उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

समाज की बहती हुई किसी धारा में क्यों नहीं बहता है बेकार की बातें फालतू में रोज यहाँ कहता है

हर किसी
को दिखाई
देती है

अपने
सामने वाले
इन्सान में


इशारों इशारों
में चल देने
वाली एक
आधुनिक कार

जिसके
गियर
स्टेरिंग
क्लच
और
ब्रेक
उसे
साफ साफ
नजर आते हैं


वो बात
अलग है

बारीक
इन्सान
जानते हैं
सारी
बारीकियाँ


किसके
हाथ से
बहुत दूर से
बिना चश्मा
लगाये भी
क्या क्या
चल पाता है


और

किस आदमी
से कौन सा
आदमी

रिमोट
से ही
घर बैठे
बैठे कैसे
चलाया
जाता है


समाज की
मुख्य धाराओं
में बह रहे
इन्सानो को

जरा सा भी
पसन्द नहीं
आते हैं

अपनी
मर्जी से
धाराओं के
किनारे खड़े
हुऐ दो चार
प्रतिशत
इन्सान

जो मौज में
मुस्कुराते हैं


जिस समाज
की धाराओं
के पोस्टर
गंगा के
दिखाई
देते हैं

भगीरथ के
जमाने के
होते हैं

मगर
आज के
और
अभी के
बताये
जाते हैं


और

तब से
अब तक
के सफर
में

जब
गंगा घूम
घाम कर
जा भी
चुकी
होती है

बस रह
गई होती हैं
धारायें
इन्सानी
सीवर की

जिसकी
खुश्बू को
भी सूँघने
से लोग
कतराते हैं


सीवर
नीचे से
निकलने
वाले मल
का होता
तब भी
अच्छा होता

उसमें बहने
से कुछ
तो मिलता
इन्सान को
ना सही

उसके
आस पास
की मिट्टी
को ही सही


पर
सीवर
और गंगा
नंगे इन्सानों
के ऊपर
के हिस्से
में बह रही
गंदगी का
होता है


नजर वाले
ही
देखने में
सोचने में
धोखा
खाते हैं


हर कोई
डुबकी
लगा रहा
होता है

मजबूरी
होती है
लगानी
पड़ती है

नहीं लगाने
वाले किनारे
फेंक दिये 

जाते हैं

करम में
भागीदारी
कर नहीं
तो मर

करमकोढ़ियों
को जरा
सा भी
पसन्द नहीं
आते हैं

वो इन्सान
जो धाराओं
से दूर
रहते हैं
किनारे
खड़े हुए 

होते हैं

इसीलिये
उनको
सुझाव
दिया
जाता है

समाज में
रहना
होता है
तो किसी
ना किसी
धारा में 

बहना
होता है


‘उलूक’
तुझे क्या
परेशानी है

तू तो
जन्मजात
नंगा है

छोटी सी
बात है

तेरी छोटी
सी ही तो
समझदानी है 


जहाँ सारे
कपड़े
पहने हुए
धारा में
तैरते नजर
आ रहे
होते हैं

हिम्मत
 करके
थोड़ा सा
सीवर में
कूदने में
क्या जाता है

क्यों नहीं
कुछ
थोड़ा सा
सामाजिक
तू भी
नहीं हो
जाता है ?

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

अच्छे लोग और उनके उनके लिये मिमियाते बकरे


बकरे कटने के लिये ही होते हों 
या 
बकरे हर समय हर जगह कटें ही 

जरूरी नहीं है 

हर कोई 
बकरे नहीं  काटता है 
कुछ लोग जानते हैं 
बहुत ही अच्छी तरह 

कुछ बकरे 
शहर में मिमियाने के लिये 
छोड़ने भी जरूरी होते हैं 
जरूरी नहीं होता है उन्हें 
कुछ खिलाना या पिलाना 

कुछ बकरे 
खुद अपनी हरी पत्तियाँ खाये हुए 
पेट भरे होते हैं 

बकरे
शहर 
में छोड़ना 
इस लिये भी जरूरी होता है 
ताकि सनद रहे 

और 
बकरे भी हमेशा 
खुद के लिये ही नहीं मिमियाते हैं 

बकरे
वो सब 
बताते हैं जो उन्हें खुद 
मालूम नहीं होता है 

बकरों को 
गलत फहमी होती है
अपने 
खुलेआम आजादी से घूमने की 
वजह की जानकारी होने की 

अच्छे लोग 
बकरों को कभी काटा नहीं करते हैं 

बकरे
हमेशा 
बताते हैं 
अच्छे लोगों की अच्छाइयाँ 
शहर की गलियों में मिमिया मिमिया कर 

देश को भी 
बहुत ज्यादा जरूरत होती है 
ऐसे अच्छे लोगों की 
जिनके पास 
बहुत सारे बकरे होते हैं 
सारे शहर में मिमिया लेने वाले 
बिना हरी घास की चिंता किये हुऐ 

‘उलूक’ 
कब से पेड़ पर बैठा बैठा 
गिनती भूलने लगा है 
अच्छे लोगों और उनके 
उनके लिये मिमियाते 
बकरों को गिनते गिनते । 

चित्र साभार: www.speakaboos.com

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

मुर्दा पर्दे के पीछे सम्भाल कर जीना सामने वाले को पर्दे के सामने से समझाना होता है

मेहनताना
खेत खोदने का
अगर मिलता है

चुपचाप
जेब में
रख कर
आना होता है

किसने पूछना
होता है हिसाब 


घरवालों
के खुद ही
बंजर किये
खेत में
वैसे भी
कौन सा
विशिष्ठ
गुणवत्ता
के धान ने
उग कर
आना होता है

घास
खरपतवार
अपने आप
उग जाती है

रख रखाव
के झंझट
से भी
मुक्ति मिल
जाती है

छोड़ कर
खेत को

हिसाब किताब
की किताब को
साफ सुथरे
अक्षरों से
सजा कर
आना होता है

झाड़ झंकार
से बनने वाली
हरियाली को
भूल कर

इकतीस
मार्च तक
बिल्कुल
भी नहीं
खजबजाना
होता है

 सबसे
महत्वपूर्ण
जो होता है

वो खेत
छोड़ कर
और कहीं
जा कर

गैर जरूरी
कोई दीवार
सीढ़ी सड़क
का बनाना
होता है

पत्थर भी
उधर के लिये
खेत में से ही
उखाड़ कर
उठा कर
लाना होता है

चोखे
मेहनाताने
पर आयकर देकर

सम्मानित
नागरिक
हो जाने
का बिल्ला
सरकार
से लेते हुए

एक फोटो
अखबार में
छपवाने
के वास्ते

प्रसाद
और फूल
के साथ
दे कर
आना होता है

‘उलूक’
की बकवास
की भाषा में
कह लिया जाये

बिना किसी
लाग लपेट के

अगर सौ बातों
की एक बात

अपने अपने
बनाये गये
मुर्दों को

अपने अपने
पर्दों के पीछे
लपेट कर
सम्भालकर
आना होता है

फिर सामने
निकल कर
आपस में
मिलकर
सामने वालों को
मुस्कुराते हुऐ

जिंदगी क्या है

बहुत
प्यार से
समझाना
होता है ।


चित्र साभार: www.canstockphoto.com

रविवार, 14 अगस्त 2016

एक खयाल आजाद एक खयाल गुलाम एक गुलाम आजाद एक आजाद गुलाम

गुलामों के
गुलामों की

किसी एक
श्रृंखला के
गुलाम

तेरे आजाद
होने के
खयाल को

एक गुलाम
का सलाम

सोच ले
कर ले मनन
लगा ले ध्यान

लिखना चाहे
तो लिख
भी ले
एक कलाम

कल के दिन
आने वाली

एक दिन
की आजादी
के जश्न का
आज की शाम

देख कर
दिनदर्शिका में

अवकाश के
दिनों में
दिखाये गये

लाल रंग में रंगे
पन्द्रह अगस्त
का लेकर नाम

कल
निकल जायेगा
हाथ से

एक साल तक
नहीं मिलेगा
फिर मौका

हो जायेंगे
तेरे सारे
अरमान धड़ाम

करले करले
बिना शरमाये

किसी बड़े
गुलाम के
छोटे गुलाम को

झंडा तानते समय
जोर से जूता
ठोक कर सलाम

आजाद खयाल
आजाद रूहें
करें अपने
हिसाब किताब

लिये अपने
जारी और रुके
हुए जरूरी
देश के सारे काम

एक गुलाम
‘उलूक’ का

अपने जैसे
गुलामों के लिये

है बस ये

गुलाम खयाल

आजाद पैगाम ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

'उलूक’ पहले अपना खुद का नामरद होना छिपाना सीख

सोच को सुला
फिर लिख ले
जितनी चाहे
लम्बी और
गहरी नींद

 सपने देख
मशालें देख
गाँव देख
लोग देख
गा सके
तो गा
नहीं गा सके
तो चिल्ला
क्राँति गीत

कहीं भी
किसी भी
गिरोह में
जा और देख
गिरोह में
शामिल करते
गिरोहबाजों
की कलाबाजियाँ
पैंतरेबाजियाँ
और कुछ
सीख

हरामखोरियों
की
हरामखोरियाँ
ही सही
सीख

देश राज्य
जिला शहर
मोहल्ले की
जगह अपनी
जगह पर
अपनी जमीन
खुद के नीचे
बचाने
की कला
सीख

कोशिश कर
उतारने की
सब कुछ
कोशिश कर
दौड़ने की
दिन की
रोशनी में
नंगा होकर
बिना झिझक
जिंदा रहने
के लिये
बहुत
जरूरी है
सीख

किसी
भी चोर
को गाँधी
बनाना
और
गाँधी को
चोर बनाना
सीख

इन्सान
की मौत
पर बहा
घड़ियाली
आँसू

कुछ
थोड़ा सा
आदमी का
खून पी
जाना भी
सीख

सब जानते हैं
सब को पता है
सब कुछ बहुत
साफ साफ
सारे ऐसे
मरदों को
रहने दे

‘उलूक’
ये सब
दुनियादारी है
रहेगी हमेशा
पहले अपना
खुद का
नामरद होना
छिपाना
सीख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com