बापू
फिर
टकराये हम
फिर
पता चला
एक साल
और ऐवें
ही बीत गया
समझ में
आ गयी
हों जैसे
फिर से
कुछ
और बातें
फिर से
हुऐ
कुछ भ्रम
जैसे खुद
गोल किया हो
अपने गोल पर
और
महसूस
साथ में किया
जीत गया
बापू
छोटी
छोटी बातें
दुनियाँ की
दुनियाँदारी की
लगता है
धीरे धीरे
अब
पूरा का पूरा
मन भीग गया
देखना
खुद का खुद से
ठीक नहीं
देख रहे हों
सब
जो कुछ
कुछ कुछ
देखना
लगता है
अब तो
सीख गया
बापू
पढ़ते
पढ़ते तुझको
दिखा
नहीं जमाना
बगल से
निकल
दूर कहीं
लिख चुका
कोई
धुन नयी
कोई
गीत नया
सीखा
नाच जीवन का
रख कर कदम
तेरे कदमों पर
जितना भी
नाँच ना जाने
आँगन टेढ़ा
सुनकर
नयी पौंध से
सारा
सब कुछ
जैसे रीत गया
एक पूरी
एक आधी सदी
का पैमाना बापू
सारी
दुनियाँ ने देखा
सोचा और समझा
ढाला
कुछ कुछ
जीवन में अपने
पूरब
लेकर
पश्चिम को
जैसे प्रीत गया
अपने
अन्दर के सच
ढक लेने का
हथियार बापू
अपना
खुद का सच
दुनियाँ की
आखों में
झोंकने
के लिये
झूठ नया
‘उलूक’
एक सौ
पचास साल
की
मेहनत पर
कोई आकर
कुछ दिन में
कितना कितना
गोबर लीप गया ।
चित्र साभार: http://devang-home.blogspot.com
शेर
होते नहीं हैं
शायर
समझ नहीं पाते हैं
कुछ इशारे
गूँगों के समझ में
नहीं आते हैं
नदी
होते नहीं हैं
समुन्दर
पहुँच नहीं पाते हैं
कुछ घड़े
लबालब भरे
प्यास नहीं बुझाते हैं
पढ़े
होते नहीं हैं
पंडित
नहीं कहलाते हैं
कुछ
गधे तगड़े
धोबी के
हाथ नहीं आते हैं
अंधे
होते नहीं हैं
सच
देखने नहीं जाते हैं
कुछ
आँख वाले
रोशनी में
चल नहीं पाते हैं
अर्थ
होते नहीं हैं
मतलब
निकल नहीं पाते हैं
कुछ भी
लिखने वाले को
पढ़ने नहीं जाते हैं
काम
करते नहीं हैं
हरामखोर
बताये नहीं जाते हैं
कुछ
शरीफों के
समाचार
बनाये नहीं जाते हैं
लिखते
कुछ नहीं हैं
पढ़ने
नहीं जाते हैं
करते
चले चलते हैं
बहुत कुछ
‘उलूक’
निशान
किये कराये के
दिखाये नहीं जाते हैं ।
चित्र साभार: www.fotolia.com
पता नहीं
ये मौके
फिर
कभी और
हाथ में आयें
चलो
कुछ भटके
हुओं को
कुछ और
भटकायें
कुछ
शरीफ से
इतिहास
पन्नों में
लिख कर लायें
बेशरम सी
पुरानी
किताबों को
गंगा में
धो कर के आयेंं
करना कराना
बदसूरत सा
अपना ना बतायें
खूबसूरत तस्वीरें
लाकर गलियों
में फेंक आयें
अच्छा लिखा
अच्छे आदमी
अच्छी
महफिल सजायें
तस्वीरें
झूठी समय की
समय की
नावों में रख
कर के तैरायें
अपने थाने
अपने थानेदार
अपने गुनाह
सब भुनायें
कल बदलती
है तस्वीर
थोड़ा उधर
को चले जायें
मुखौटे ओढ़ें नहीं
बस मुखौटे
ही खुद हो जायें
आधार पर
आधार चढ़ा कर
आधार हो जायें
मौज में
लिखे को
समझने के
लिये ना आयें
सारी बातें
सीधे सीधे
लिखकर
बतायें
‘उलूक’
जैसों की
बकबक को
किनारे लगायें
सच
का मातम
मनाना भी
किसलिये
खुश होकर
मिलकर
झूठ का
झंडा फहरायें ।
चित्र साभार: https://www.colourbox.com/
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1947- 22/09/2018 |
शब्द
नहीं होते हैं
सब कुछ
बताने के लिये
किसी के बारे में
थोड़ा
कम पड़ जाते हैं
थोड़े से
कुछ लोग
भीड़ में
होते हुऐ भी
भीड़
नहीं हो जाते हैं
समुन्दर के
पानी में
मिल चुकी
बूँद
होने के
बावजूद भी
दूर से
पहचाने जाते हैं
जिंदगी भर
जन सरोकारों
के लिये
संघर्ष करने
वालों के चेहरे ही
कुछ
अलग हो जाते हैं
अपने
मतलब के लिये
भीड़ खरीद/
बेच/ जुटा कर
कहीं से कहीं
पहुँच जाने वाले
नहीं पा सकते हैं
वो मुकाम
जो
कुछ लोग
अपनी सोच
अपने सत्कर्मों से
अपनी बीनाई
से पा जाते हैं
एक
शख्सियत
यूँ ही नहीं
खींचती है
किसी को
किसी
की तरफ
थोड़े से
लोग ही
होते हैं
कुछ अलग
बस
अपने लिये
नहीं जीने
वाले
ऐसे ही लोग
जब
महफिल से
अचानक
उठ कर
चले जाते हैं
सरकारी
अखबार
वालों को भी
कुछ
लिखने लिखाने
की याद
दिला कर जाते हैं
बहुत कमी
खलेगी आपकी
'डा0 शमशेर सिंह बिष्ट'
कुछ
सरोकार
रखने वालों
को हमेशा
अल्विदा नमन
विनम्र श्रद्धांजलि
‘उलूक’
कुछ लोग
बना ही
जाते हैं
कुछ रास्ते
अलग से
जिसपर
सोचने वाले
सरोकारी
हमेशा ही
आने वाले
समय में
आते हैं
और जाते हैं ।
होता है
निगाहें
कहीं और
को लगी होती हैं
और
निशाना
कहीं और को
लगा होता है
इस
सब के लिये
आँखों का
सेढ़ा होना
जरूरी
नहीं होता है
ये भी होता है
बकवास को
पढ़ना नहीं होता है
बढ़ती
आवत जावत
की घड़ी की सूईं
पढ़ने पढ़ाने का
पैमाना नहीं होता है
ये मजबूरी होता है
हरी भरी
कविताओं से भरी
क्यारियों के बीच में
पनपती हुयी भुर भुरी
खरपतवार को
उखाड़ने के लिये
ध्यान देना
बहुत जरूरी होता है
इसे होना होता है
देर रात
सड़क पर
दल बल सहित
निकले पहरेदार को
सायरन
बजाना ही होता है
किनारे हो लो
जहाँ भी हो
सेंध में लगे
चोर भाईयों को
सन्देश दूर से
पहुँचाना होता है
ये जरूरी होता है
ज्यादा चूहों से
अनाज को
बचाने के लिये
दिमाग
लगाना होता है
कुछ चूहों की
एक समीति बनाकर
सारे अनाज को
उनकी देखरेख में
थोड़ा थोड़ा कर
कुतरवाना होता है
इसका
कुछ नहीं होता है
गाय की तरह
बातों की घास को
दिनभर निगल कर
‘उलूक’ ने
रातभर
जुगाली
करने में
बिताना ही
होता है।
चित्र साभार: https://www.deviantart.com