होता है
एक नहीं
कई बार
होता है
कुछ पर
लिखने
के लिये
कुछ भी
नहीं होता है
तो मत लिख
लिखने की
बीमारी का
इलाज सुना है
हकीम
लुक मान
के पास भी
नहीं होता है
किस ने
कहाँ लिखा है
लिखना
इतना भी
जरूरी होता है
पीछे
का लिखा
पीछे
चला गया
होता है
आगे देख
लिया कर
उधर
बहुत कुछ
होने वाला
होता है
सावन
पर ही
लिख दे कुछ
हर साल
आता है
इस बार
नहीं आयेगा
सोचना ही
नहीं होता है
सावन से
पहले अंधा
हो लेने से
सब कुछ
पहले ही
हरा हो जाये
ऐसा भी
नहीं होता है
अपनी गाय
अपनी होती है
गोबर
कोई उठा ले जाये
जरूरत के अनुसार
ही उठाना होता है
मत का दान
दान करने तक
ही छुपाना होता है
उसके बाद
पागलों के
उन्माद का मेला
हर जगह होता है
पढ़ा होता है
या नहीं
पढ़ा होता है
अनपढ़ के
फैसलों पर
यू पी एस सी
तक टिका होता है
यू जी सी
के फैसले
इण्टर पास
को ले ले ने का
बहुत बड़ा
हौसला होता है
शेर लिखने
लिखाने की
कक्षा के
मास्टर के
पास हड़काने
का लाइसेंस
होता है
‘उलूक’
की बकवास
विद्वानों
के बीच
फंस जाती
है हमेशा
बहुत
दर्द होता है
डूब मरने का
बस हौसला
नहीं होता है ।
चित्र साभार: mariafresa.ne
रोज
अपना ही
मत गोड़
कभी
उसके
लिये भी
लगा लिया
कर दौड़
इंतजार
सबको है
किसका है
किसे
बताना है
रहने भी दे
छोड़
किस लिये
करता है
इजहार
कुछ
बदलने के
नहीं हैं
यहाँ आसार
लिख
और
लिख कर
हवा में उड़ा
धुआँ देख
खुश हो
मन
मत मार
गुलाब ही
गुलाब हैं
सारे फूल हैं
सब
लिख रहें हैं
सब ही
सुरखाब हैं
कलम घिस्सी
काली सफेद
रहने दे
मत कर
रंगों के
जमाने हैं
रंग ही बस
अब आबाद हैं
ख्वाब देख
सुबह देख
दोपहर में देख
रात में देख
संगीत मान ले
मक्खियों
की भिन भिन
कौन से
पूरे होने हैं
कौन से
अधूरे
रहने हैं
दिखाने
वाले पर
छोड़ दे
चुनाव के
दिन गिन
बेवफाई कर
जिंदा रहेगा
घर में रहेगा
खबर में रहेगा
वफा करेगा
वफादार रहेगा
कोई
कुत्ता कहेगा
बेमौत मरेगा
नशे में लिख
नशा लिख
बस लिखे में
मत लड़खड़ा
'उलूक'
लिखे
लिखाये से
कौन
सा पता
चलना है
किसी के
बारे में
कौन है
क्या है
कितना है
खड़खड़ा।
चित्र साभार www.canstockphoto.com
सब कुछ
एक साथ
नहीं दौड़ता है
टाँगें
कलम हो जायें
बहुत कम होता है
वजूका
खेत के बीच में
भी हो सकता है
कहीं किनारे पर
बस यूँ ही खड़ा
भी किया होता है
कहने लिखने को
रोज हर समय
कुछ ना कुछ
कहीं किसी
कोने में
जरूर होता है
लिखे हुऐ
सारे में से
जान बूझ कर
नहीं लिखा गया
कहीं ना कहीं
किसी पंक्ति
के बीच से
झाँक रहा होता है
समुन्दर
लिख लेने
के बाद
नदी लिखने
का मन
किसी का
होता होगा
पता कहाँ
चलता है
कलम की
पुरानी
स्याही को
नाले के पास
लोटे में धोना
और फिर
चटक धूप में
सुखा कर
नयी स्याही
भर लेना
एक पुराना
मुहावरा
हो चुका
होता है
नये मुल्ले
और
प्याज पर
लिखने से
दंगा भड़कने
का अंदेशा
हो रहा
होता है
रोज के
रोजनामचे
को लिखने
वाले ‘उलूक’
का दिल
साप्ताहिक
हो लेने
पर भी
बाग बाग
हो रहा
होता है
लिखना
लिखाना
और
उस पर
टिप्पणी
पाने की
लालसा पर
हमेशा
की तरह
नये सिपाही
का बंदूक
तानने पर
अपनी
पुरानी
जंक लगी
बन्दूक से
खुद का
फिर से
सामना
हो रहा
होता है
अपना लिखना
अपने लिखे को
अपना पढ़ लेना
समझ में आ जाना
सालों साल में
पुराने प्रश्न से
जैसे नया
सामना हो
रहा होता है ।
बिल्लियों के
अखबार में
बिल्लियों ने
फिर छ्पवाया
सुबह का
अखबार
रोज की तरह
आज भी
सुबह सुबह
उसी तरह से
शर्माता हुआ
जबर्दस्ती
घर के दरवाजे से
कूदता फाँदता
हुआ ही आया
खबर
शहर के कुछ
हिसाब की थी
कुछ किताब की थी
शरम लिहाज की थी
शहर के पन्ने में ही
बस दिखायी गयी थी
चूहों की पढ़ाई
को लेकर आ रही
परेशानियों की बात
बिल्लियों के
अखबार नबीस के द्वारा
बहुत शराफत के साथ
रात भर पका कर
मसाले मिर्च डाले बिना
कम नमक के साथ
बिना काँटे छुरी के
सजाई गयी थी
मुद्दा
दूध के बंटवारे
को लेकर हो रहे
फसाद का नहीं है
खबर में
समझाया गया था
बिल्लियाँ
घास खाना
शुरु कर जी रही हैं
बिल्लियों का
वक्तव्य भी
लिखवाया गया था
सफेद
चूहों को अलग
और
काले चूहों को
कुछ और अलग
बताया गया था
खबर जब
कई दिनों से
सकारात्मक सोच
बेचने वालों की
छपायी जा रही थी
पता नहीं बीच में
नकारात्मक उर्जा
को किसलिये
ला कर
फैलाया जा रहा था
बात
चूहों के
शिकार की
जब थी ही नहीं
बेकार में
दूध के बटवारे
को लेकर पता नहीं
किस बात का
हल्ला
मचवाया जा रहा था
चूहे चूहों को गिन कर
पूरी गिनती के साथ
बिल से निकल कर
रोज की तरह वापस
अपने ही बिल में
घुस जा रहे थे
दूध और
मलाई के निशान
बिल्लियों की मूँछों
में जब आने ही
नहीं दिये जा रहे थे
बिल्लियों के
साफ सुथरे धंधों को
किसलिये
इतना बदनाम
करवाया जा रहा था
ईमानदारी की
गलतफहमियाँ
पाला ‘उलूक’
बेईमानी के
लफड़े में
अपने हिस्से का
गणित लगाता हुआ
रोज की तरह
चूहे बिल्ली के
खेल की खबर
खबरची
अखबार की गंगा
और डुबकी
सोच कर
हर हर गंगे
मंत्र के जाप के
एक हजार आठ
पूरे करने का
हिसाब लगा रहा था।
चित्र साभार: www.dreamstime.com
लिखना
पड़ जाता है
कभी मजबूरी में
इस डर से
कि कल शायद
देर हो जाये
भूला जाये
बात निकल कर
किसी किनारे
से सोच के
फिसल जाये
जरूरी
हो जाता है
लिखना नौटंकी को
इससे पहले
कि परदा गिर जाये
ताली पीटती हुई
जमा की गयी भीड़
जेब में हाथ डाले
अपने अपने घर
को निकल जाये
कितना
शातिर होता है
एक शातिर
शातिराना
अन्दाज ही
जिसका सारे
जमाने के लिये
शराफत का
एक पैमाना हो जाये
चल ‘उलूक’
छोड़ दे लिखना
देख कर अपने
आस पास की
नौटंकियों को
अपने घर की
सबसे
अच्छा होता है
सब कुछ पर
आँख कान
नाक बंद कर
ऊपर कहीं दूर
अंतरिक्ष में बैठ कर
वहीं से धरती के
गोल और नीले
होने के सपने को
धरती वालों को
जोर जोर से
आवाज लगा लगा
कर बेचा जाये।
चित्र साभार: www.kisspng.com