश्ता बुनते
चले जाना
उसकी खुशी
उसके गम
उसके
अहसासों का
कुछ लकीरें
हो जाना
सबसे बड़ी बात
मेरा कबूल
कर ले जाना
उसकी हर
लकीर का
मतलब उतना
ही उसकी
समझ के
जितना ही
समझ ले जाना
उसकी लकीरों
का मेरी अपनी
लकीरें हो जाना
महसूस हो जाना
लकीर से
शुरु होना
एक लकीर का
और लकीर पर
जा कर
पूरी हो जाना | 

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

अपना अपना देखना अपना अपना समझना हो जाता है

एक चीज मान लो
कलगी वाला एक
मुर्गा ही सही
बहुत से लोगों
के सामने से
मटकता हुआ
निकलता है
कुछ को दिखता है
कुछ को नहीं
भी दिखता है
या कोई देखना
नहीं चाहता है
जिनको देखना ही
पड़ जाता है
उनको पता
नहीं चलता है
मुर्गे में क्या
दिखाई दे जाता है
अब देखने का
कोई नियम भी तो
यहाँ किसी को
नहीं बताया जाता है
जिसकी समझ में
जैसा आता है
वो उसी हिसाब से
हिसाब लगा कर
उतना ही मुर्गा
देख ले जाता है
बात तो तब
बिगड़ती है जब
सब से मुर्गे
की बात को
लिख देने को
कह दिया जाता है
सबसे मजे में
वो आ जाता है
जो कह ले जाता है
मुर्गा क्या होता है
उसको बिल्कुल
भी नहीं आता है
बाकी सब
जिन के लिये
लिखना एक मजबूरी
ही हो जाता है
वो एक दूसरा क्या
लिख रहा है
देख देख कर भी
अलग अलग बात
लिख जाता है
देखे गये मुर्गे को
हर कोई एक मुर्गा
ही बताना चाहता है
इसके बावजूद भी
किसी के लिखे में
वो एक कौआ
किसी में कबूतर
किसी में मोर
हो जाता है
पढ़ने वाला जानता
है अच्छी तरह
कि मुर्गा ही है
जो इधर उधर
आता जाता है
लेकिन पढ़ने के
बावजूद उसकी
समझ में किसी
के लिखे में से
कुछ भी
नहीं आता है
क्या फरक
पड़ना है
'उलूक' बस यही
कह कर चले जाता है
लिखने वाला अपने
लिखे के लिये ही
जिम्मेदार माना जाता है
पढ़ने वाले का उसका
कुछ अलग मतलब
निकाल लेना उसकी
अपनी खुद की
जिम्मेदारी हो जाता है
इसी से पता चल
चल जाता है
मुर्गा देखने
मुर्गा समझने
मुर्गा लिखने
मुर्गा पढ़ने में
कोई सम्बंध
आपस में
कहीं नजर
नहीं आता है ।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

बदतमीजी कर मगर तमीज से नहीं तो आजादी के मायने बदल जाते हैं

वो
करते
थे सुना

गुलामी
की बात

जो
कभी
आजाद
भी हो गये थे

कुछ
बच गये थे

आज
भी हैं
शायद
कहीं
इंतजार में

बहुत सारे
मर खप भी
कभी के गये थे

ऐसे ही
कुछ
निशान

आजादी
के कुछ

गुलामी
के कुछ

आज भी
नजर कहीं
आ ही जाते हैं

कुछ
खड़ी
मूर्तियाँ

शहर
दर शहर
चौराहों पर

कुछ
बैठे बूढ़े
लाठी लिये

खेतों के लिये
जैसे वजूका
एक हो जाते है

पर
कौए
फिर भी
बैठ ही
कभी जाते हैं

कोई
नहीं देखता
उस तरफ
कभी भी

मगर
साल
के किसी
एक दिन

रंग
रोगन कर
नये कर
दिये जाते हैं

देख सुन
पढ़ रहे होंं
सब कुछ

आज भी

आज को
उसी अंदाज में

देखो
उनकी
तरफ तो
नजर से
नजर मिलाते
नजर आ जाते हैं

बदतमीजी

बहुत
हो रही है
चारों तरफ

बहुत
ही तमीज
और बहुत
आजादी के साथ

बस
दिखता है
इन्ही को

समझते
भी ये
हैं सब

बाकी तो
आजाद हैं

कुछ
इधर से
निकलते
हैं उनके

कुछ
उधर से
भी निकल
जाते हैं ।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

जमीन की सोच है फिर क्यों बार बार हवाबाजों में फंस जाता है

अब बातें
तो बातें है

कुछ भी
कर लो

कहीं भी
कर लो

मुसीबत

तो तब
हो जाती है

जब बातें

दो
अलग अलग
तरह की

सोच रखने
वालों के
बीच हो
जाती हैंं

बातें

सब से
ज्यादा
परेशान
करती हैंं

एक
जमीन
से जुड़ने
की कोशिश
करने वाले
आदमी को

जो
कभी
गलती से

हवा
में बात
करने
वालों मेंं

जा कर
फंस
जाता है

ना उड़
पाता है
ना ही
जमीन पर
ही आ
पाता है

जो हवा
में होता है

उसे क्या
होता है

खुद हवा
फैलाता है

बातों
को भी
हवा में
उड़ाता है

हवा में
बात करने
वाले को
पता होता है

कुछ ऐसा
कह देना है

जो
कभी भी
और
कहीं भी
नहीं होना है

जो
जमीनी
हकीकत है

उससे
किसी
को क्या
लेना होता है

पर
बस
एक बात
समझ में
नहीं आती है

हवा
में बात
करने वालों
की टोली

हमेशा

एक
जमीन
से जुड़े
कलाकार को

अपने
कार्यक्रमों का
हीरो बनाती है

बहुत सारी
हवा होती है

इधर भी
होती है

उधर भी
होती है

हर चीज
हवा में
उड़ रही
होती है

जब
सब कुछ
उड़ा दिया
जाता है

हर एक
हवाबाज
अपने अपने
धूरे में जाकर
बैठ जाता है

जमीन से
जुड़ा हुआ

बेचारा

एक
जोकर
बन कर

अपना
सिर खुजाता हुआ

वापस
जमीन
पर लौट
आता है

एक
सत्य को
दूसरे सत्य से
मिलाने में

अपना जोड़
घटाना भी
भूल जाता है

पर
क्या किया जाय

आज
हवा बनाने
वालों को ही
ताजो तख्त
दिया जाता है

जमीन
की बात
करने वाला

सोचते सोचते

एक दिन
खुद ही
जमींदोज
हो जाता है ।

रविवार, 1 दिसंबर 2013

घर पर पूछे गये प्रश्न पर यही जवाब दिया जा रहा है

इस पर उस पर
पता नहीं
किस किस पर
क्या क्या
कब से
कहाँ कहाँ
लिखते ही
चले जा रहे हो
क्या इरादा है
करने का
किसी को नहीं
बता रहे हो
रोज कहीं
जा कर
लौट कर
यहाँ वापस जरूर
आ जा रहे हो
बहुत दिन से
देख रहे हैं
बहुत कुछ
लिखा हुआ भी
बहुत जगह
नजर आ रहा है
किसी भी
तरफ निकलो
हर कोई
इस बात को
बातों बातों में
बता रहा है
छोटी मोटी
भी नहीं
पूरी पेज भर
की बात
रोज बनाते
जा रहे हो
सारी दुनिया
का जिक्र
चार लाईनों में
करते हुऐ
साफ साफ
नजर आ रहे हो
घोड़े गधे
उल्लू खच्चर
नेता पागल
जैसे कई और
लिखे हुऐ में
कहीं ना कहीं
टकरा ही
जा रहे है
बस एक
हम पर
कही हो
कभी कहीं
पर कुछ भी
लिखा हुआ
तुम्हारे लिखे में
दूरबीन से
देखने पर भी
देख नहीं
पा रहे है
समझा करो
कितना बड़ा
खतरा कोई
इस सब को
यहाँ लिख कर
उठा रहा है
माना कि
इसे पढ़ने को
उनमें से कोई भी
यहाँ नहीं
आ रहा है
लिखा जरूर
है लेकिन
बिना सबूत
के सच को
कोई नहीं
समझ पा रहा है
तुम पर लिखने
को वैसे तो
हमेशा ही
बहुत कुछ
आसानी से
घर पर ही
मिल जा रहा है
पर जल में रहकर
मगर से बैर करना
'उलूक' के बस से
बाहर हो जा रहा है ।