उलूक टाइम्स

रविवार, 31 अगस्त 2014

बन रही हैं दुकाने अभी जल्दी ही बाजार सजेगा

सपने देखने
में भी सुना है
जल्दी ही एक
कर लगेगा

सपने बेचने
खरीदने का
उद्योग

इसका मतलब
कुछ ऐसा लगता है
खूब ही फलेगा
और फूलेगा

लम्बी दूरी की
मिसाइल की
तरह बहुत दूर
तक मार करेगा

आज का देखा
एक ही सपना
कई सालों तक
जिंदा भी रहेगा

कुछ ही
समय पहले
किसने सोचा था
ऐसा भी
इतनी जल्दी ही
ये होने लगेगा

कितनी
बेवकूफी
कर रहे थे
इससे पहले
के सपने
दिखाने वाले लोग

अब पछता
रहे होंगे
सोच सोच के

टिकाऊ सपने
बना के दिखाने
वाले का धंधा

इतनी जोर शोर से
थोड़े से समय में ही
चल निकलेगा

सपने आते ही
आँख बंद
करने लगा था
‘उलूक’ भी
कुछ दिनो से

लगता है
ये सब
सुन कर अब
सोने के बाद
अपनी आँखे
आधी या पूरी
खुली रखेगा ।

चित्र: गूगल से साभार ।

शनिवार, 30 अगस्त 2014

कभी ‘कुछ’ कभी ‘कुछ नहीं’ ही तो कहना है

अच्छी तरह पता है
स्वीकार करने में
कोई हिचक नहीं है
लिखने को पास में
बस दो शब्द ही होते हैं
जिनमें से एक पर
लिखने के लिये
कलम उठाता हूँ
कलम कहने पर
मुस्कुराइयेगा नहीं
होती ही नहीं है
कहीं आज
आस पास
किसी के भी
दूर कहीं रखी
भी होती होगी
ढूँढने उसे
जाता नहीं हूँ
प्रतीकात्मक
मान लीजिये
चूहा इधर उधर
कहीं घुमाता ही हूँ
चूहा भी प्रतीक है
गणेश जी के
वाहन का जिसको
कहीं बुलाता नहीं हूँ
माउस कह लीजिये
आप ठीक समझें
अगर हिलाता
इधर से उधर हूँ
खाली दिमाग के
साथ चलाता भी हूँ
दो शब्द में एक
‘कुछ’ होता है
और दूसरा होता है
‘कुछ नहीं’
सिक्का उछालता हूँ
यही बात बस एक
किसी को बताता
कभी भी नहीं हूँ
नजर पड़ती है
जैसे ही कुछ पर
उसको लिखने
के लिये बस कलम
ही एक कभी
उठाता नहीं हूँ
लिखना दवा
होता नहीं है हमेशा
बीमार होना मगर
कभी चाहता नहीं हूँ
मछलियाँ मेरे देश
की मैंने कभी
देखी भी नहीं
मछलियों की
सोचने की सोच
बनाता भी नहीं हूँ
चिड़िया को चावल
खिलाना कहा था
किसी ने कभी
मछलियों को खिलाने
जापान भी कभी
जाता नहीं हूँ
समझ लेते है
‘कुछ’ को भी मेरे
और ‘कुछ नहीं’ को
भी कुछ लोग बस
यही एक बात कभी
समझ लेता हूँ
कभी बिल्कुल भी
समझ पाता नहीं हूँ ।


चित्र: गूगल से साभार ।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

होते होते नहीं मजा तो है होने के बाद कुछ देर में कुछ कुछ कहने का


दिन भर की बौखलाहटें 
उथल पुथल हुई सोच 

बारिश के बाद के
छोटे छोटे नाले 
मटमैला पानी उथली नदी 
कंकड़ पत्थर धूल धक्कड़ का साम्राज्य 

पारदर्शी जल के
ज्ञान के दर्शन का हरण 
थोड़ी खलबली कठिन एक परीक्षा 
जल की खुद की हलचल की समीक्षा 

बस इंतजार और इंतजार 
ठहराव तक सवरने का 
मिलावट के कुछ कर गुजरने का 
मिट्टी के दूर तक कहीं बहने का 

पत्थर का गहराई में जा ठहरने का
आहिस्ता आहिस्ता 
तमाशा जल के भरे पूरे यौवन के खिलने का 

एक दिन की बात नहीं
रोज का काम 
एक कफन में एक जेब सिलने का 

पता चलना
उसी तरह उथले पानी के निथरने का 
दिखना शुरु होना आर पार 

खबर छपना
ढके हुऐ सब कुछ के पारदर्शी होने का 
अंदाज वही हर बार की तरह 
वैसा हमेशा सही

कभी ऐसा भी 
कभी कभी कहीं कहीं 
कह लेने का । 

चित्र: गूगल से साभार ।

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

आज ही के दिन क्रोध दिवस मनाया जाता है

अपनी कायरता
के सारे सच
हर किसी को
पता होते हैं

जरूरत नहीं
पड़ती है जिसकी
कभी किसी
सामने वाले को
समझाने की

सामने वाला भी
कहाँ चाहता है
खोलना अपनी
राज की पर्तों को

कौन हमेशा शांति
में डूबा रह पाता है

अच्छा रहता है
ढका रहे जब तक
चल सके सब कुछ
अपना अपना
अपने अपने
अंदर ही अंदर

पर हर कोई जरूर
एक सिकंदर
होना चाहता है

डर से मरने
से अच्छा
क्रोध बना या
दिखा कर
उसकी ढाल से
अपने को
बचाना चाहता है

सच में कहा गया है
और सच ही
कहा गया है
क्रोध वाकई में
कपटवेश में
एक डर है

अपने ही अंदर
का एक डर
जो डर के ही
वश में होकर
बाहर आकर
लड़ नहीं पाता है

वैसे भी कमजोर
कहाँ लड़ते हैं
वो तो रोज मरते हैं
रोज एक नई मौत

मरना कोई भी
नहीं चाहता है

केवल मौत के
नाम पर
डर डर कर
डर को भगाना
चाहता है

इसी कशमकश में
किसी ना किसी
तरह का एक क्रोध
बना कर उसे
अपना नेता
बना ले जाता है

वो और उसके
अंदर का देश
देश की तरह
आजाद हो जाता है

अंदर होता है
बहुत कुछ
जो बस उसके
डर को पता होता है

और बाहर बस
क्रोध ही आ पाता है
जो अपने झूठ को
छिपाने का एक
बहुत सस्ता सा
हथियार हो जाता है

बहुत सी जगह
बहुत साफ
नजर आता है

बहुत सी काली
चीजों को बहुत बार
झक सफेद चीजों से
ढक दिया जाता है ।

चित्र गूगल से साभार ।

बुधवार, 27 अगस्त 2014

नजर टिक जाती है बहुत देर तक अंजाने में किसी की डायरी के एक पन्ने में बस यूँ ही कभी

 
ढूँढना
शुरु करना कभी कुछ 
थोड़ी देर देखने भर के लिये 
खुद को अपने ही आस पास से हटा कर 
दूर ले जाने की मँशा के साथ भटकते भटकते 

रुकते हुऐ
कदम किसी के पन्ने पर 
बस इतना सोच कर कि ठीक नहीं
रोज अपनी ही बात को लेकर खड़े हो जाना 

दर्द बहुत हैं बिखरे हुऐ
गुलाबों की सुर्ख पत्तियों से जैसे ढके हुऐ 
बहुत कुछ है यहाँ
पता लगता भी है 

कहीं किसी मोड़ पर आकर
मुड़ा हुआ पन्ना किसी किताब का
रोक लेता है कदमों को 
और नजर
गुजरती किसी लाईन के बीच 
पता चलता है खोया हुआ किसी का समय

और 
रुकी हुई घड़ी
जैसे इंतजार में हो
किसी के लौटने के आने की खबर के लिये 

जानते बूझते
किसी के चले जाने की 
एक सच्ची बहुत दूर से आई और गयी
खबर के झूठ हो जाने की आस में 

अपने गम
बहुत हल्के होते हुऐ
तैरते नजर आना शुरु होते हैं
और नम कर देते हैं आँखो को एक आह के साथ

जो निकलती है
एक दुआ के साथ दिल से 
खोये हुऐ के सभी अपनों के लिये । 

चित्र साभार:  http://apiemistika.lt/