उलूक टाइम्स

रविवार, 5 जून 2016

विश्व पर्यावरण दिवस चाँद पर मनाने जाने को दिल मचल रहा है

कल रात चाँद
सपने में आया
बहुत साफ दिखा
जैसे कोई दूल्हा
बारात चलने
से पहले रगड़
कर हो नहाया
लगा जैसे
किसी ने कहा
आओ चलें
 चाँद पर जाकर
लगा कर आयें
कुछ चित्र
कुछ पोस्टर
कुछ साफ पानी के
कुछ स्वच्छ हवा के
कुछ हरे पेड़ों के
शोर ना करें
हल्ला ना मचायें
बस फुसफुसा
कर आ जायें
कुछ गीत
कुछ कवितायें
फोड़ कर आयें
हौले से हल्के
फुल्के कुछ भाषण
जरूरी भी है
जमाना भी यहाँ का
बहुत संभल
कर चल रहा है
अकेले अब कुछ
नहीं किया जाता है
हर समझदार
किसी ना किसी
गिरोह के साथ
मिल बांट कर
जमाने की हवा
को बदल रहा है
घर से निकलता है
जो भी अंधेरे में
काला एक चश्मा
लगा कर
निकल रहा है
सूक्ष्मदर्शियों की
दुकाने बंद
हो गई हैंं
उनके धंधों
का दिवाला
निकल रहा है
दूरदर्शियों की
जयजयकार
हो रही है
लंका में सोना
दिख गया है
की खबर रेडियो
में सुना देने भर से
शेयर बाजार में
उछालम उछाला
चल रहा है
यहाँ धरती पर
हो चुका बहुत कुछ
से लेकर सब कुछ
कुछ दिनों में ही इधर
चल चलते हैं ‘उलूक’
मनाने पर्यावरण दिवस
चाँद पर जाकर
इस बार से
यहाँ भी तो
बहुत दूर के
सुहाने ढोल नगाड़े
बेवकूफों को
दिखाने और
समझाने का
बबाला चल रहा है ।

चित्र साभार: islamicevents.sg

बुधवार, 1 जून 2016

मुश्किल है बहुत अच्छी भली आँखों के अंधों का कोई करे तो क्या करे

अच्छा है
सफेद पन्ने
पर खींचना
कुछ लकीरें

सफेद
कलम से
सफाई
के साथ

किसे
समझनी
होती हैं
लकीरें

फकीरों के
रास्ते में
हरी दूब हो
या मिट्टी

शिकायत
चाँद और
चाँदनी की
भी करे कोई
तो क्या करे

अपनी
अपनी
आँखों से
हर कोई
देखता है
नीम को

अब देख कर
भी नीम की
हरियाली से
कढ़वाहट
आ रही है
कहे कोई
तो कोई
क्या कहे
और क्या करे

व्हिस्की
दिवस है
सुना आज

पीने वाले
क्या कर
रहे होंगे

कौन
पता करे
किससे
पता करे
कितना
पता करे

घोड़े दबाने
के शौक
रखने वाले
बड़े शौक से
बनाते हैं
आदमी
को बंदूक

घर से लेकर
गली मोहल्ले
और
शहर में

घोड़े
हर जगह
चार टाँग
और
एक पूँछ
वाले मिलें

ये भी
कौन सा
जरूरी है 

मिलें भी
तो घोड़े
भी करें
तो क्या करें

सारी आग
लिखने की
सोचते सोचते
बची हुई राख
लिख लेने
के बाद

कौन ढूँढे
चिंगारी
बचे खुचे
जले बुझे में
क्यों ढूँढे
सब कुछ

पता होना
जानना देखना
वो सब जो
सब देखते हैं
देखने वाले
भी क्या करेंं

बेवकूफों
की तरह
रोज का रोज
कह देने वालों
की लाईन

अकेला
बना कर
खुद अपनी
छाती पीटने
वालों का कोई
करे तो क्या करे

कोई इलाज
नहीं है
उलूक तेरा

शरीफों के बीच
शरीफ कुछ करें
तो तेरा क्या करें

नंगों के बीच में
जा कर भी
देख कभी
कौन किस
तरीके से करे
क्या करे
और कैसे करे ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

बुधवार, 25 मई 2016

नोच ले जितना भी है जो कुछ भी है तुझे नोचना तुझे पता है अपना ही है तुझे सब कुछ हमेशा नोचना

कहाँ तक
और
कब तक

नंगों के
बीच में
बच कर
रहेगा

आज नहीं
कल नहीं
तो कभी
किसी दिन

मौका
मिलते ही
कोई ना
कोई

धोती
उतारने
के लिये
खींच लेगा

कुछ अजीब
सा कोई
रहे बीच
में उनके

इतने दिनों
तक आखिर
कब तक
इतनी
शराफत से

बदतमीजी
कौन ऐसी
यूँ सहेगा

शतरंज
खेलने में
यहाँ हर
कोई है
माहिर

सोचने
वाले प्यादे
को कब
तक कौन
यूँ ही
झेलता
ही रहेगा

कुत्ता खुद
आये पट्टा
डाल कर
गले में
अपने

एक जंजीर
से जुड़ा
कर देने
मालिक के
हाथ में

ऐसा कुत्ता
ऐसा मालिक
आज गली
गली में
इफरात
से मिलेगा

फर्जीपने
की दवाई
बारकोड

ले कर
आ रहे
हैं फर्जी
जमाने के
उस्ताद लोग

फर्जी आदमी
की सोच में
बारकोड
लगा कर
दिखाने को
कौन क्या और
किससे कहेगा

‘उलूक’
आज फिर
नोच ले
जितना भी
नोचना है
अपनी
सोच को

उसे भी
पता है
तू जो भी
नोचेगा

अपना ही
अपने आप
खुद ही
नोचेगा ।


चित्र साभार: worldartsme.com

सोमवार, 23 मई 2016

लिखना हवा से हवा में हवा भी कभी सीख ही लेना

कफन
मरने के
बाद ही
खरीदे
कोई

मरने
वाले के लिये
अच्छा है

सिला सिलाया
मलमल का
खूबसूरत सा
खुद पहले से
खरीद लेना

जरूरी है
थोड़ा सा कुछ
सम्भाल कर
जेब में उधर
ऊपर के लिये
भी रख लेना

सब कुछ इधर
का इधर ही
निगल लेने से
भी कुछ नहीं होना

अंदाज आ ही
जाना है तब तक
पूरा नहीं भी तो
कुछ कुछ ही सही
यहाँ कितना कुछ
क्या क्या
और किसका
सभी कुछ
है हो लेना

रेवड़ियाँ होती
ही हैं हमेशा से
बटने के लिये
हर जगह ही

अंधों के
बीच में ही
खबर होती
ही है

अंधों के
अखबारों में
अंधों के लिये ही

आँख वालों
को इसमें
भी आता है
ना जाने
किसलिये इतना
बिलखना रोना

लिखने वाले
लिख गये हैं
टुकडे‌ टुकड़े में
पूरा का पूरा
आधे आधे का
अधूरा भी
हिसाब सारा
सब कुछ कबीर
के जमाने से ही

कभी तो माना
कर जमाने के
उसूलों को
‘उलूक’

किसी एक
पन्ने में पूरा
ताड़ का पेड़
लिख लेने से
सब कुछ
हरा हरा
नहीं होना ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

बुधवार, 18 मई 2016

राजशाही से लोकतंत्र तक लोकतांत्रिक कुत्ते और उसकी कटी पूँछ की दास्तान

राजा राजपाट
प्रजा शाह
शहंशाह
कहानियाँ
एक नहीं हैं
कई कई हैं
किताबों में हैं
पोथियों में हैं
पुस्तकालयों में हैं
विद्यालयों में हैं
कोने कोने पर
फैली हुई हैं
कुछ जगी हुई हैं
कुछ आधी
नींद में हैं
उँनीदी हुई हैं
कुछ अभी
तक सोई हुई हैं
राजतंत्र कहते हैं
पुरानी कहानी है
राजा रानी होते थे
एक नहीं बहुत
सारी निशानी हैं
कहीं उनकी यादें हैं
कहीं उनके ना
होने की वीरानी है
सब को ये सब
पता होता है
‘उलूक’
तेरी बैचैनी
भी समझ के
बाहर होती है
जो नहीं होता है
उसके लिये ही तू
किसलिये हमेशा
इतना जार
जार रोता है
अब तक भी
समझता क्यों नहीं है
प्रजातंत्र हो चुका है
सारे प्रजा के तांत्रिक
प्रजा के लिये ही
तंत्र करते हैं
स्वाहा: स्वाहा:
कहते हुऐ
प्रजा की परतंत्रता
के लिये अपना
सब कुछ अर्पण
तुरंत करते हैं
केवल और केवल
एक सौ आठ बार
रोज सुबह और शाम
इसी पर आधारित
सारे के सारे
मंत्र करते हैं
तंत्र करते भी हैं
तो सिर्फ प्रजा
के लिये ही
तंत्र करते हैं
राजतंत्र होता
था पहले
बस एक
राजा होता था
अब हर कोने
कोने पर होता है
राजा होता है
नहीं होता है
राजा होते हैं होता है
राजा के नीचे भी
जो होता है
वो भी राजा होता है
राजाओं की
शृंखला होती है
शृंखला की कड़ी
में हर कड़ी के
सिर पर मुकुट होता है
दिखता नहीं है
नहीं दिखने वाली
हिलती हुई कुत्ते
की पूँछ होती है
ना कुत्ता होता है
ना मालिक होता है
मालिक तो होता
ही है कुत्ता भी
राजा होता है
ऐ मालिक तेरे
बंदे हम का
अहसास यहीं
और यहीं होता है
बिना पूँछ का कुत्ता
आँखों में आँसू
लिये होता है
कुत्ता होता है
पर कुत्तों की
श्रंखला से बाहर
अपने कुत्ते होने
पर रोता हुआ
अपनी कटी पूँछ
का मातम
कर रहा होता है ।

चित्र साभार: www.parispoodles.com

बुधवार, 11 मई 2016

किसे पड़ी है तेरे किसी दिन कुछ नहीं कहने की उलूक कुछ कहने के लिये एक चेहरा होना जरूरी होता है



लिखा हुआ हो 
कहीं पर भी हो कुछ भी हो 
देख कर उसे पढ़ना और समझना 
हमेशा जरूरी नहीं होता है 

कुछ कुछ खराब हो चुकी आँखों को 
खुली रख कर जोर लगा कर 
साफ साफ देखने की कोशिश करना 

कुछ दिखना कुछ नहीं दिखना 
फिर दिखा दिखा सब  दिख गया कहना 
कहने सुनने सुनाने तक ही ठीक होता है 

सुना गया सब कुछ कितना सही होता है 
सुनाई देने के बाद सोचना जरूरी नहीं होता है 

रोजाना कान की सफाई करना 

ज्यादातर लोगों 
की आदत में वैसे भी
शामिल नहीं होता है 

लिखने लिखाने से कुछ होना है 
या नहीं होना है 

लिखने वाले कौन है 
और लिखे को पढ़ कर 
लिखे पर सोचने 
लिखे पर कुछ कहने वाले कौन हैं 

या किसने लिखा है क्या लिखा है 

लिख दिया है बताने वाले लोगों को 
सारा लिखा पता होना जरूरी नहीं होता है 

लेखक लेखिका का पोस्टर लगा कर 
दुकान खोल लेने से 
किताबें बिकना शुरु होती भी हैं 
तब भी हर दुकान का रजिस्ट्रेशन 
लेखक के नाम से हर जगह होना होता है 
या नहीं होता है किसे पता होता है 

लिखने लिखाने वाला 
लिखने की दुकान के
शटर खोलने की आवाज के साथ उठता है 
शटर गिराने की आवाज के साथ सोता है 

कौन जानता है 
ऐसा भी होता है या नहीं होता है 

अपनी अपनी किताबें संभाले हुए लोगों को 
आदत पड़ चुकी होती है 
अपना लिखा अपने आप पढ़नें की 

खुद समझ कर खुद को खुद ही समझा ले जाना 
खुदा भी समझ पाया है या नहीं खुदा ही जानता है 
सब को पता हो ये भी जरूरी नहीं होता है 

किसी के कुछ लिखे को नकार देने की हिम्मत 
सभी में नहीं होती है 

पूछने वाले पढ़ते हैं या नहीं 
पता नहीं भी होता है 

प्रश्न करना इतना जरूरी नहीं होता है 

लिखना कुछ भी कहीं भी कभी भी 
इतना जरूरी होता है  

दुनियाँ चलती है चलती रहेगी 
हर आदमी खरीफ की फसल हो 

जरूरी कहीं थोड़ा सा होता है 
कहीं जरा सा भी नहीं होता है 

फारिग हो कर आया हर कोई कहे
जरूरी है जमाने के हिसाब से खेत में जाना 

इस जमाने में अब जरूरी नहीं 
थोड़ा नहीं बहुत ही खतरनाक होता है 

सफेद पन्ना दिखाने के लिये रख 

काफी है ‘उलूक’ 

लिखा 
लिखाया काला सब सफेद होता है । 

 चित्र साभार: www.pinterest.com

गुरुवार, 5 मई 2016

भीख भिखारी कटोरे अपदस्थ सरकार के समय का सरकारी आदेश तैयार शिकार और कुछ तीरंदाज अखबारी शिकारी

संदर्भ: व्यक्तिगत और संस्थागत परीक्षार्थी। राज्यपाल की समझ में आयेगी बात क्योंकि परीक्षा निधी की लेखा जाँच गोपनीयता के मुखौटे के पीछे छिपा कर नहीं होने दी जाती है। पूरे देश को देखिये अरबों का झमेला है। आभार उनका ।

आता है 

एक सरकारी
आदेश


उस समय

जब
अपदस्त
होती है

जनता की
सरकार


आदेश
छीन लेने का


सारे कटोरे

सभी सफेदपोश
भिखारियों के

और

दे
दिये जाते हैं

उसी समय
उसी आदेश
के साथ


सारे कटोरे

कहीं और के
तरतीब के साथ

लाईन
लगाने

और
माँग कर

खाने वाले

पेट भरे हुऐ

भूखे
भिखारियों को


खबर
अखबार

ही देता है

रोज की
खबरों

की तरह

पका कर
खबर को

बिना नमक
मिर्च धनिये के

खुश होते हैं

कुछ लोग
जिनको

पता होता है

समृद्ध
पढ़े लिखे

बुद्धिजीवी
भिखारियों
के भीख

मांगने

और
बटोरने

के तरीकों

और

उनके
कटोरों का


उसी
समय लेकिन


समय भी
नहीं लगता है


उठ खड़ा
होता है

सवाल

अखबार

समाचार
और

खबर देने
वालों के

अखबारी
रिश्तेदारों

के कटोरों का

जिनका
कटोरा
कहीं ना कहीं


कटोरों से
जुड़ा होता है


पता
चलता है

दूसरे दिन

सुबह का
अखबार

गवाही देना
शुरु होता है


पुराने
शातिर
सीखे हुए

भिखारियों
की तरफ से

कहता है

बहुत
परेशानी

हो जायेगी

जब भीख

देने वालों
की जेबें

फट जायेंगी

दो रुपियों
की भीख

चार रुपिया
हो जायेगी


बात

उस
भीख की

हो रही
होती है
जो
करोड़ों
की होती है

अरबों की
होती है


जिसे नहीं
पाने से

बदहजमी

डबलरोटी

कूड़ेदान में
डालने
वालों को
हो रही होती है


जनता को
ना मतलब

कटोरे से
होता है


ना कटोरे
वालों से
होता है


अखबार
वालों को


अमीर
भिखारियों के

खिलाफ
दिये गये


फैसले से
बहुत
खुजली
हो रही होती है


पहले दिन
की खबर


दूसरे दिन
मिर्च मसाले

धनिये से
सजा कर

परोसी गई
होती है


‘उलूक’ से
होना
कुछ
नहीं होता है


हमेशा
की तरह

उसके पेट में
गुड़ गुड़ हो
रही होती है


बस ये
देख कर

कि

किसी को
मतलब
ही
नहीं होता है


इस बात से
कि
भीख
की गंगा

करोड़ो की

हर वर्ष

आती जाती
कहाँ है


और
किस जगह

खर्च हो
कर
बही
जा रही
होती है ।


 चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कविता और छंद से ही कहना आये जरूरी नहीं है कुछ कहने के लिये जरूरी कुछ उदगार होते हैं



बहुत
अच्छे होते हैं 
समझदार
होते हैं 

किसी
अपने 
जैसे के लिये 
वफादार
होते हैं 

ज्यादा
के
लिये नहीं 
थोड़े थोड़े
के लिये 

अपनी
सोच में 
खंजर
और 
बात में लिये 
तलवार
होते हैं 

सच्चे
 होते हैं 

ना खुदा
के
होते हैं 
ना भगवान
के
होते हैं 

ना दीन
के
होते हैं 
ना ईमान
के
होते हैं 

बहुत
बड़ी
बात होती है 

घर में
एक
नहीं भी हों 

चोरों के
सरदार
के 
साथ साथ

चोरों के 
परिवार
के
होते हैं 

रोज
सुबह के 
अखबार
के
होते हैं 

जुबाँ से
रसीले 
होठों से
गीले 

गले
मिलने को 
किसी के भी 
तलबगार
होते हैं 

पहचानता है 
हर कोई

समाज 
के लिये
एक 
मील का पत्थर 
एक सड़क 

हवा में
 बिना 
हवाई जहाज 
उड़ने
के लिये 
भी
तैयार होते हैं 

गजब
होते हैंं 
कुछ लोग 

उससे गजब 
उनके
आसपास 

मक्खियों
की तरह 
किसी
आस में 
भिनाभिनाते 

कुछ
कुछ के 
तलबगार
होते हैं 

कहते हैं

किसी 
तरह लिखते हैं 

किसी तरह 
ना
कवि होते हैं 
ना
कहानीकार होते हैं 

ना ही
किसी उम्मीद 

और
ना किसी
सम्मान 
के
तलबगार
होते हैं 

उलूक
तेरे जैसे
देखने

तेरे जैसे
सोचने 

तेरा जैसे
कहने वाले 

लोग
और आदमी 
तो

वैसे भी
नहीं 
कहे जाने चाहिये 

संक्रमित
होते हैं 

बस बीमार

और 
बहुत ही 
बीमार होते हैं । 

चित्र साभार: cliparts.co

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता

फलसफा
जिंदगी का
सीखने की
जरा सी भी
कोशिश

कभी
थोड़ी सी भी
किया होता

आधी सदी
बीत गई
तुझे आये
हुऐ यहाँ
इस जमीन
इस जगह पर

कभी
किसी दिन
एक दिन के
लिये ही सही
एक अदद
आदमी
कुछ देर के
लिये ही सही
हो तो गया होता

जानवर
ही जानवर
लिखने
लिखाने में
कूद कर
नहीं आते
तेरे इस
तरह हमेशा

आदमी
लिखने का
इतना तो
हौसला
हो ही
गया होता

सपेरे
नचा रहे हैं
अपने अपने साँप
अपने अपने
हिसाब से

साँप नहीं
भी हो पाता
नाचना तो
थोड़ा बहुत
सीख ही
लिया होता

कपड़े
उतारने से बहुत
आसान होने
लगी है जिंदगी

दिखता है
हर तरफ
धुँधला नहीं
बहुत ही
साफ साफ
कुँआरे
शीशे की तरह

बहुत सारे
नंगों के बीच में
खड़ा कपड़े
पहने हुऐ
इस तरह शरमा
तो नहीं रहा होता

क्या
क्या कहेगा
कितना कहेगा
कब तक कहेगा
किस से कहेगा
‘उलूक’

हर कोई
कह रहा
है अपनी
कौन
सुन रहा
है किसकी

फैसला
जिसकी भी
अदालत में होता
तेरे सोचने के जैसा
कभी भी नहीं होता

रोज
उखाड़ा कर
रोज
बो लिया कर

कुछ
शब्द यहाँ पर

शब्दों
के होते
हुए कबाड़ से

खाली
दिमाग के
शब्दों को

इतना नंगा
कर के भी
हर समय
खरोचने
की आदत
से कहीं
भी कुछ
नहीं होता।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

सीन होता है फिल्म का होता है जिसमें कुछ गधे होते हैं जो सारे घोडो‌ को लाईन में लगा रहे होते हैं

कैसे कहे कोई
होना हमेशा ही
नियम से
ही होता है
अगर होता है
मान भी लिया
होता ही है
तो फिर
समझाइये
गधों में से
सबसे बेकार
का एक गधा
सबसे अच्छे
घोड़े के अस्तबल
में घोड़ो के बीच
घोड़ा बन कर
कैसे अपनी टेड़ी
पूँछ को सीधा
तान कर
खड़ा होता है
बताइये
गधे के अस्तबल
में दिखने के
दिन से ही कैसे
सारे गधों का
अच्छा दिन
कैसे शुरु होता है
हर जगह गधा
और तो और
जहाँ किसी की
जगह नहीं
होती है उस
 जगह पर भी
कोई ना कोई
गधा सो
रहा होता है
गधा गधे के
लिये भाषण
घोड़ो के सामने
दे रहा होता है
किस तरह घोड़ा
गधे की तीमारदारी
में लगा होता है
गधा ना होने
का अफसोस
किसी को
नश्तर चुभो
रहा होता है
कैसे सारे गधे
एक हो कर
नारे लगाना
शुरु हो रहे होते हैं
गधे के सारे
रिश्तेदार घोड़ों
 की जगह पर
नजर आ रहे
हो रहे होते हैं
पूँछ हिला रहे
होते हैं मुस्कुरा
रहे होते हैं
बस अपने होने
का कुछ बताने
से कतरा रहे होते हैं
कैसे एक इलाके
के सारे गधे
घोड़े हैं करके
अखबार के उसी
इलाके के गधों के
द्वारा दिखाये
जा रहे होते हैं
गधों का इलाका
गधे कहीं भी नहीं
नापने जा रहे होते हैं
घोड़े अपने टापों की
आवाज पर मगन
हो कर गा रहे होते हैं
कोई फर्क नहीं
पड़ रहा होता है
उनके घोड़ेपन पर
रोज गधों की दुलत्ती
जो खा रहे होते हैं
फिर भी मुस्कुरा
रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

दूर कहीं जा अपने घर से जिसके भी घर जितना चाहे खेल कबड्डी

कौन
देख रहा
किस ब्रांड की
किसकी चड्डी

रहने दे
खुश रह
दूर कहीं
अपने घर
से जाकर

जितना
मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

अपने
घर की
रेलमपेल

खेलने वाले
तेरे ही अपने
उनके खेल
तेरे ही खेल

मत बन
अपने ही
घर के
अपनों के

कबाब की
खुद ही तू हड्डी

दूर कहीं
अपने घर
से जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

खबर छाप
फोटो खींच

दिखा दूर
कहीं जंगल में
जहरीला सांप

घर में बैठा
एक नहीं
हर कोई
लागे जब

अपना ही
मुहँबोला बाप

बातें सुन
घर की घर में
बड्डी बड्डी

मत कर
ताँक झाँक
रहने दे
झपट्टा झपट्टी

मालूम होता
है खुद का
खुद को

सब कुछ
कहाँ से

कितनी
अंदर की

कहाँ से
कहाँ तक
फटी हुई है
अपनी खुद
की ही चड्डी

दूर कहीं
अपने घर से
जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

लेकर हड्डी
दूर निकल कर

बहुत
दूर से
नहीं नजर
पड़े जहाँ से
अपने घर की
शराब की भड्डी

इसके उसके
सबके घर में

जा जा कर
झंडे लहराकर

सबको समझा
इसके उसके
घर की
फड्डा फड्डी

दूर कहीं
अपने घर से
जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी ।

चित्र साभार: www.vidhyalya.in

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आदत है उलूक की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की



चर्चा है कुछ है
कुछ लिखने की है
कुछ लिखाने की है
टूटे बिखरे पुराने
बेमतलब शब्दों
की जोड़ तोड़ से
खुले पन्नों की
किताबों की 
एक दुकान को
सजाने की है
शिकायत है
और बहुत है
कुछ में से भी
कुछ भी नहीं
समझा कर
बस बेवकूफ
बनाने की है
थोड़ा सा कुछ
समझ में आने
लायक जैसे को भी
घुमा फिरा कर
सारा कुछ लपेट
कर ले जाने की है
चर्चा है गरम है
असली खबर के
कहीं भी नहीं
आने की है
आदमी की बातें हैं
कुछ इधर की हैं
कुछ उधर की हैं
कम नहीं हैं
कम की नहीं हैं
बहुत हैं बहुत की हैं
मगर आदमी के लिये
उनको नहीं
बना पाने की है
कहानियाँ हैं लेकिन
बेफजूल की हैं
कुछ नहीं पर भी
कुछ भी कहीं पर भी
लिख लिख कर
रायता फैलाने की है
एक बेचारे सीधे साधे
उल्लू का फायदा
उठा कर हर तरफ
चारों ओर उलूकपना
फैला चुपचाप झाड़ियों
से निकल कर
साफ सुथरी सुनसान
चौड़ी सड़क पर आ कर
डेढ़ पसली फुला
सीना छत्तीस
इंची बनाने की है
चर्चा है अपने
आस पास के
लिये अंधा हो
पड़ोसी  के लिये
सी सी टी वी
कैमरा बन
रामायण गीता
महाभारत
लिख लिखा
कर मोहल्ला रत्न
पा लेने के जुगाड़ में
लग जाने की है
कुछ भी है सब के
बस की नहीं है
बात गधों के
अस्तबल में रह
दुलत्ती झेलते हुए
झंडा हाथ में
मजबूती से
थाम कर जयकारे
के साथ चुल्लू
भर में डूब
बिना तैरे तर
जाने की है
मत कहना नहीं
पड़ा कुछ
भी पल्ले में
पुरानी आदत
है
उलूक की
बात मुँह के अंदर
कुछ और रख
बाहर कुछ और
फैलाने की है ।

चित्र साभार:
www.mkgandhi.org

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

आदमी और आदमी के घोड़े हो जाने का व्यापार

अनायास
अचानक

नजर
पड़ती है

आस पास

जगह जगह
फैली हुई
लीद पर

कुछ ताजी
कुछ बासी
कुछ अकड़ी

कुछ लकड़ी
हुई सी
चारों तरफ
अपने

माहौल
बनाये हुऐ
किसी बू की

बद कहें
या खुश

समझना
शुरु करने पर
दिखाई नहीं देते

किसी भी
जानवर के
खुरों के निशान

नजर
आते हैं
बस कुछ लोग

जो
होते ही हैं
हमेशा ही
इस तरह की
जगहों पर
आदतन

रास्ते से
भेजे गये
कुछ लोग

कब कहाँ
खो जाते हैं

कब घोड़े
हो जाते हैं

पता
चलता है
टी वी और
अखबार से

घोड़ों के
बिकने
खरीदने के
समाचार से

आदमी का
घोड़ा हो जाना

कहाँ पता
चलता है

कौन
आदमी है
कौन
घोड़ा है

कौन
लीद को
देखता है
किसी की

पर
आदमी कुछ
घोड़े हो
चुके होते हैं
ये सच होता है

घोड़ों का
ऐसा व्यापार

जिसमें
बिकने वाला
हर घोड़ा

घोड़ा कभी
नहीं रहा
होता है

गजब का
व्यापार
होता है

सोचिये

हर पाँच
साल में

पाँच साल भी
अब
किस्मत
की बात है

अगर आप
कुछ नहीं
को भेज रहे हैं
कहीं

उसके
अरबों के
घोड़े हो जाने
की खबर पर

खम्भा भी
खुद का ही
नोचते हैं

लगे रहिये
लीद के इस
व्यापार में

आनंद
जरूरी है

समझ
अपनी
अपनी है

घोड़ों को
कौन बेच
रहा है

कौन
घोड़ा है

लीद
किसके लिये
जरूरी है

लगे रहिये

‘उलूक’
को जुखाम
हुआ है

और
वो लीद
मल रहा है

सुना है
लीद से
ही मोक्ष
मिलता है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 16 मार्च 2016

जब जनाजे से मजा नहीं आता है दोबारा निकाला जाता है

लाश को
कब्र से
निकाल कर

फिर से
नहला
धुला कर

नये कपड़े
पहना कर

आज
एक बार
फिर से
जनाजा
निकाला गया

सारे लोग
जो लाश के
दूर दूर तक
रिश्तेदार
नहीं थे
फिर से
इक्ट्ठा हुऐ

एक कुत्ते
को मारा
गया था
शेर मारने
की खबर
फैलाई
गई थी
कुछ ही
दिन पहले

मजा नहीं
आया था
इसलिये
फिर से
कब्र
खोदी गई

कुत्ते की
लाश
निकाल कर
शेर के
कपड़े
पहनाये गये

जनाजा
निकाला गया
एक बार
फिर से

सारे कुत्ते
जनाजे
में आये

खबर
कल के सारे
अखबारों
में आयेगी
चिंता ना करें

समझ में
अगर नहीं
आये कुछ
ये पहला
मौका
नहीं है जब

कबर
खोद कर
लाश को
अखबार
की खबर
और फोटो
के हिसाब से
दफनाया और
फिर से
दफनाया
जाता है

कल का
अखबार
देखियेगा
खबर
देखियेगा

सच को
लपेटना
किसको
कितना
आता है

ठंड
रखा कर
'उलूक'
तुझे
बहुत कुछ
सीखना
है अभी

आज बस
ये सीख
दफनाये गये
एक झूठ को
फिर से
निकाल
कर कैसे
भुनाया
जाता है ।

http://www.fotosearch.com/

मंगलवार, 15 मार्च 2016

जमूरे सारे कुछ जमूरों को छोड़ कर मदारी के इशारे पर मदारी मदारी खेलने निकल कर चले

कुछ जमूरे मिलें
शागिर्दी के लिये

तमन्ना है जिंदगी
में एक बार
बस
एक ही बार

मदारी होने का
ज्यादा नहीं
एक ही मिले
मौका तो मिले

जमूरा बना रह
जाये कोई
ताजिंदगी
निकलते चलें
इधर से भी
और
उधर से भी

कब कौन
बन जाये
मदारी
सामने सामने
कैसे किस
तरीके से
कभी तो
ये राज
थोड़ा सा
ही सही
कुछ तो खुले

नहीं दिखा
एक भी
मदारी
सोचता
हुआ सा
भी कभी

उसका
कोई जमूरा
उसके बराबर
आ कर
खड़ा हो कर
उसके जैसा
ही नहीं
कभी भी कुछ
छोटा मोटा
सा भी
मदारी की
तरह का कहीं
गलती से भी
कभी कहीं
जा कर बने

मदारी हों
जमूरे हों
जमूरे मदारी
के ही हो
मदारी जमूरों
के ही हो
दोनो ही रहें

एक दूजे
के लिये
ही बने
होते हैं
दोनो ही रहें
दोनों ही बनें
एक दूसरे
के साथ
रह कर
चलायें
सरकस
कहीं का
भी हो

सरकस चलें
चलते रहें
बिना मदारी का
हो जाये ‘उलूक’
जैसा जमूरा
ना बन पाये
मदारी भी कभी

खबर
जब मिले

जमूरे कुछ
जमूरों को
छोड़ सारे
जमूरों के
साथ मिल
मदारी के लिये

एक बार
फिर
मिल जुल
कर सभी
कुछ सुना है
बहुत कुछ
करने को
हाथ में
लेकर हाथ
ये चले
और
वो चले ।

चित्र साभार: www.garylellis.org

गुरुवार, 10 मार्च 2016

कुछ लोग लोगों को उनके बारे में सब कुछ बताते हैं

कुछ लोग
भगवान
नहीं होते हैं

बस उनका
होना ही
काफी होता है

किसी को भी
अपने बारे में
उतना पता
नहीं होता है
जितना
कुछ लोगों को
सारे लोगों
के बारे में
पता होता है

रात के देखे
सभी सपने
सुबह होने होने
तक बहुत ही
कम याद रहते हैं

बिना धुले
साबुन के
मटमैले कपड़े
जैसे ही धुँधले
हो चुके होते हैं

उन सारे
सपनों की
खबर को
लोगों को
सुनाने में
इन कुछ
लोगों को
महारत
हासिल होती है

अलसुबह
मुँह धोने
से पहले
आईने के
सामने खड़ा
जब तक
कोई खुद
को परख
रहा होता है

इन लोगों
की तीसरी
आँख से
देखा सब कुछ
बिस्तरे की
सिलवट की
गिनतियों के
साथ कहीं
किसी सुबह
के अखबार
के मुख्य
पृष्ठ पर
बड़े अक्षरों में
छप रहा होता है

ये लोग
अपने जैसे
सभी भगवानों
को बारीकी से
पहचानते हैं

बोलते
नहीं है
कुछ भी
कहीं भी
किसी से
किसी के लिये

लेकिन
हवा हवा में
हवा की
धूल मिट्टी को
भी छानते हैं

सारा सब कुछ
इन्हीं की
सदभावनाओं
पर टिका
और चल
रहा होता है

अपने बारे में
अच्छी  दो चार
गलफहमियाँ
पाला हुआ
कोई अपनी
अच्छाइयों के
जनाजों को
कहीं गिन
रहा होता है

उसकी गिनती
सही है और
गलत है
यही
कुछ लोग
बताते हैं

जानकारी
आदमी की
आदमी के
अंदर से
निकाल कर
आदमी को
बेच जाते हैं

आदमी
अपने बारे में
सोचता रहता है

होने ना
होने के
हिसाब से
कुछ लोग
उसका
कहीं भी
नहीं होना
हर जगह
जा जा
कर बताते हैं

भगवानों
में भगवान
धरती में
पैदा हुऐ
इन्सानों
से अलग

कुछ अलग
तरह के लोग
सब कुछ
हो जाते हैं

‘उलूक’
भगवान की पूजा
करने से नहीं
मिलता है मोक्ष

कुछ लोगों
की शरण में
जाना पड़ता है

आज के
जमाने में
भगवान भी
उन्ही लोगों
से पूछने
कुछ ना
कुछ आते हैं ।

चित्र साभार: fremdeng.ning.com

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

ऊपर वाले के जैसे ही कुछ अपने अपने नीचे भी बना कर वंदना कर के आते हैं

आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

चित्र साभार: www.womanthology.co.uk

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

देखना/ दिखना/ दिखाना/ कुछ नहीं में से सब कुछ निकाल कर ले आना (जादू)

गाँधारी ने
सब कुछ
बताया
कुछ भी
किसी से
नहीं छिपाया
वैसा ही
समझाया
जैसा
धृतराष्ट्र ने
खुद देखा
और देख कर
उसे दिखाया

धृतराष्ट्र
ने भी
सब कुछ
वही कहा
जो घर
घर में
रखी हुई
संजयों की
आँखोँ ने
संजयों को
दिखाया

संजयों
को जो
समझाया
गया
अपनी समझ
को बिना
तकलीफ दिये
उन्होने भी
ईमानदारी
के साथ
अपने धृतराष्ट्र
की आन
की खातिर
आगे को
बढ़ाया

परेशान
होने की
जरूरत
नहीं है
अगर
आँख वाले
को वो सब
आँख फाड़
कर देखने
से भी नजर
नहीं आया

एक नहीं
हजार
उदाहरण हैं
कुछ कच्चे हैं
कुछ पके
पकाये हैं

असम्भव
नहीं है
एक देखने
वाले को
अपनी
आँख पर
भरोसा
नहीं होना
सम्भव है
देखने वाले
की आँख का
खराब होना

आँख खराब
होने की
उसे खुद ही
जानकारी
ना होना

दूरदृष्टि
दोष होना
निकट दृष्टि
दोष होना
काला या
सफेद
मोतियाबिंद
होना
एक का
दो और
दो का एक
दिख
रहा होना

फिर ऐसे में
वैसे भी
किसी से
क्या कहना
अच्छा है
जिसे जो
दिख रहा हो
देखते
रहने देना

किसी
से कहें
या ना
कहें पर
बहुत
जरूरी है
गाँधारी को
क्या दिखा
जरूर देखने
के लिये
अपनी
आँख पर
पट्टी बाँध
कर देखने
का प्रयास
करना

आज सारे
के सारे
गाँधारी
अपने अपने
धृतराष्ट्रों
 के ही
देखे हुऐ को
देख रहे हैं
एक बार फिर
सिद्ध हो गया है
कहीं के भी हों
सारे गाँधारी
एक जैसा
एक सुर
में कह रहे हैं

ऐसे में
तू भी
खुशी
जाहिर कर
मिठाई बाँट
दिमाग
मत चाट

किसने
क्या देखा
क्या बताया
इस सब को
उधाड़ना
बंद कर
उधड़े फटे
को रफू
करना सीख
कब तक
अपनी आँख
से खुद ही
देखता रहेगा
‘उलूक’

गोद में
चले जा
किसी
गाँधारी के
सीख
कर आ
किसी
धृतराष्ट्र
के लिये
आँख
बंद कर
उसकी
आँखों से
देखने
की कला

तभी होगा
तेरा और
तेरी सात
पुश्तों का
तेरी घर
गली शहर
प्रदेश देश
तक के
देश प्रेमी
संतों
का भला ।

चित्र साभार: ouocblog.blogspot.com

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

देश प्रेम देश भक्ति और देश

विश्वविद्यालय
देश के
कहाँ होते हैं
विश्व के होते हैं

सिखाये
हुऐ के
हिसाब
से होते हैं

देशप्रेम
छोड़िये
बड़े प्रेम
विश्वप्रेम
पर चल
रहे होते हैं

पर कन्फ्यूजन
भी होते हैं
और
अपनी जगह
पर होते है

चाँसलर
वाईस चाँसलर
प्रोफेसर
देश के ही
बराबर के
ही होते हैं

कभी
लगता है
देश से
भी शायद
कुछ और
बड़े होते हैं

छात्र छात्राएं
अभिभावक
दलों के
हिसाब से
अलग अलग
होते हैं

नारे लगते
समय नहीं
दिखते हैं

जरूरत भी
नहीं होती है
और
वैसे भी
पता कहाँ
किसी को
होते हैं

कोई नहीं
पूछता है
हिसाब किताब
किताबों कापियों
की दुकानों का

स्कूल कालेज
और पढ़ाई
सब
अलग अलग
विषय होते हैं

हिन्दू
मुसलमान
शहर गाँव
इलाका विशेष
ठाकुर बनिया
बामन
कुत्ता बिल्ली
के काम्बिनेशन
अलग अलग
होते हैं

कहाँ किस
का प्रयोग
करना है
वही लोग
जानते हैं
जिनके
हिसाब किताब
के बही खाते
एक जैसे ही
और कुछ
अलग होते हैं

प्रयोग
जातियों पर
जितने
विश्वविद्यालयों
में होते हैं
और कहीं भी
नहीं दिखते हैं
ना ही कहीं होते हैं

कुत्ता
फालतू मे
गाली
खाता है
हमेशा ही
लेकिन वो
सही में कुछ
इस तरीके के ही
गली के कुत्ते होते हैं

नारे उगते हैं
पता नहीं
कहाँ किस
खेत में
बस दिखते हैं
उगते हुऐ
देश द्रोही
के नाम पर
सारों में
से कुछ
छोड़ कर
सारे के सारे
अन्दर हो
रहे होते हैं

जय हो देश की
देश प्रेमियों की

उनके पैजामों
के अन्दर
की हवा में
उनके उगाये
मटर हरे हरे
हो रहे होते हैं

देश का
खून पीने
के लिये
लगाये गये
नलों से
टपकने वाले
खून के चर्चे
कहीं भी नहीं
हो रहे होते हैं

पाले हुऐ
सरकार के
सरकारी लोगों के
काम देख कर भी
अनदेखे हो रहे होते हैं

जो नियम
से करते है
नियम को
देखसुन कर
नियम के
हिसाब से

ऐसे सारे
के सारे
देशद्रोही
देश के
कोने कोने मे
रो रहे होते हैं

माफ करियेगा
'उलूक'
जानता है
तेरे शहर में
तेरे मोहल्ले में
तेरे घर में
इस तरह
के जलवे
हो भी
और
नहीं भी
हो रहे होते हैं

लिखने दे
बबाल ना कर
मत बता
मुझे मेरे हाल
मुझे पता है
तेरे जैसे
ना हो
सकते हैं
ना होंगे
ना हो
रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.gograph.com

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंदर कुछ और और लिखा हुआ कुछ और ही होता है


सोच कर 
लिखना 
और 
लिख कर 
लिखे पर 
सोचना 

कुछ 
एक 
जैसा ही 
तो 
होता है 

पढ़ने वाले 
को तो बस 
अपने 
लिखे का 
ही 
कुछ 
पता होता है 

एक 
बार नहीं 
कई 
बार होता है 
बार बार होता है 

कुछ 
आता है
यूूँ ही खयालों में 

खाली दिमाग 
के 
खाली पन्ने 
पर 
लिखा हुआ 
भी तो 
कुछ 
लिखा होता है 

कुछ 
देर के लिये 
कुछ 
तो कहीं 
पर 
जरूर होता है 

पढ़ते पढ़ते ही 
पता नहीं 
कहाँ 
जा कर 
थोड़ी सी 
देर में ही 

कहाँ जा कर 
सब कुछ 
कहीं खोता है 

सबके 
लिखने में 
होते हैं गुणा भाग 

उसकी 
गणित 
के 
हिसाब से 
अपना 
गणित खुद पढ़ना 
खुद सीखना 
होता है 

देश में लगी 
आग 
दिखाने के लिये 
हर जगह होती है 

अपनी 
आँखों का 
लहू 
दूसरे की 
आँख में 
उतारना होता है 

अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी 
शरम होती है 

अपने लिये 
किसी 
की 
शरम का 
चश्मा 
उतारना 
किसी 
की 
आँखों से 


कर सके कोई 
तो 
लाजवाब होता है 

वो 
कभी लिखेंगे 
जो लिखना है वाकई में 

सारे 
लिखते हैं 
उनका खुद का 
लिखना 
वही होता है 


जो कहीं भी 
कुछ भी 
लिखना ही नहीं होता है 

कपड़े ही कपड़े 
दिखा रहा होता है 
हर तरफ ‘उलूक’ 
बहुत फैले हुऐ 
ना पहनता है जो 
ना पहनाता है 

जिसका 
पेशा ही 
कपड़े उतारना होता है 

खुश दिखाना 
खुद को 
उसके पहलू में खड़े हो कर 
दाँत निकाल कर 
बहुत ही 
जरूरी होता है 

बहुत बड़ी 
बात होती है 
जिसका लहू चूस कर 
शाकाहारी कोई 

लहू से अखबार में 
तौबा तौबा 
एक नहीं 
कई किये होता है 

दोस्ती 
वो भी 
फेसबुक 
की करना 
सबके 
बस में कहाँ होता है 

इन सब को 
छोड़िये 
सब से 
कुछ अलग 
जो होता है 

एक 
फेस बुक का 
एक अलग
पेज हो जाना
होता है । 

चित्र साभार: www.galena.k12.mo.us