उलूक टाइम्स

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

कभी लिख तो सही पेड़ जंगल मत लिख डालना लिखना बस एक या डेढ़ दो पेड़

पेड़ के इधर पेड़
पेड़ के उधर पेड़
बहुत सारे पेड़
एक दो नहीं
ढेर सारे पेड़
चीड़ के पेड़
देवदार के पेड़
नुकीली पत्तियों
वाले कुछ पेड़
चौड़ी पत्तियों
वाले कुछ पेड़
सदाबहार पेड़
पतझड़ में
पत्तियाँ झड़ाये खड़े
कई कई हजार पेड़
आदमी के आस
पास के पेड़
बहुत दूर
आदमी की पहुँच
से बाहर के पेड़
पेड़ के पास
के आदमी
आदमी और पेड़
पेड़ और आदमी
आदमी के
पास के आदमी
पेड़ के पास के
कुछ खुश
कुछ उदास पेड़
पेड़ से कुछ नहीं
कहते कभी
भी कुछ पेड़
आदमी से
कुछ नहीं लेते
कभी भी कुछ पेड़
आदमी से सभी कुछ
कह देते आदमी
जमीनों पर खुद ही
उग लेते
पनप लेते पेड़
जमीनों से कटते
उजड़ते पेड़
आदमी के
हाथ से कटते पेड़
आदमी के हाथ से
कटते आदमी
आदतन आदमी
के होते सभी पेड़
पेड़ को
जरूरत ही नहीं
पेड़ के होते
नहीं आदमी
पेड़ के होते
हुऐ सारे पेड़
पेड़ ने कभी
नहीं मारे पेड़
इंसानियत के
उदाहरण पेड़
इंसान के सहारे
एक ही नहीं
सारे के सारे पेड़
‘उलूक’ तेरी तो
तू ही जाने
किस ने तेरी सोच
में से आज
क्यों और
किसलिये
निकाले पेड़ ही पेड़ ।

चित्र साभार: imageenvision.com

बुधवार, 12 नवंबर 2014

एक सोच पैदा होती है साथ लेकर अपना ताबूत अपने साथ

जब तक ईमानदारी
के साथ सहजता से
बता ना दे कोई कुछ
इस तरह कि
चेहरे पर ना बने
कोई शिकन
और आँखे भी
चुगली ना करें
सोच किसकी
कितनी गहरी है
किसी की खुद के
डूबने के लिये है
या किसी को
डुबोने के लिये है
या पार लगाने
के लिये
बिना सोचे समझे
इस को भी
उस को भी
या किसी को भी
तूफानों में भी
बहुत प्यार से
प्यार के साथ
इस जहाँ से
उस जहाँ
ना जाने
कहाँ कहाँ
होते हुऐ
तब तक कुछ
सोचा भी
नहीं जाता है
अंधेरे बंद कमरे
सोच के
जहाँ रोशन दान
भी एक खुला
छोड़ा नहीं जाता है
और सोच की
कब्र खोदने के
सारे औजार
रखे जाते हैं
वो भी जंग लगे हुऐ
सम्भाल कर
कई साल तक
सालों साल तक
ताबूत भी कई
बंद पड़े हो
एक नहीं कई कई
खाली इंतजार में
मरने की
किसी सोच के
जो बन सके
एक लाश
बंद होने के लिये
इन खाली ताबूतों में
कितनी गजब
की बात है
आदमी के मरने
के बाद ताबूत
का इंतजाम
करना पड़ता है
मरी हुई सोच
ताबूत के
साथ साथ
जन्म लेना
शुरु कर देती है ।

चित्र साभार: http://pixgood.com

बंदर ने किया जो भी किया अच्छा किया दिमाग कहीं भी नहीं लगाया

कल परसों
का कूड़े दान
खाली नहीं
हो पाया

बंदरों ने
उत्पात मचा
मचा कर
दूरभाष का
तार ही
काट खाया

बहुत कुछ
पकाने का
ताजा सामान
एक ही दिन में
बासी हो आया

वैसे भी
यहाँ की इस
अजब गजब
दुनियाँ में
कहाँ पता
चलता है

कौन क्यूँ गया
यहाँ आकर
और
कौन क्यूँ कर
आँखिर यहाँ से
चले जाने के बाद
भी लौट लौट कर
फिर फिर यहाँ आया

बंदरों का देखिये
कितना अच्छा है
जहाँ मन किया
वहाँ से कूद लिये

जहाँ मन नहीं हुआ
खीसें दिखा कर
आवाज निकाल
सामने वाले को
बंदर घुड़कियाँ
दे दे कर डराया

कुछ करने की
तीव्र इच्छा कहीं
किसी कोने
में ही सही

होने वालों को
कर लेने से
वैसे भी कौन
है रोक पाया

बंदरों से ही
शुरु हुआ आदमी
बनने का क्रम

कितना आदमी
बना कितना
बंदर बचा
किसी ने किसी को
इस गणित को
नहीं समझाया

‘उलूक’ रात में
अवरक्त चश्मा
लगाने की सोचता
ही रह गया

ना दिन में
देख पाया
ना ही रात में
देख पाया ।

चित्र साभार: www.picturesof.net

रविवार, 9 नवंबर 2014

हैप्पी बर्थ डे उत्तराखंड

अब एक
चौदह बरस
के बच्चे से
क्यों उम्मींदे
अभी से
लगा रहे हो

सपने बुनने
के लिये
कोई सीकें
सलाई की
जरूरत तो
होती नहीं है
इफरात से
बिना रात हुऐ
बिना नींद आये
सपने पकौड़ियों
की तरह पकाये
जा रहे हो

कुछ बालक की
भी सोचो जरा
चौदह साल में
कितने बार
पिताजी बदलते
जा रहे हो
बढ़ने क्यों
नहीं देते हो
पढ़ने क्यों
नहीं देते हो
एक नन्हें बालक
को आदमी
क्यों नहीं कुछ
जिम्मेदार जैसा
होने देते हो

सारे बंजर
पहाड़ों के
खुरदुरे सपने
उसके लिये
अभी से
बिछा रहे हो
माना कि
चौदहवाँ
जन्मदिन है
मनाना
भी चाहिये
कुछ केक सेक
काट कर
जनता में
क्यों नहीं
बटवा रहे हो

अच्छे दिन
आयेंगे के
सपने देख
दिये तुमने
जन्म लेते
ही बच्चे के
इस बात का
कसूरवार
कितनो को
ठहरा रहे हो

घर छोड़
छा‌‌ड़ कर
पलायन करने
के लिये किसी
ने नहीं
कहा तुमसे
अपनी मर्जी से
भाग रहे हो
नाम बेचारी
सरकारों का
लगा रहे हो

समुद्र मंथन में
निकली थी सुरा
किस जमाने में
पहुँचा भी दी
जा रही है
दुर्गम से दुर्गम
स्थानों में
आभार जताने
के बजाये
सुगम दुर्गम के
बेसुरे गाने
गाये जा रहे हो

अभी अभी तो
पर्दा उठा है
नाटक का
मंचन होने से
पहले ही बिना
देखे सुने
भाग जा
रहे हो

मान लो
एक छोटा
सा राज्य है
आपका
और हमारा
ये भाग्य है
खुश होना
चाहिये
आज के दिन
कम से कम
रोना धोना
छोड़ कर
जय हो
उत्तराखंड
देवों की भूमि
की जय हो
के नारे
हम जैसे
यहाँ बसे
सारे असुरों
के साथ
मिल कर
क्यों नहीं
लगा रहे हो ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शनिवार, 8 नवंबर 2014

होता ही है एक बच्चे की खींची हुई लकीरें कागज पर ढेर सारी एक दूसरे से उलझ ही जाती हैं

शायद किसी दिन
कुछ लिखने के 
काबिल हो जाऊँ 
और पा लूँ एक 
अदद पाठक भी 
ऐसा पाठक जो 
पढ़े मेरे लिखे हुऐ को 
बहुत ध्यान से 
और समझा भी दे 
मुझे ही भावार्थ 
मेरे लिखे हुऐ का 
लिखने की चाह 
होना काफी नहीं होता 
बहुत ज्यादा और 
कुछ भी लिख देना 
कागज भरना 
कलम घिस देना 
ऐसे में कई बार 
आँखों के सामने 
आ जाता है कभी 
एक बच्चा जो 
बहुत शौक से 
बहुत सारी लाईने 
बनाता चला जाता है 
कागज ही नहीं 
दीवार पर भी 
जमीन पर और 
हर उस जगह पर 
जहाँ जहाँ तक 
उसकी और उसकी 
कलम की नोक 
की पहुँच होती है 
उसके पास बस
कलम होती है
कलम पर बहुत
मजबूत पकड़ होती है
बस उसकी सोच में
शब्द ही नहीं होते हैं
जो उसने उस समय
तक सीखे ही
नहीं होते हैं
इसी तरह किसी
खुशमिजाज दिन की
उदास होने जा रही
शाम जब शब्द
ढूँढना शुरु होती है
और माँगती है
किसी आशा से
मुझ से कुछ
उसके लिये भी
कह देने के लिये
दो चार शब्द
जो समझा सकें
मेरे लिखे हुऐ में
उसको उसकी उदासी
और उस समय मैं
एक छोटा सा बच्चा
शुरु कर देता हूँ
आकाश में
लकीरें खीँचना
उस समय
महसूस होता है
काश मैं भी
एक लेखक होता
और उदास शाम
मेरी पाठक
क्या पता किसी दिन
कोई लकीर कुछ कह दे
किसी से कुछ इतना
जिसे बताया जा सके
कि कुछ लिखा है ।

चित्र साभार: www.lifespirals.com.au

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

आज की ट्रेन में ‘उलूक’ कुछ ज्यादा डिब्बे लगा रहा है वैसे भी गरीब रथ में कौन आना चाह रहा है

पुरानी से लेकर नई
किताबों के कमरे में
उन के ऊपर जमी
धूल में कुछ फूल
बनाने का मन हुआ
कुछ फूल कुछ पत्तियाँ
कुछ कलियाँ कुछ काँटे
क्या बनाऊँ क्या नहीं
किस से पूछा जाये
कौन बताये कौन छाँटे
कुछ ऐसा ही चल रहा था
खाली दिमाग में कि
धूल उड़ी आँख में घुसी
नाक में घुसी आँख बंद हुई
फिर छींके आना शुरु हुई
छींके बंद होने का
नाम नहीं ले रही थी
किताबें जैसे देख
देख कर यही सब
दबी जुबान से
हँस रही थी
जैसे कह रही हों
बेवकूफ
अभी तक कागज के
मोह में पड़ा हुआ है
लिखा हुआ होने से
क्या होता है
जब से लिखा गया था
तब से अब तक
वैसे का वैसा ही
यहीं एक जगह पर
अड़ा हुआ है
दुनियाँ बदल रही है
किताबों के शीर्षक
सारे के सारे
काम में लाये जा रहे हैं
इधर उधर जहाँ भी
जरूरत पड़ रही है
चिपकाये जा रहे हैं
साहित्य किसी का भी हो
किसी के काम का
नहीं रह गया है
जिसने लिखा है कहा है
उसके नाम को बस
कह देने से ही सब
कुछ हो जा रहा है
जो कहा जा रहा है
आशा की जा रही है
आप की समझ में
अच्छी तरह से
आ जा रहा है
नहीं आ रहा है
कोई बात नहीं
उदाहरण भी यहीं
और अभी का अभी
दिया जा रहा है
जैसे गांंधी पटेल
भगत सिंह
विवेकानंद या
कोई और भी
पुराना आदमी
उसने क्या कहा
कहने की जरूरत
अब नहीं है
उसकी फोटो
दिखा कर
मूर्ति बनाकर
काम शुरु
हो जा रहा है
वही जैसा
हमेशा से
पार्वती पुत्र
गणेश जी
के साथ किया
जा रहा है
सुना है सफाई
कर्मचारियों को
अब कम्प्यूटर
सिखाया
जा रहा है
झाड़ू देने
का काम तो
प्रधानमंत्री से
लेकर अस्पताल
के संत्री को तक
कहीं ना कहीं करना
बहुत जरूरी हो गया है
अखबार से लेकर
टी वी से लेकर
रेडियो सेडियो में
सुबह शाम
के भजनों के
साथ आ रहा है
‘उलूक’
तेरी मति भी
सटक गई है
नहीं होने के
बावजूद भी
पता नहीं
अच्छे खासे
चल रहे देश
के काम में
तू रोज रोज
कुछ ना कुछ
उटपटाँग सा
अपने जैसा
चावल के
कीड़ों की तरह
बीन ला रहा है
किताबों को
रद्दी में बेच
क्यों नहीं देता
सोना नहीं है
जो सोच रहा है
पुरानी होने पर कोई
करोड़पति होने इन्ही
सब से जा रहा है
अब जो जहाँ हो रहा है
होता रहेगा
पुरानी किताबों की जगह
कुछ नई तरह की बातों
का जमाना आ रहा है
कुछ दिन चुपचाप
रहने वाले के और
कुछ दिन शोर
मचाने वाले के
बारी बारी से अब
आया करेंगे
एक झाडू‌ बेचने वाला
सबको बहुत प्यार से
बता रहा है
आज ऐसा
क्यों लिखा तूने
यहाँ पर पूछना
नहीं है मुझसे
क्योंकि मेरी
समझ में भी
कुछ नहीं आ रहा है
और ये भी पता है
इस सब को समझने
को कोई भी नासमझ
यहाँ नहीं आ रहा है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

अभी ये दिख रहा है आगे करो इंतजार क्या और नजर आता है

हमाम
के चित्र 

बाहर
ही बाहर
तक दिखाना
तो समझ
में आता है

पता नहीं
कैमरे वाला
क्यों
किसी दिन
अंदर तक
पहुँच जाता है

कब कौन
सी बात को
कितना
काँट छाँट
कर दिखाता है

सामने बैठे
ईडियट
बाक्स के

ईडियट
‘उलूक’ को
कहाँ कुछ
समझ में
आता है

बहुत बार
बहुत से
झाडुओं
की कहानी

झाडू‌
लगाने वालों
के मुँह से
सुन चुका
होना ही
काफी
नहीं होता है

गजब की
बात होती है
जब झाड़ू
लगाने वाला
झाड़ू लगाने
से पहले
खुद ही कूड़ा
फैलाता है

बहुत
अच्छी तरह
से आती है
कुछ बाते
कभी कभी
समझ में
बेवकूफों
को भी

पर क्या
किया जाये

कुछ
बेवकूफों के
कहने
कहाने पर

बेवकूफ
कह रहा है
क्यों सुनते हो

बात में
दम नजर
नहीं आता है
जैसा ही
कुछ कुछ
कह दिया
जाता है

और
कुछ लोग
कुछ भी नहीं
समझते हैं
या समझना
ही नहीं
चाहते हैं

भेड़ के
रेहड़ के
भेड़ हो
लेते हैं

पता
होता है
उनको
बहुत ही
अच्छी
तरह से

भीड़ की
भगदड़
में मरने
में भी
मजा
आता है

कोई माने
या ना माने
बहुत
बोलने से
कुछ
नहीं भी
होता है

फिर भी
बोलते बोलते

कलाकारी से
एक कलाकार

बहुत सफाई से
मुद्दे चोरों के भी

चुरा चुरा कर
चोरों को ही
बेच जाता है ।

चित्र साभार: imageenvision.com

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

आदमी आदमी का हो सके या ना हो सके एक गधा गधे का नजदीकी जरूर हो जाता है



“अंशुमाली रस्तोगी जी” का
आज 
दैनिक हिन्दुस्तान में छपा लेख 

“इतना सधा हूँ कि सचमुच गधा हूँ” 
पढ़ने के बाद । 

अकेले नहीं
होते हैं आप


महसूस 
करते हैं
और कुछ
नहीं कहते हैं

रिश्तेदारियाँ
घर में ही हों
जरूरी 
नहीं होता है

आपका 
हमशक्ल
हमख्याल 
कहीं और
भी होता है

आपका
बहुत
नजदीकी
रिश्तेदार
भी होता है

बस
आपको ही
पता नहीं
होता है

एक नहीं
कई बार

बहुत
सी बात

यूँ ही
कहने से
रह जाती हैं

सोच की
अंधेरी
कोठरी में

जैसे कहीं
खो जाती हैं

सुनने
समझने
वाला

कोई
कहीं नहीं
होता है

कहने
वाला कहे
भी किससे

कितना
अकेला
अकेला

कभी कभी
एक अकेला
होता है

और
ऐसे में
कभी

अंजाने में
कहीं से

किसी की
एक चिट्ठी
आ जाती है

जिसमें
लिखी
हुई बातें

दिल को
गदगद
कर जाती हैं

कहीं पर
कोई और
भी है

अपना जैसा
अपना
अपना सा

सुन कर
आखों में
कुछ नमी
छा जाती है

‘अंशुमाली’
कहता है

कोई उसे
गधा कहे तो

अब
सहजता
से लेता है

बहुत दिनों
के बाद
गधे की याद

‘उलूक’
को भी
आ जाती है

गधा
सच में
महान है

ये बात
एक बार
फिर से
समझाती है

खुद के
गधे से
होने से

कोई
अकेला नहीं
हो जाता है

और
भी कई
होते हैं गधे

इधर
उधर भी
कई कई
जगहों पर

सुनकर ही
दिल खुश
हो जाता है

बहुतों
के बीच

एक गधा
यहाँ देखा
जाता है

इसका
मतलब
ये नहीं
होता है

कि
दूसरा गधा
दूसरी जगह
कहीं नहीं
पाया जाता है ।

चित्र साभार: www.gograph.com

सोमवार, 3 नवंबर 2014

आज आपके पढ़ने के लिये नहीं लिखा है कुछ भी नहीं है पहले ही बता दिया है

एक छोटी सी बात
छोटी सी कहानी
छोटी सी कविता
छोटी सी गजल

या और कुछ
बहुत छोटा सा

बहुत से लोगों को
लिखना सुनाना
बताना या फिर
दिखाना ही
कह दिया जाये
बहुत ही अच्छी
तरह से आता है

उस छोटे से में ही
पता नहीं कैसे
बहुत कुछ
बहुत ज्यादा घुसाना
बहुत ज्यादा घुमाना
भी साथ साथ
हो पाता है

पर तेरी बीमारी
लाईलाज हो जाती है
जब तू इधर उधर का
यही सब पढ़ने
के लिये चला जाता है

खुद ही देखा कर
खुद ही सोचा कर
खुद ही समझा कर

जब जब तू
खुद लिखता है
और खुद का लिखा
खुद पढ़ता है
तब तक कुछ
नहीं होता है

सब कुछ तुझे
बिना किसी
से कुछ पूछे

बहुत अच्छी तरह

खुद ही समझ में
आ जाता है

और जब भी
किसी दिन तू
किसी दूसरे का
लिखा पढ़ने के लिये
दूसरी जगह
चला जाता है

भटक जाता है
तेरा लिखना
इधर उधर
हो जाता है

तू क्या लिख देता है
तेरी समझ में
खुद नहीं आता है

तो सीखता क्यों नहीं
‘उलूक’

चुपचाप बैठ के
लिख देना कुछ
खुद ही खुद के लिये

और देना नहीं
खबर किसी को भी
लिख देने की
कुछ कहीं भी

और खुद ही
समझ लेना अपने
लिखे को

और फिर
कुछ और लिख देना
बिना भटके बिना सोचे

छोटा लिखने वाले
कितना छोटा भी
लिखते रहें

तुझे खींचते रहना है
जहाँ तक खींच सके
कुत्ते की पूँछ को

तुझे पता ही है
उसे कभी भी
सीधा नहीं होना है

उसके सीधे होने से
तुझे करना भी क्या है
तुझे तो अपना लिखा
अपने आप पढ़ कर
अपने आप
समझ लेना है

तो लगा रह खींचने में
कोई बुराई नहीं है
खींचता रह पूँछ को
और छोड़ना
भी मत कभी

फिर घूम कर
गोल हो जायेगी
तो सीधी नहीं
हो पायेगी ।

चित्र साभार: barkbusterssouthflorida.blogspot.in

रविवार, 2 नवंबर 2014

रात में अपना अखबार छाप सुबह उठ और खुद ही ले बाँच

बहुत अच्छा है
तुझे भी पता है
तू कितना सच्चा है
अपने घर पर कर
जो कुछ भी
करना चाहता है
कर सकता है
अखबार छाप
रात को निकाल
सुबह सवेरे पढ़ डाल
रेडियो स्टेशन बना
खबर नौ बजे सुबह
और नौ बजे
रात को भी सुना
टी वी भी दिखा
सकता है
अपनी खबर को
अपने हिसाब से
काली सफेद या
ईस्टमैन कलर
में दिखा सकता है
बाहर तो सब
सरकार का है
उसके काम हैं
बाकी बचा
सब कुछ
उसके रेडियो
उसके टी वी
उसके और उसी का
अखबार उसी के
हिसाब से ही
बता सकता है
सरकार के आदमी
जगह जगह पर
लगे हुऐ हैं
सब के पास
छोटे बड़े कई तरह
के बिल्ले इफरात
में पड़े हुऐ हैं
किसी की पैंट
किसी की कमीज
पर सिले हुऐं है
थोड़े बहुत
बहुत ज्यादा बड़े
की कैटेगरी में आते हैं
उनके माथे पर
लिखा होता है
उनकी ही तरह के
बाकी लोग बहुत
दूर से भी बिना
दूरबीन के भी
पढ़ ले जाते हैं
ताली बजाने वालों
को ताली बजानी
आती है
ऊपर की मंजिल
खाली होने के
बावजूद छोटी सी
बात कहीं से भी
अंदर नहीं घुस पाती है
ताली बजाने से
काम निकल जाता है
सुबह की खबर में
क्या आता है और
क्या बताया जाता है
ताली बजाने के बाद
की बातों से किसी
को भी इस सब से
मतलब नहीं रह जाता है
‘उलूक’ अभी भी
सीख ले अपनी खबर
अपना अखबार
अपना समाचार
ही अपना हो पाता है
बाकी सब माया मोह है
फालतू में क्यों
हर खबर में तू
अपनी टाँग अढ़ाता है ।

चित्र साभार: clipartcana.com

शनिवार, 1 नवंबर 2014

अपनी मूर्खता पर भी होता है फख्र कभी जब कहीं कुछ इस तरह का लिखा हुआ मिलता है



बहुत अच्छा लगता है
कुछ सुकून सा मिलता है 
वैचारिक रूप से
मूर्ख 
और दिवालिया
किसी का जब किसी के लिये
कहीं पर प्रयोग किया हुआ दिखता है 

कुछ बातें कहीं से शुरु होती हैं
किसी बात को लेकर
और फिर
बातों बातों में ही बात का अपहरण
कर ले जाती हैं

ये एक बहुत बड़ी 
कलाकारी होती है
सबकी समझ में नहीं आती है
और जो समझ लेता है
खुद अपनी ही सोच के जाल में फंसता है

आज के दिन
अपने ही आसपास टटोल कर तो देखिये
फटी हुई जेब की तरह
ज्यादातर का दिमाग इसी तरह से चलता है

सारी सोच 
फटे छेदों से निकल कर गिर चुकी होती है
चलते चलते
और जो निकलता है कुछ
वो कुछ भी नहीं से ही निकलता है

पता नहीं
ये कोई 
पुरानी खानदानी
बीमारी के लक्षण होते हैं
या किसी जमाने में आते पहुँचते
हर रास्ता इसी तरह संकरा
और झाड़ झंकार से भरा भरा सा हो निकलता है

आदत हो जाती है 
आने जाने वाले को
कोई कांटा सिर पर तो कोई पैर के नीचे से
अपने अपने हिस्से का माँस नोच कर निकलता है

खून निकलने की
परवाह किसी को भी नहीं होती है
हर किसी को किसी और का खून
निकलता देख कर बहुत और बहुत ही चैन मिलता है

कहना किसी को 
कुछ नहीं होता है
हर मूर्ख के विचार में
दिवालियापन होता ही है जो
इफरात से झलकता है
फ़ूलता फ़लता है 

‘उलूक’
वैचारिक 
रूप से मूर्ख
और
वैचारिक रूप से दिवालिया
हो चुका 
तू ही अकेला

शायद अपनी सोच की 
इस तारीफ को
लिखा हुआ कहीं पर
पढ़ कर खुश होता हुआ
सीटी बजाता दूसरी ओर को कहीं
दौड़ निकलता है ।

चित्र साभार: imgarcade.com

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

विवेकानन्द जी आपसे कहना जरूरी है बधाई हो उस समय जब आपकी सात लाख की मूर्ति हमने अपने खेत में आज ही लगाई हो

अखबार खरीद कर
रोज घर लाने की
आदत पता नहीं
किस दिन तक
यूँ ही आदत
में शामिल रहेगी
पहले दिन से ही
पता रहती है जबकि
कल किसकी कबर
की खबर और
किस की खबर
की कबर बनेगी
मालूम रहता है
आधा सच हमेशा
आधे पन्ने में
लिख दिया जाता है
वैसे भी पूरी बात
बता देने से
बात में मजा भी
कहाँ रह जाता है
एक पूरी कहानी
होती है
एक मंदिर होता है
और वो किसी
एक देवता के
लिये ही होता है
देवता की खबर
बन चुकी होती है
देवता हनीमून से
नहीं लौटा होता है
मंदिर की भव्यता
के चर्चे से भरें होंगे
अखबार ये बात
अखबार खरीदने
वाले को पता होता है
मंदिर बनने की जगह
टाट से घिरी होती है
और एक पुराना
कैलैण्डर वहाँ
जरूर टंका होता है
वक्तव्य दर वक्तव्य
मंदिर के बारे में भी
और देवता
के बारे में भी
उनके होते हैं
जिनका देवताओं
पर विश्वास कभी
भी नहीं होता है
रसीदें अखबार में
नहीं होती हैं
भुगतान किस को
किया गया है
बताना नहीं होता है
किस की
निविदा होती है
किस को
भुगतान होता है
किस का
कमीशन होता है
किस ने
देखना होता है
कुत्तों की
जीभें होती हैं
बिल्लियों का
रोना होता है
‘उलूक’
तेरी किस्मत है
तुझे तो हमेशा
ही गलियों में
मुहँ छिपा कर
रोना होता है |

चित्र साभार : http://marialombardic.blogspot.com/

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

कभी कुछ भी नहीं होता है कहने के लिये तब भी कुछ कुछ कह दिया जाता है


महीने की
अंतिम साँस लेने की
आवाजें आनी शुरु होती ही हैं
अंतिम सप्ताह के अंतिम दिनों में

और मरता भी है महीना
अठाईस से तीस नहीं भी तो
पक्का सौ प्रतिशत इक्तीस दिनों में

लिखने वाले कई होते हैं
रसोई के
खाली होते जा रहे डिब्बों पर
ध्यान नहीं देते हैं
भूख मर भी जाती है
खाली बीड़ी के बंडल के खोल रह जाते हैं

बीड़ी
धुआँ हो कर हवा में उड़ जाती है
बंडल की राख 
खाली चाय के टूटे कपों की
तलहटी में चिपक जाती है

जितनी बढ़ती है बैचेनी
उतनी कलम पागल होना शुरु हो जाती है

कलम का पागल हो जाना
सबको नजर भी नहीं आता है

ऐसे ऐरे गैरे लिखने वालों के बीच
पागलों का डाक्टर भी नहीं जाता है

एक नहीं कई कई हैं
गली गली में हैं 
मुहल्ले मुहल्ले में जिनके हल्ले हैं

अच्छा है
चिट्ठों के बारे में
उनको कोई नहीं बताता है

‘उलूक’
परेशान मत हो लगा रह
किसी को पता नहीं है
तू यहाँ रोज आता है रोज जाता है

चिट्ठागिरी है
कोई शेयर बाजार नहीं है
लिखने लिखाने का भाव
ना चढ़ता है ना ही कोई उतार पाता है

इधर
राशन खत्म होता है हर महीने
महीना पूरा होने से कुछ दिन पहले ही हमेशा

उधर लिखने वालों के बाजार में
एक शब्द के साथ कई शब्दों को
मुफ्त में दिया जाता है

चिट्ठागिरी है
कोई दादागिरी नहीं है
ज्यादा पता भी नहीं है अभी लोगों को

तब तक
जब तक यहाँ भी
निविदाओं को आमंत्रित नहीं किया जाता है ।

चित्र साभार: juiceteam.wordpress.com

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

दो शादी करने के भी होते हैं फायदे कभी कभी छठ पूजा ने इतना तो समझाया

छठ पूजा
पर खबर
चल रही थी

मतलब
की बात

कुछ भी
नहीं निकल
रही थी

अचानक
सूत्रधार ने
कुछ
ऐसा बताया

कान पहले
दायाँ हिला
फिर बायाँ भी

ऐसा लगा
कुछ नया
सा हाथ में
फिसल कर
चला आया

इतना कुछ
इधर उधर का
लिखा पढ़ा
कहीं कुछ भी
काम में नहीं आया

तब जाकर
कुछ सोच कर
कुछ नया

सीखने
पढ़ने का
मन बनाया

शादी हुऐ
हो गये
इतने बरस

इतनी
छोटी सी
बात पर
ध्यान
नहीं जा पाया

सूर्य देवता
की भी थी
दो पत्नियाँ

किसी भी
पत्नी ने
अपने पति को

इस बात को
पता नहीं
क्यों नहीं बताया

इतनी उर्जा
इतनी शक्ति

कैसे
इस सब
के बाद भी
जमा किया
सूरज अपने में

साथ साथ सारी
सृष्टि में भी
बाँट पाया

कभी भी नहीं
हुआ ऐसा
सुबह किसी दिन
थोड़ा देर से हो
निकल कर आया

महान
देवता सूर्य
और उनकी
महान पत्नियाँ

ऊषा
और प्रत्यूषा
को नमन
करते हुऐ

छठ पूजा के
मौके पर

उलूक
ने भी
सम्मान में
हाथ जोड़ कर
अपना सर झुकाया

शायद
आ जाती हो
शक्ति बहुत
एक के बाद
दूसरी करने पर

ये बात जरूर
इस बात से
समझ पाया

बस केवल
दूसरी करने की
शक्ति और हिम्मत
ही नहीं जुटा पाया

हर पर्व कुछ ना
कुछ समझाता है
कौन बताता है
किसकी समझ में
क्या है आया।



चित्र साभार:
www.royalty-free-clip-art-of.com

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

आये आये देर से भी आये तो भी दुरुस्त ही आये आये तो सही चाहे कुछ भी ना कह जाये



अभी भी देर नहीं हुई 
देर कभी भी नहीं होती 
जब भी समझ में आ जाये तभी सुबह हो जाये 

पर
रुका कहाँ कहाँ जाये 
किसके लिये रुका जाये 

कहाँ
जरूरी है चलते चलना 

कहाँ
जरूरी है कुछ कुछ रुकना 
कुछ देर के लिये ही सही
बस बिना बात यूँ ही ठहर लिया जाये 

पूछा भी
किससे जाये कौन सही बताये 
कई पीढ़ियाँ
सामने ही अपने गुजरती चली जायें 

रुकी हुई कहीं भी कोई भी नहीं जो रस्ता दिखाये 

सब कुछ चलता ही चला जाये 
चलना ही सही रुकना है नहीं
किताब में भी लिखा नजर आये 
गिरता भी है कहीं कोई
किसी रास्ते पर कहीं कोई नहीं बताये 

फलसफा जिंदगी का
एक खोटा सिक्का
कभी सीधा गिरे कभी उल्टा हो जाये 

गलतफहमियाँ बनी रहें
जिसका जैसा मन कर वैसा समझ ले जाये 

कोई
उधर जा कर उसका पढ़े
कोई
इधर आ कर इधर का पढ़ ले जाये 

क्या फर्क पढ़ना है
किसी की समझ में अगर कुछ भी ना आ पाये 

आना जाना बना रहे
रोज ना भी सही दो चार दिन बाद ही आ जाये 
रुकना मना है

आ जाये अगर
तो याद करके बिना भूले भटके
चला भी जाये । 

चित्र साभार: www.instantfundas.com

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

दिमाग का भार याद रख और दिल का हलका फूल मत भूल

अपने
भारी हो गये
सिर को

हलका
करने के लिये


अच्छा
रास्ता है
रास्ते पर
ला कर
रख देना

बेकार
पड़े हुऐ
पत्थर की तरह

आने जाने
वालों के
देखने समझने
के लिये

और
कुछ के ठोकर
खाने के लिये भी

सब
करते हैं
अपने अपने
हिसाब से

कुछ
के छोटे मोटे कंकड़

कुछ
के थोड़े बड़े

कुछ
के तेरे
जैसे अझेल

अब
किया
क्या जाये

माना कि
जरूरी होता है

बोझ
कम कर लेना
थोड़ा थोड़ा ही सही
पूरा का पूरा नहीं भी

पर
कभी कभी
दूसरों के
बारे में भी
सोच लेना

इंसानियत
का एक नियम
तो होता ही है

माना कि
गंगा साफ
कर लेने
की सोच लेना
सबके बस में
नहीं होता है

फिर भी
अपने घर
की नालियाँ
और उसके
बहाव को
बाधित करते

कचरे के
टुकड़े मुकड़े
उठा कर
किनारे
रख लेना भी

नियम
में ही आता है

छोटा ही सही
च्यूइंगम को
खींच कर लम्बा
कर दिया हो तो
वापस
मुँह की ओर भी
ले जा लेना
कभी कभी
सही होता है

यानि कि
सिर पर
भार लेना भी ठीक

और उसे
कभी अपनी जगह
पर रहने देकर

दिल की भी
एक छोटी सी बात
कर लेने में भी

कोई
हर्ज नहीं है

है ना ।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

कहीं कोई किसी को नहीं रोकता है चाँद भी क्या पता कुछ ऐसा ही सोचता है

भाई अब चाँद
तेरे कहने से
अपना रास्ता
तो बदलेगा नहीं
वहीं से निकलेगा
जहाँ से निकलता है
वहीं जा कर डूबेगा
जहाँ रोज जा
कर डूबता है
और वैसे भी
तू इस तरह से
सोचता भी क्यों है
जैसा कहीं भी
नहीं होता है
रोज देखता है
आसमान के
तारों को
उसी तरह
टिमटिमातें हैं
फिर भी तुझे
चैन नहीं
दूसरी रात
फिर आ जाता है
छत पर ये सोच कर
कि तारे आज
आसमान के
किनारे पर कहीं होंगे
कहीं किनारे किनारे
और पूरा आसमान
खाली हो गया होगा
साफ साफ दिख
रहा होगा जैसे
तैयार किया गया हो
एक मैदान कबड्डी
के खेल के लिये
फिर भी सोचना
अपने हिसाब से
बुरा नहीं होता है
ऐसा कुछ
होने की सोच लेना
जिसका होना
बहुत मुश्किल भी
अगर होता है
सोचा कर
क्या पता किसी दिन
हो जाये ऐसा ही कुछ
चाँद आसमान का
उतर आये जमीन पर
तारों के साथ
और मिलाये कहीं
भीड़ के बीच से
तुझे ढूँढ कर
तुझसे हाथ
और मजाक मजाक
में कह ले जाये
चल आज से तू
चाँद बन जा
जा आसमान में
तारों के साथ
कहीं दूर जा
कर निकल जा
आज से उजाला
जमीन का जमीन
के लिये काम आयेगा
आसमान का मूड
भी कुछ बदला
हुआ देख कर
हलका हो जायेगा ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

आशा का एक दिया जलाना है जरूरी सोच में ही जलायेंगे

एक ही सच
से हट कर
कभी सोचें
कुछ देर के
लिये ही सही
जरूरी है
सोचना
एक दिया
और उससे
बिखरती रोशनी
अपने ही
अंदर कहीं
पालना और
बचाना भी
सोच की ही
हवा के थपेड़ों से
बहुत सारे हों
बहुत रोशनी हो
जरूरी नहीं है
एक ही हो
छोटा सा ही हो
मिट्टी से बना
ना भी हो
तेल भी नहीं
और बाती
भी नहीं हो
बस जलता
हुआ हो
सोच की
ही लौ से
सोच की ही
रोशनी हो
जरूरी है
झूठ से भरे
बाहर के दिये
बेचते हुऐ
रोशनी हर जगह
दीपावली आयेगी
दीपावली जायेगी
बाजार दीपों
के जलेंगे
रोशनी के लिये
रोशनी में ही
रोशनी से बिकेंगे
समेट कर रोशनी
के धन को कुछ
रोशनी से
चमक उठेंगे
रोशनी सिमट जायेगी
रोशनी में ही कहीं
कुछ देर में ही
दिये भी समेटे जायेंगे
बहुत जरूरी है
दिया अंतर्मन का
जला रहना
अगले साल की
दीपावली में
नहीं तो शायद
दिये जलाना भी
क्या पता
भूल जायेंगे
दिया एक
सोच का
सोच में जला
रहना जरूरी है बहुत
जलायेंगे तो ही
समझ पायेंगे ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

दीपावली हो गई उस पर कुछ शब्द लिखने को कहा गया ‘उलूक’ से आदतन ऐसा वैसा ही कुछ कहा गया

कान फोड़ शोर
ऐसा क्या हो गया
एक दिन अगर
रात भर रोता
भी रहा मोर
 तेज रोशनी में
शर्माते रहे गरीब
कुछ मिट्टी के दिये
 किसने कहा था
पहुँच जायें
बिन बुलाये मेहमान
की तरह एक बड़े शहर
बिना कुछ पिये
नींद नहीं आई रात भर
बहुत देर में हुई जैसे भोर
मगर सपने दिखे
बहुत दिखे और
दिखे घनघोर
 घमासान युद्ध
का आभास हुआ
हर तरफ था
दम घोंटता हुआ धुआँ
बंद होती लगी
एक बूढ़े बीमार
को अपनी साँस
पता भी नहीं चला
किसी को रात भर
रहा है कोई बगल
के मकान में खाँस
गायब हो चुकी
नींद रात भर
के लिये खुद ही
खोज रही हो जैसे
कहीं शांत दो चार आँख
सोने के लिये
पल भर के लिये
डरे हुऐ पक्षी
और जानवर
देर से उठा सूरज
भी जैसे पूछ रहा हो
ठीक ठाक तो
हो ना आप
मान्यवर
लक्ष्मी बम पर
चिपके हुऐ
लक्ष्मी के चित्र
फूटते रहे रातभर
उड़ती रही लक्ष्मी
भी टुकड़े टुकड़े होकर
दीपावली मंगलमयी
रही हमेशा रहती है
अखबार में रहती है
हमेशा कुछ
अच्छी खबर और
दूरदर्शन पर
अच्छी बात की
अच्छी रिपोर्टिंग
भी होती है
‘उलूक’ की आदत है
अच्छी बात की
जेब में भी
कुछ ना कुछ बुरा
संभालना
उससे पूछ्ते
ही क्यों हैं
पता होता है जब
उसको आता ही है
बस कुछ में से
कुछ नहीं हमेशा
निकालना ।

चित्र सभार गूगल




गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

जलते हुऐ दिये को पड़ गये कुछ सोच देख कर बहुत सारी अपने आस पास एक दिन रोशनियाँ

एक किनारे में
खड़ा एक भीड़ के
देखता हुआ
अपनी ही जैसे
एक नहीं कई
प्रतिलिपियाँ
और आस पास ही
उसी क्षण कहीं
खुल रही हों कई
सालों से बंद
पड़ी कुछ
खिड़कियाँ
कुछ कुछ सपने
जैसे ही कुछ
कुछ सामने
से ही उड़ती
हुई रंगबिरंगी
तितलियाँ
रोज तो दिखते
नहीं कभी
इस तरह के
दृश्य सामने से
एक सच की तरह
चिकोटी काट कर
हाथ में ही अपने
खुद के देख
रही थी उंगलिया
इसी तरह खड़ा
सोच में पड़ा
बहुत देर से
समझने के लिये
आखिर क्यों
हूँ यहाँ
किसलिये
किसके लिये
पूछ बैठा यूँ ही
बगल के ही
किसी से
अपने ही जैसे से
मुस्कुराहट
चेहरे पर लिये
बिखरते हुऐ
हँसी जैसे मोती
बिखर रहे हों
कहीं से कहीं
अरे सच में नहीं
जानते क्या
खुद को भी नहीं
पहचानते क्या
हम ही तो दिये हैं
 रोशनी के लिये हैं
आओ चले साथ
साथ एक ही दिन
यूँ ही जलें साथ
साथ एक ही दिन
रोशन करें
सारे जहाँ को
बाँटते चलें
जरूरत की सबको
सबके लिये
कुछ रोशनियाँ
कहाँ खुलती हैं रोज
खुली हैं आज
चारों ही तरफ
कुछ बंद खिड़कियाँ
दिये हैं हम
दिये हो तुम
दिये के खुद के लिये
जरूरी भी नहीं
होती हैं रोशनियाँ ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

दीप जलायें सोच में आशा की रोशनी के परेशानियों को उड़ायें मौज में हजूर इस बार

रोशनी का
त्यौहार
विज्ञापनों से
पटे हुऐ अखबार
दुकाने सजी हुई
भरा हुआ बाजार
सब कुछ पहुँच में
खाली जेबों
के बावजूद
खरीदने में लगा
सब कुछ
खरीददार
मोबाइल में
संदेशों की
भरमार
गली गली
खुले बैंक
पैदल चलने
में लगे कुछ
बेवकूफ
सड़कें पटी
गाड़ियों से
आसानी से
मिले घर
पर ही उधार
दुकान और
बाजार से अलग
आकर्षक सुंदर
और खीँचता
अपनी तरफ
डॉट काम का
कारोबार
मँगा लीजिये
कुछ भी कहीं भी
घर बैठे बैठे
जरूरत नहीं
भेज दीजिये
बटुऐ को
तड़ी पार
तेज रोशनी
सस्ते दीप
विज्ञान का
चमत्कार
मेड इन चाईना
प्रयोग कीजिये
फिर फेंक दीजिये
कूड़े की चिंता
दिमाग से कर
दीजिये बाहर
झाडू‌ लेकर
टाई कोट वाले
भी खड़े हैं
नहीं होते शर्मसार
मेक इन इँडिया
आँदोलन करने
के लिये रहें तैयार
स्वदेशी खरीदने
का हल्ला मचायें
जलूस निकाले
हर जगह बार बार
रोशनी सरसों के
तेल से भरे दीपों
की सोच में लायें
शाँति और सुख
की आशा से
रहें सरोबार
कथनी और करनी
के अंतर को
आत्मसात
कर लेने के
जतन करें
एक हजार
दीपावली मौज
में मनायें सरकार
शुभकामनाऐं
सभी को
ढेर सारी
मित्रों सहित
सपरिवार ।
चित्र साभार: http://www.shutterstock.com

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

ये सब चंद्रमा सुना है कराता है एक ही चीज को दिखा कर एक को कवि एक को पागल बनाता है




आदरणीय देवेंद्र पाण्डेय जी ने कहा,

“आप के लेखन की निरंतरता प्रभावित करती है” 

और
ठीक उसी समय 
कहीं लिखा देखा 

आदरणीय ज्योतिष सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी जी कह रहे हैं :-

“एक होता है साहित्‍यकार और एक होती है साहित्‍य की दुकान। अब चूंकि मैं ज्‍योतिषी हूं तो ज्‍योतिष की बात भी कर लेते हैं। साहित्‍यकारों में एक होते हैं कवि, मैंने आमतौर पर कवियों का चंद्रमा खराब ही देखा है। बारहवें भाव में चंद्रमा हो तो जातक एक कॉपी छिपाकर रखता है, जिसमें कविताएं भी लिखता है”। 

मुझे भी महसूस हुआ 
कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है ? 
आप का चंद्रमा कहाँ है 
आपने कभी देखा है ? 
*******************

कोशिश
बहुत होती है 
हाथ रोकने की 
कि
ना लिखा जाये 

इस तरह 
रोज का रोज 

सब कुछ 
और
कुछ भी 
पर

चंद्रमा का 
मुझको कुछ 
पता नहीं था 

किसी ने
समझाया 
भी
नहीं था कभी 

ना ही मेरे 
चंद्रमा को ही 

वो तो अच्छा रहा 
जब देख बैठा 
मैं भी
भाव उसका 
बारहवें भाव पर 
तो नहीं था 

ना ही नजर थी 
उसकी उस भाव पर 
जहाँ होने से ही 
कोई कवि हो 
बैठता था 

वैसे
होता भी कैसे 
मेरे खानदान 
में तक जब कोई 
कवि कभी भी 
पैदा नहीं हुआ था 

छिपा कर रखी हो 
कहीं कोई कापी 
किसी ने कभी भी 
ऐसा भी नहीं था 

हाँ दुकान एक 
जरूर
पता नहीं 
कब और कैसे 
किस जुनून में 
खोल बैठा था 

वैसे
किसी ने 
बेचने के लिये भी 
कभी कुछ 
नहीं कहा था 

बेच भी नहीं पाया 
कुछ भी किसी को 

ग्राहक
कोई भी 
कहीं भी कभी भी 
मिला ही नहीं था 

अच्छा हुआ 
चंद्रमा बाराहवाँ 
जो नहीं था 

उसे भी पता था 
मुझे कभी भी 
कवि होना नहीं था 

पागल
होने ना होने 
का पता नहीं था 

ज्योतिष ने 
सब कुछ
भी तो 
कह देना नहीं था । 

चित्र साभार: http://www.picturesof.net

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

जलायें दिये पर रहे ध्यान इतना कूड़ा धरा का कहीं बच ना पाये

दीपावली का
त्योहार
शुरु हो चुका है
चिंताऐं अब
उतनी नहीं हैं
जगह जगह
पहले से ही
रोशनी है
आतिशबाजी
हो चुकी है
कहीं कोई
धुआँ नहीं है
पर्यावरण
अपनी हिफाजत
खुद कर रहा है
उसको भी
पहले से ही
सब कुछ पता है
लक्ष्मी नारायण
भी बहुत व्यस्त
नजर आ रहे हैं
धन के रंग को
बदलने का
इंतजाम कुछ
करवा रहे हैं
सफेद सारे
एक जगह पर
और काले को
दूसरी जगह पर
धुलवा रहे हैं
काले और सफेद
पैसे का भेद भाव
भी अब नहीं
रह गया है
इस दीपावली पर
एक नया संशोधन
ऊपर से ही
बनवा कर
भिजवा रहे हैं
मुद्दों की बात
करना भी बेमानी
होने जा रहा है
समस्याओं को
समस्याओं का
ही जल्लाद
अपनी ही रस्सी से
फाँसी लगा रहा है
श्रीमती जी
बहुत खुश हैं
उनकी राशन की
दुकान की पर्ची
‘उलूक’
भिजवा रहा है
खाने पीने के
सामान कम लिखे
नजर आ रहे हैं
दर्जन भर झाड़ू
थोक में मंगवा रहा है
दीये इस बार
लेने की जरूरत
नहीं पड़ेगी
एक झाड़ू के साथ
बाराह दीये
कम्पनी का आदमी
अपनी ओर से
भिजवा रहा है ।

चित्र साभार: गूगल क्लिप आर्ट ।

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

अंधेरा ही उजाले का फायदा अब उठाता है

अंधेरा
बहुत
खुश है

पहचानता है

रोशनी
के त्यौहार
के कदमों
की आहट को

समय
के साथ
बदल लेनी
चाहिये सोच

ऐसा कहा
जाता है

और
सोचने
वाला
सोचता ही
रह जाता है

अपनी
सोच को
समय की सोच से

आगे
पीछे करने
के फेर में
सब कुछ

वहीं
रह जाता है
जहाँ होता है

इस
सब के बीच

अंधेरा
बदल लेता है
खुद को भी

और बदलता
चला जाता है
सोच को भी अपनी

अब
अंधेरा
डरता नहीं है

उजाले
से भागता
भी नहीं है

अंधेरे
ने सीख
लिया है
जीना

और
कर लेना
समझौता
हालात से

अंधेरा
अब खुद
दीपावली
मनाता है

दिये
जलाता है
रोशनी होती है
चारों तरफ

अंधेरा
छुपा लेता
है खुद को

और
मदद
करती है
रोशनी भी
उसको
बचाने के लिये

जाला
नहीं सीख पाया
टिकना अभी भी

आता है
और
चला जाता है

अंधेरा
मजबूती से
अपनी जगह को
दिन पर दिन
मजबूत कर
ले जाता है

बदल
चुका है
अपनी सोच को
समय के साथ

और आज

अंधेरा
सबसे पहले
दिया जलाता है ।

चित्र साभार: http://srilankabrief.blogspot.in

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

घोड़े घोड़े होते हैं गधे गधे होते हैं मुद्दे तो मुद्दे होते हैं वो ना घोड़े होते हैं ना गधे होते हैं


घोड़ों ‌
के पास 
भी दिमाग 
होता है या नहीं 

ऐसा
ही कुछ 
सोच में आया 
उस समय

जब 
किसी दिन

एक 
मुद्दा लिखने
के 
लिये
सोचने 
का
मन बनाया 

अब
सोच में 
क्या
किस 
के
आता है 

कौन
सा कोई 
जा कर 
घोड़ों को
बताता है 

घोड़े
ज्यादातर 
बहुत शांत
स्वभाव 
के
समझे जाते हैं 

शायद
इसी कारण 
बहुत से लोग 
घोड़ों पर
चढ़ते 
चले जाते हैं 

घोड़े भी
प्रतिकार 
नहीं करते हैं 

सवार को
उस के 
मनमाफिक 
सवारी कराते हैं 

घोड़ों
का जिक्र 
हमेशा सम्मान से
किया जाता है 

घोड़ा है
कहते ही 

सामने वाला 
कुछ नजर
कुछ 
गर्दन
अपनी 
झुकाता है 

घोड़े
कभी भी 
किसी भी मुद्दे पर 
कुछ भी नहीं 
कहना चाहते हैं 

घोड़ों
के बीच के 
गधे हमेशा 
इस बात का 
फायदा उठाते हैं 

घोड़े
ज्यादा 
भी होते हैं 
फिर भी कुछ 
नहीं होता है 

दो चार गधे 
बीच में 
घोड़ागिरी 
सीख जाते हैं 

घोड़ों के
अस्तबल 
के
समाचार

रोज 
ही
अखबार वाले 
फोटो के साथ 
लेकर जाते हैं 

अखबार में
फोटो 
छपती है 

गधे ही गधे 
नजर आते हैं 

वक्तव्य
घोड़ों की 
सेहत के बारे 
में छपता है 

गधों के
हाथ में 
आले
नजर आते हैं 

घोड़ों
के बारे में 
सोच कर
लिखने 
की
सोच बैठता है 
जिस दिन भी
‘उलूक’ 

गधे
पता नहीं 
कैसे

मुद्दा 
चोर ले जाते हैं 

घोड़ों के पास 
दिमाग होता है 
या नहीं 
महत्वपूर्ण बात 
नहीं हो पाती है 

जब
हर जगह 
घोड़ों की
सरकारें 

दो चार गधे 
मिल कर
चलाते हैं । 

चित्र साभार: http://vecto.rs

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

जब नहीं दिखता है एक ‘ब्लागर’ कभी दूसरे ‘ब्लागर’ को बहुत दिनों तक

होता कुछ नहीं है वैसे
जब नहीं दिखता है
एक ब्लागर को
एक दूसरा ब्लागर यहाँ
जो दिखा करता था
कभी रोज ही
आता और जाता हुआ
यहाँ से वहाँ
और वहाँ से यहाँ
आना और जाना
तो चलता रहता है
इसका और उसके
शब्दों का वहाँ से यहाँ
और यहाँ से वहाँ
एक रोज आता जाता है
एक कभी आता है
एक कभी जाता है
रोज आने जाने
वाले को रोज
आने जाने वालों से
कोई परेशानी
नहीं होती है
परेशानी तब होती है
जब एक रोज
आने जाने वाला
अपने अगल बगल से
रोज आते जाते हुऐ को
बहुत दिनों से
आता हुआ नहीं
देख पाता है
दिन गुजरते हैं
रास्ते में कहीं पर
एक पुराना दिखता है
कहीं एक पुराने
के साथ एक
नया बिकता है
कहीं दो नयों के संग
एक पुराना दिखता है
ढूँढना चाहने वाले
ढूँढते भी हैं
एक का निशान
दूसरे के घर मिलता है
दूसरा किसी तीसरे
के घर कुछ ना कुछ
छोड़ कर चलता बनता है
अब लिखने लिखाने
की दुनियाँ है
यहाँ रोज एक नया
रिवाज कोई ना कोई
कहीं ना कहीं सिलता है
बहुत से नये दरवाजे
बंद होने से शुरु होते हैं
कहीं बहुत पुराना
दरवाजा भी
बहुत दिनों के
बाद खुलता है
याद आती है कभी
किसी की
दिखा करता था
अपने ही आस पास
रोज ही कहीं ना कहीं
बहुत दिनों से
कोई खबर ना कोई
पता मिलता है
देखिये और
ढूँढिये तो कहीं
कहाँ हैं जनाब
आजकल आप
आप ही को
ढूँढने के लिये
‘उलूक’ संदेश
एक लेकर कुछ यूँ
शब्दों के बियाबान
में निकलता है
होता कुछ नहीं है
वैसे जब कई कई
दिनों तक भी
एक ब्लागर को
एक दूसरे ब्लागर
का पता नहीं
भी चलता है ।

चित्र साभार: http://dlisted.com/