उलूक टाइम्स

बुधवार, 1 नवंबर 2017

आदमी खोदता है आदमी में एक आदमी बोने के लिये एक आदमी

ऊपर
वाला भी
भेज देता
है नीचे

सोच कर
भेज दिया है
उसने
एक आदमी

नीचे
का आदमी
चढ़ लेता है
उस आदमी के
ऊपर से उतरते ही

उसकी
सोच पर
सोचकर
समझकर
समझाकर
सुलझाकर
बनाकर उसको
अपना आदमी

आदमी
समझा लेता है
आदमी को आदमी

खुद
समझ कर
पहले

ये तेरा आदमी
ये मेरा आदमी

बुराई नहीं है
किसी आदमी के
किसी का भी
आदमी हो जाने में

आदमी
बता तो दे
आदमी को
वो बता रहा है
बिना बताये
हर किसी
आदमी को

ये है मेरा आदमी
ये है तेरा आदमी

‘उलूक’

हिलाता है
खाली खोपड़ी
में भरी हवा
को अपनी
हमेशा की तरह

देखता
रहता है

आदमी
खोजता
रहता है
हर समय
हर तरफ
आदमी
खोजता आदमी

बेअक्ल
उलझता
रहता है
उलझाता
रहता है
उलझनों को

अनबूझ
पहेलियों
की तरह
सामने
सामने ही
क्यों नहीं
खेलता है
आदमी का
आदमी
आदमी आदमी

बेखबर
बेवकूफ

अखबार
समझने
के लिये नहीं

पढ़ने
के लिये
चला जाता है

पता ही नहीं
कर पाता है
ऊपर वाला
खुद ही ढूँढता
रह जाता है

आदमी आदमी
खेलते आदमियों में
अपना खुद का
भेजा हुआ आदमी ।

चित्र साभार: Fotosearch

बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

कहने दीजिये कुछ कह देने से कहीं कुछ नहीं होता है

कल का
नहीं
खाया है
पता है
आज
फिर से
पकाया है
वो भी
पता है

कल भी
नहीं
खाना था
पता था
आज भी
नहीं
खाना है
पता है

कल भी
पकाया था
कच्चा था
पता था

पूरा पक
नहीं
पाया था
वो भी
पता था

किसी ने
कहाँ कुछ
बताया था
बताना ही
नहीं था

आज भी
पकाया है
पक नहीं
पाया है

कोई नहीं
खायेगा
जैसा था
रह जायेगा

सब को सब
पता होता है
कौन कब
कहाँ कितना
और क्यों
कहता है

सारा हिसाब
बहीखातों में
छोड़ कर
इधर भी
और
उधर भी
एक एक पाई
का सबके
पास होता है

ईश्वर और
कहीं भी
नहीं होता है

जो होता है
बस यहीं कहीं
आस पास
में होता है

दिखता है
मन्दिरों की
घन्टियाँ
बजाना
छोड़ कर

गले में
अपने ही
घन्टी
बाँध कर
यहीं पर
के किसी
एक के लिये

कोई
कितना
जार जार
सर
हिला हिला
कर रोता है

कल नहीं
पता था जिसे
उसे आज भी
पता नहीं होता है

‘उलूक’
इसलिये
कहीं भी
किसी डाल
पर नहीं
होता है

जो होते हैं
वो हर जगह
ही होते हैं

नहीं
होने वाले
नहीं हो पाने
के लिये
ही रोते हैं

पकता रहे
कुछ कुछ
जरूरी है

रसोई
के लिये
रसोईये
का काम
पकाना
और
पकाना
ही होता है

समझ में आने
के लिये नहीं
कहा होता है

जो लिखा
होता है
वो सब
समझ में
नहीं आया
होता है
इसीलिये
लिखा होता है

रोज पकाया
जाता है
कुछ ना कुछ

अधपकों के
बस में बस
इतना ही
तो होता है
जो पकाने
के बाद
भी पका
ही नहीं
होता है।

चित्र साभार: Encyclopedia Dramatica

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

हर सफेद बोलने वाला काला एक साथ चौंच से मिला कर चौंच खोलता है

गरम
होता है
उबलता है
खौलता है

कभी
किसी दिन
अपना ही लहू
खुद की
मर्दानगी
तोलता है

अपना
ही होता है
नजदीक का
घर का आईना
रोज कब कहाँ
कुछ बोलता है

तीखे एक तीर
को टटोलता है
शाम होते ही
चढ़ा लेता
है प्रत्यंचा
सोच के
धनुष की

सुबह सूरज
निकलता है
गुनगुनी धूप में
ढीला कर
पुरानी फटी
खूँटी पर टंगी
एक पायजामे
का इजहार

बह गये शब्दों
को लपेटने
के लिये
खींच कर
खोलता है

नंगों की
मजबूरी
नहीं होती है
मौज होती है

नंगई
तरन्नुम में
बहती है
नसों में
हमखयालों
की एक
पूरी फौज के
कदमतालों
के साथ

नशेमन
हूरों की
कायानात के
कदम चूमता है
हिलोरे ले ले
कर डोलता है

‘उलूक’
फिर से
गिनता है
कौए अपने
आसपास के

खुद के
कभी हल
नहीं होने वाले
गणित की नब्ज

इसी तरह कुछ
फितूर में फिर
से टटोलता है ।

चित्र साभार: Daily Mail

शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

कुत्ता हड्डी और इतिहास












कुछ दिन
अच्छा होता है
नहीं देखना
कुछ भी
अपनी
आँखों से

दिख रहे
सब कुछ में

कुछ दिन
अच्छा होता है
देखना
वो सब कुछ


जो सब को
दिखाई

दे रहा होता है
उनके अपने
चारों ओर

उनकी अपनी
आँखों से


रोज
अपने अपने

दिखाई दे रहे को
दिखाने की होड़ में

दौड़ लगा रहे
देखे गये
बहुत कुछ में

आँखें बन्द कर
देख लेने वालों का
देखा हुआ

रायते की
तरह
फैला
देना सबसे

अच्छा होता है

जिसकी
आँख से

सब देखना
शुरु
कर
दिये होते हैं

वो ईश्वर हो
चुका होता है

गाँधी
बहुत बौना

हो चुका
होता है

अपनी लाठी
पकड़े हुऐ


उसको
गाली देता

एक लोफर
गली का

एक झंडा लिये
अपने हाथ में
एक
बेरंगे
हो गये रंग का

समय हो
चुका होता है


‘उलूक’
समय खोद
रहा होता है
समय को
समझने

के लिये

समय
इतिहास

हो गया
होता है


ऐसा
इतिहास

जिसमें
एक

कुत्ते का
गड्ढा खोदना
और उसमें
उसका

एक हड्डी
दबाना
ही
बस इतिहास

रह गया होता है |

चित्र साभार:
 cliparts

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

बस ज्ञानी हिंदू ही पढ़ें समझ में आ जाये तो लाईक भी करें फिर फार्वर्ड भी करें

सारे शिव
डरपोक
हलाहल
गटके हुऐ
गले गले
नीले पड़े
दिखा रहे हैं
साँपों को

समझा रहे हैं
साँपों को
शाँत रहें
साँप बने रहें

सारे साँप
मौज में हैं
शिव के गले में
माला डाले हुए हैं

हर जगह
शिव ही शिव हैं
हर जगह
साँप ही साँप हैं

डस कोई
किसी को
नहीं रहा है

साँप साँप
के साथ है
और
रह रहा है

परेशान मेंढक
और चूहे हैं
इधर के
साँप से
भी डर है
उधर का साँप भी
निगलने को
तैय्यार है

यहाँ का साँप
वहाँ चला जाता है
बस एक खबर में
चला गया है
कोई बताता है

वहाँ का साँप
यहाँ चला आता है
किसी को कोई
फर्क नहीं
पड़ पाता है

साँप चूहे
छुछूँन्दर
के खेल में
कब कौन साँप
कौन चूहा
कौन छुछून्दर
हो जाता है

‘उलूक’
देखता है
समझता है
बस जानवर
जानवर खेल
नहीं पाता है

आदमी हो लेने
के प्रयास में
मायूस हो जाता है

साँप बना आदमी
आदमी को साँपों
की सोच से डराता है ।

चित्र साभार: Best Clip Art Images