उलूक टाइम्स

बुधवार, 20 सितंबर 2017

इज्जत मत उतारिये ‘उलूक’ की बात कर साहित्य और साहित्यकारों की समझिये जरा वो बस अपनी उल्टियाँ लिख रहा है

ना धूल दिख
रही है कहीं
ना धुआँ ही
दिख रहा है
एक बेवकूफ
कह रहा है
साँस नहीं
ली जाती है
और दम
घुट रहा है


हर कोई
खुश है
खुशी से
लबालब है
सरोबार
दिख रहा है

इतनी खुशी है
सम्भलना ही
उनका मुश्किल
दिख रहा है

हर कदम
बहक रहा है
बस एक दो
का नहीं
पूरा शहर
दिख रहा है

देखने वाले
की मुसीबत है
कोई पूछ ले उससे
तू पिया हुआ सा
नहीं दिख रहा है

कोई नहीं
समझ रहा है
ऐसा हर कोई
कह रहा है

अपने अपने चूल्हे हैं
अपनी अपनी आग है
हर कहने वाला
मौका देख  कर
अपनी सेक रहा है

‘उलूक’
देख रहा है
कोई नहीं
जानता है उसको
और उसकी
बकवास को
उसकी तस्वीर
का जनाजा
अभी तक कहीं
नहीं निकल रहा है

क्या कहें दूर
कहीं बैठे
साहित्यकारों से
जो कह रहे हैं
किसी से
मिलने का
दिल कर रहा है

हर शाख पर बैठे
उल्लू के प्रतीक
उलूक को
सम्मानित करने
वाली जनता

‘उलूक’
उल्लू का पट्ठा
कौड़ियों के
मोल का
अपने शहर का

बाहर कहीं
लग रहा है
गलतफहमी में
शायद कुछ
ज्यादा ही
बिक रहा है ।

चित्र साभार:
twodropsofink.com

रविवार, 17 सितंबर 2017

इतना दिखा कर उसको ना पकाया करो कभी खुद को भी अपने साथ लाया करो

अपना भी
चेहरा कभी
ले कर के
आया करो


अपनी भी
कोई एक
बात कभी
आकर
बताया करो

पहचान चेहरे
की चेहरे से
होती है हजूर

एक जोकर को
इतना तो ना
दिखाया करो

बहुत कुछ
कहने को
होता है पास में
खुशी में भी
उतना ही
जितना उदास में

खूबसूरत हैं आप
आप की बातें भी
अपने आईने में
चिपकी तस्वीर
किसी दिन
हटाया करो

खिलौनों से
खेल लेना
जिन्दगी भर
के लिये
कोई कर ले
इस से अच्छा
कुछ भी नहीं
करने के लिये

किसी के
खिलौनों
की भीड़ में
खिलौना हो
खो ना
जाया करो

कहानियाँ
नहीं होती हैं
‘उलूक’ की
बकबक

बहके हुऐ
को ना
बहकाया करो

उसकी बातों
में अपना घर
इतना ना
दिखवाया करो

अपनी ही
आँखों से
अपना घर
देख कर के
आया करो।

चित्र साभार: CoolCLIPS.com

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

अभी अभी पैदा हुआ है बहुत जरुरी है बच्चा दिखाना जरूरी है

जब भी तू
समझाने की
कोशिश करता है
दो और दो चार

कोई भाव
नहीं देता है
सब ही कह देते हैं
दूर से ही नमस्कार

जमाने की नब्ज में
बैठ कर जिस दिन
शुरु करता है तू
शब्दों के
साथ व्यभिचार

जयजयकार गूँजती
है चारों ओर
और समझ में
आना शुरु होता है
उसी क्षण से व्यवहार।

बदलना चाहता है कोई अगर कुछ उसके बदलने से पहले बदलने को ही बदल दो

इससे पहले
कोई समझले
क्या कह
दिया है
विषय ही
बदल दो

समय
रुकता नहीं है
सब जानते हैं
समझते नहीं हैं
मौका देखकर
समय को
ही बदल दो

शातिर कभी
खून
करता नहीं है
खून ही
बदल देता है
सीख लो अगर
सीख सको
मत करो खून
बस खून
ही बदल दो

समय
सिखाता है
परिवर्तन भी
लाता है

सुपारी
देने वाले
बेवकूफ
होते हैं

सुधारवादी
बैठे बैठे
सामने वालों का
बिना कुछ कहे
खून सुखाता है

जरूरी है
कत्ल कर देना
सम्वेदनाओं का

बहुत वेदना देती हैं

सामने सामने
आँखों आँखों में
कह भी
दिया जाता है

कितना
बेवकूफ होता है
मार खाता है
फिर भी अपनों
के पास फिर से
सुखाने
चला आता है

उसका देखना
ही बदल दो

बहुत ही
अपना होता है
पुचकारता
चला जाता है
फाँसी कभी
नहीं होने देगा
खड़े खड़े
समझाता है

लटका दिया
गया है जमीर
‘उलूक’
उसका
बिना पूछे
किसी से

अखबार का
एक समाचार
सुबह का
ये बताता है

अखबार का
कुछ नहीं
कर पायेगा
कहीं कुछ भी
पता होता है

बदल दो कुछ

कोई रस्सी
ही सही
रस्सी
बदल दो ।

चित्र साभार: Dreamstime.com

बुधवार, 13 सितंबर 2017

हजार के ऊपर दो सौ पचास हो गये बहुत हो गया करने के लिये तो और भी काम हैं

कुछ रोज के
दिखने से
परेशान हैं
कुछ रोज के
लिखने से
परेशान हैं
गली से शहर
तक के सारे
आवारा कुत्ते
एक दूसरे
की जान हैं

किस ने
लिखनी हैं
सारी
अजीब बातें
दिल खोल कर
छोटे दिल की
थोड़ा सा
लिख देने से
बड़े दिल
वाले हैरान हैं

बकरियाँ
कर गयी हैं
कल से तौबा
घास खाने से
खड़ी कर अपनी
पिछली टाँगे
एक एक की
एक नहीं कई हैं
घर में ही हैं
खुद की ही हैं
घास की दुकान हैं

पढ़ना लिखे को
समझना लिखे को
पढ़कर समझकर
कहना किसी को
नयी बात कुछ
भी नहीं है इसमें
आज की आदत है
आदत बहुत आम है

 कोई
शक नहीं
‘उलूक’
सूचना मिले
घर की दीवारों
पर चिपकी
किसी दिन
शेर लिखना
उल्लुओं का नहीं
शायरों का काम है ।

 चित्र साभार: Fotosearch

शनिवार, 9 सितंबर 2017

किस बात की शर्म जमावड़े में शरीफों के शरीफों के नजर आने में



किस लिये चौंकना मक्खियों के मधुमक्खी हो जाने में
सीखना जरूरी है बहुत कलाकारी कलाकारों से उन्हीं के पैमानों में

किताबें ही किसलिये दिखें हाथ में पढ़ने वालों के
जरूरी नहीं है नशा बिकना बस केवल मयखाने में

शहर में हो रही गुफ्तगू पर कान देने से क्या फायदा
बैठ कर देखा किया कर घर पर ही हो रहे मुजरे जमाने में

दुश्मनों की दुआयें साथ लेना जरूरी है बहुत
दोस्त मशगूल हों जिस समय हवा बदलवाने की निविदा खुलवाने में

‘उलूक’ सिरफिरों को बात बुरी लगती है
शरीफों की भीड़ लगी होती है जिस बात को शरीफों को शराफत से समझाने में ।

चित्र साभार: Prayer A to Z

बुधवार, 6 सितंबर 2017

आभार गौरी लंकेश जानवरों के लिये मरने के लिये

बहुत परेशान
रहते हैं लोग
जो चिट्ठाकारी
नहीं समझते हैं

लेकिन चिट्ठा
लेखन
करने वाले
पर मिलकर
बहस करते हैं

पड़ोसी का
खरीदा हुआ
अखबार माँग
कर पढ़ने
वाले लोग
महीने के
सौ दो सो
बचा कर
बहुत कुछ
बाँचने का
दावा करते हैं

शहर के लोग
ना चिट्ठी
जानते हैं
ना चिट्ठों से ही
उनका कोई
लेना देना है

उनकी
परेशानी है
अखबार में
आने से
रोक दी
जा रही
खबरों से
जो कहीं कहीं
चिट्ठों में कुछ
गैर सरकारी
लोग लिख
ले जाते हैं
गौरी लंकेश
हो जाते हैं
गोली खाते हैं
मर जाते हैं

गौरी लंकेश
एक बहाना है
लोग रोज
मर रहे हैं
लिखने
वाले नहीं
वो लोग
जिनको पता है
वो क्या कर रहे हैं

शहर छोड़िये
पूरे राज्य में
कितने
चिट्ठाकार हैं
जरा गिनिये
जरूरी है
आप लोगों
के लिये गिनना

कल
कितने लोगों
को गोली
खानी है
कितने लोगों
ने मरना है

कितने
लोगों को
बस यूँ ही
किसी झाड़
झंकार के
पीछे मरी हुई
एक लाश हो
कर तरना है

कितनों
के नाम
मजबूरी में
अखबार में
छापे जायेंगे

‘उलूक’
‘गौरी लंकेश’
हो जाना
सौभाग्य की
बात है
तुझे पता है
सारे पूँछ
कटे कुत्ते
पूँछ कटे
कुत्ते के
पीछे ही
 जाकर
अपनी
कटी पूँँछ
बाद में
छुपायेंगे।

चित्र साभार: Asianet Newsable

सोमवार, 4 सितंबर 2017

रोज के रास्ते से रोज का आना रोज का जाना बीच में टपके उत्सव की शुभकामना

अपनी
ही गलियाँ
रोज का आना
रोज का जाना
दीवारों से दोस्ती
सीढ़ियों का
जूतों को
अपनाना

पहचाने हुऐ से
केलों के कुछ
शरमाते हुए से
जमीन पर
गिरे छिलकों
का याद दिलाना
बचपन के स्कूल
के श्यामपट पर
लिखा हुआ बनाना

नाली में फंसे
पॉलीथिन के
अवशेषों से
टकरा कर
फौव्वारे पर
एक इंद्रधनुष
का बन जाना

आदत में
शामिल हो
चुकी सीवर
की महक का
भीनी भीनी सी
सुगन्ध हो जाना

महीने भर से
चल रहे
गली के छोर
पर गणेशोत्सव
के ऊँची आवाज
में सुबह उठाते
रात को जगाते
सुरीले भजनो
का लोरी हो जाना

आस्था के
सैलाब से
ओतप्रोत
बिना हवा चले
झूमते पेड़ पौंधे
जैसे मयखाने से
अभी निकल कर
आया हो दीवाना

मूल्यों की
टोकरियों के
बोझ उठाये
टीका लगाये
झंडा बरदारों
का नजरोंं
नजरों में
नागरिकता
समझाना

व्यवहार
नमस्कार
बदलती
आबोहवा में
बहुत खुश
नहीं भी हों
जरूरी है दिखाना

जमाने की रस्में
कम से कम
अपने ही
कर्मोत्सव के दिन
‘उलूक’ की
सिक्का खड़ा
कर हैड टेल
करने की फितूरों
से ध्यान हटाना

झंडे वालों को
झंडे वालों की
बिना झंडे
वालों को
बिना झंडे
वालों की
मिलें इस
दिवस की
शुभकामना।

गुरुवार, 31 अगस्त 2017

कभी तो छोड़ दिया कर ‘उलूक’ हवा हवा में हवा बना कर हवा दे जाना




किसी की मजबूरी होती है
अन्दर की बात लाकर
बाहर के अंधों को दिखाना
बहरों को सुनाना

और
बेजुबानों को
बात को बार बार कई बार
बोलने बतियाने के लिये
उकसाना

सबके बस में भी
नहीं होती है

झोले में कौए रख कर
रोज की कबूतर बाजी

हर कोई नहीं कर सकता है

भागते हुऐ शब्दों को
लंगोट पहना पहना कर
मैदान में दौड़ा ले जाना

कुछ कलाकार होते हैं
माहिर होते हैं

जानते हैं शब्दों को बाँध कर
उल्लू की भाँति
अंधेरे आकाश में
बिना लालटेन बांधे
उड़ा ले जाना

सुना है
कहीं किसी हकीम लुकमान ने
अपने बिना लिखे नुस्खे
में कहा है

अच्छा नहीं होता है
पत्थरों पर 
कुछ भी लिख लिखा कर
 सबूत दे जाना

देख सुन कर तो
कभी किसी दिन
समझ लिया कर
‘उलूक’

अन्दर की बात का
बाहर निकलते निकलते
हवा हवा में हवा होकर
हवा हो जाना।

चित्र साभार: www.clker.com

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

राम और रहीम को एक साथ श्रद्धाँजलि देने का इस से अच्छा मौका कब और कहाँ मिल पाता है

जब भी
शुरु किया
जाता है
सोचना
कुछ
लिखने
के लिये
सोच बन्द
हो जाती है
कुछ लिखा
ही नहीं जाता है


आँख कान नाक
बन्द किये हुऐ
गाँधी के
बन्दरों का चेहरा
सामने से चिढ़ाता
हुआ नजर आता है

दुकान खोलने
के बाद कुछ
बिके ना बिके
बेचने की
कोशिश करना
दुकानदार की
मजबूरी हो जाता है

ग्राहक
इस बाजार में
वैसे भी बहुत
कम होते हैं

सोच खरीदने
बेचने वाले कुछ
दुकानदारों को
तरस आ जाता है

बहुत कुछ
हुआ होता है
बड़ा और
बहुत बड़ा

लिखने की
सोचते उसी
बड़े पर
किस्मत खराब
के सामने से
ही घर के
बड़े उस हुऐ का
छोटा भाई
दिखाई खड़ा
दे जाता है

बाद में
लिखना चाहिये
सोच कर
लिखने वाला
लिखना छोड़ कर
सड़क पर
निकल चला
जाता है

हर तीसरा
दिखता है
बड़े की सोच
के समर्थन
का झंडा
उठाये हुऐ

पर पता नहीं
क्यों इस बार
चुपचाप
मूँगफली छीलते
छिक्कल खाते हुऐ

दाने सड़क पर
फेंकता हुआ
पाया जाता है

साँप सूँघना
साँपों का
किसी ने सुना
हो या ना सुना हो

अपने पाले
साँप को
सजाये जिंदगी
हो जाने से
पिता ही नहीं
पूरे कुनबे का
गला सूख
जाता है
उनसे कुछ
नहीं कहा
जाता है

साँप को हो
जाती है सजा

‘उलूक’
नोचता है
बाल अपने
ही सर के
पिता साँप का
जब तुरन्त ही
साँप के सँपोले
को पालने की
जुगत लगाना
शुरु हो जाता है ।

चित्र साभार: Republic World

बुधवार, 23 अगस्त 2017

पढ़ने वाला हर कोई लिखे पर ही टिप्पणी करे जरूरी नहीं होता है



जो लिखता है उसे पता होता है 
वो क्या लिखता है किस लिये लिखता है 
किस पर लिखता है क्यों लिखता है

जो पढ़ता है उसे पता होता है 
वो क्या पढ़ता है किसका पढ़ता है क्यों पढ़ता है 

लिखे को पढ़ कर उस पर कुछ कहने वाले को पता होता है 
उसे क्या कहना होता है 

दुनियाँ में बहुत कुछ होता है 
जिसका सबको सब पता नहीं होता है 

चमचा होना बुरा नहीं होता है 
कटोरा अपना अपना अलग अलग होता है 

पूजा करना बहुत अच्छा होता है 
मन्दिर दूसरे का भी कहीं होता है 

भगवान तैंतीस करोड़ बताये गये हैं 
कोई हनुमान होता है कोई राम होता है 
बन्दर होना भी बुरा नहीं होता है 

सामने से आकर धो देना 
होली का एक मौका होता है 

पीठ पीछे बहुत करते हैं तलवार बाजी 

‘उलूक’ कहीं भी नजर नहीं आने वाले 
रायशुमारी करने वालों का 
सारे देश में एक जैसा एक ही ठेका होता है । 

चित्र साभार: Cupped hands clip art

रविवार, 20 अगस्त 2017

आसपास कुछ ईश्वरीय होने का अहसास

सूक्ष्म मध्यम
महत दिव्य
अलौकिक

या और भी
कई प्रकार के
आभास कराते

अपने ही
आसपास के
कार्यकलाप


आसानी से जैसे
खेल खेल में
समझाते
सर्वशक्तिमान
सर्वज्ञ
सर्वव्यापी
सर्वभूत

दिलाते
अहसास
सभी
ज्यादातर
या कुछ
मनुष्यों
के ही
ईश्वर होने का

यहीं इति कर देना
या इसके बाद
लिख देना क्रमश:
शेष अगले अंक में

फर्क है
बहीखाते में
रोज का रोज
हिसाब
जोड़ लेने 
में 
हफ्ते में
सात दिन का
एक साथ
लिखने 
में 

या महीने भर 

के हिसाब को
किसी एक दिन
निचोड़ 
लेने में 

वैसे भी
आधी उम्र पार
करते करते
समझ में आना
शुरु हो ही जाता है

आधी उम्र तक
पहुँचने तक के
सब कुछ सीखे
हुऐ का सार

पाप पुण्य
की सीमा में
लड़खड़ाते
खुद के अच्छे
कर्मों से
पुण्यों को
जमा कर
लेने के भ्रम

अनदेखी
करते हुऐ
सामूहिक
अपराधों में
अपनी
भागीदारी को

अच्छा है
महसूस
कर लेना
‘उलूक’

स्वयं का भी
ईश्वर होना
डकारते हुऐ
अन्दर की ओर
अह्म ब्रह्मास्मि।

चित्र साभार: Clipart - schliferaward

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

ऊँची उड़ान पर हैं सारे कबूतर सीख कर करना बन्द पंख उड़ते समय


किसी से
उधार 
ली गई बैसाखियों पर
करतब 
दिखाना सीख लेना 

एक दो का नहीं 
पूरी एक सम्मोहित भीड़ का 

काबिले तारीफ ही होता है 

सोच के हाथ पैरों को
आराम देकर 
खेल खेल ही में सही 
बहुत दूर के आसमान 
को छू लेने का प्रयास 

अकेले नहीं
मिलजुल कर एक साथ 

एक मुद्दे 
चाँद तारे उखाड़ कर 
जमीन पर बिछा देने को लेकर 

सोच का बैसाखी लिये
सड़क पर चलना दौड़ना 

नहीं जनाब
उड़ लेने का जुनून 
साफ नजर आता है आज 

बहुत बड़ी बात है 
त्याग देना अपना सब कुछ 
अपनी खुद की सोच को तक 

तरक्की के उन्माँद
की 
खुशी व्यक्त करना 
बहुत जरूरी होता है
 ‘उलूक’ 

त्यौहारों के
उत्सवों को मनाते हुऐ 

अपने पंखों को
बन्द कर 
उड़ते पंछियों को
एक ऊँची उड़ान पर
अग्रसर होते देख कर। 

चित्र साभार: NASA Space Place

शनिवार, 12 अगस्त 2017

बस एक कमेटी बना मौत के खेल को कोढ़ के खेल पर ले आ

कहा था
कोढ़ फैला

कोढ़
समझ में
नहीं आया तेरे
मौत फैला आया

आक्सीजन से
कोढ़ भी हो
सकता था
तुझे पता
नहीं था

मौत देने की
क्या जरूरत थी

आक्सीजन
से कोढ़
समझ में
नहीं आ
रहा होगा

होता है

कुछ भी
सम्भव है
किसी चीज
से कुछ भी
हो सकता है

कैसे हो
सकता है


अखबार
वालों से
रेडियो
वालों से
टी वी
वालों से
समबन्ध कुछ
अच्छे बना

समबन्ध
मतलब
वही जो
घर में घर
के लोगों से
घर के जैसे
होते हैं

चिन्ता करने
की जरूरत
नहीं है

अब कर दिया
तो कर दिया
हो गया
तो हो गया

ऐसा कर
अब कमेटी
एक बना

कमेटी में
उन सब को
सदस्य बना
जिनको मौत
समझ में
नहीं आती है
बस कोढ़
समझ में
आता है

कोढ़ का
मतलब
उस बीमारी
से नहीं है
जिसमें शरीर
गलता है थोड़ी सी
आत्मा को गला

कई जगह
कई आत्माएं
सामने सामने
गलती बहती
हुई दिखती हैं
बहुत मौज
में होती हैं

जब कोढ़
हो जाना
या कोढ़ी
कहलाया जाना
किसी जमाने से
सम्मान की बात
हो चुकी होती है

‘उलूक’ को
खुजली होती
ही रहती है
उसकी खुजली
पर मत जा

कोढ़ और कोढ़ी
उन्मूलन के
खिलाफ
कुछ मत बता

बस कुछ
रायता फैला
कुछ दही
कुछ खीरा
अलग कर
और
कुछ नमक
कुछ मसाला
फालतू का मिला

खुद भी खा
कमेटी को
भी कुछ खिला।


चित्र साभार: Weymouth Drama Club

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

बेहयाई से लिखे बेहयाई लिखे माफ होता है



लहर कब उठेगी पता नहीं होता है
जरूरी नहीं उसके उठने के समय हाथ में किसी के कैमरा होता है

शेर शायरी लिखने की बातें हैं शायरों की
ऐसा सभी सुनते हैं बहुतों को पता होता है

बहकती है सोच जैसे पी कर शराब
सोचने वाला पीने पिलाने की बस बातें सोचता रहता है

कुछ आ रहा था मौज में
लिख देना चाहिये सोच कर लिखना शुरु होता है

सोच कब मौज में आयी
सोचा हुआ कब बह गया होता है किसे पता होता है

रहने दे चल कुछ फिर और डाल साकी सोच के गिलास में
शराब और गिलास का रिश्ता हमेशा ही बचा होता है

कोई गिला कोई शिकवा नहीं बताता है अखबार वाला भी
कभी पढ़ने में सुनने में ऐसा आया भी नहीं होता है

‘उलूक’ की आदत है इधर की उधर करने की
जैसा कहावतों में किसी की आदत के लिये कहा होता है

बेहयाई बेहया की कभी किसी एक दिन लिख भी दे
रोज लिखना शरीफों की खबर ठीक नहीं होता है

किसी दिन शरीफों के मोहल्ले में
शराफत से कुछ नहीं बोल देना भी ठीक होता है।

चित्र साभार: Shutterstock

सोमवार, 31 जुलाई 2017

काला पूरा काला सफेद पूरा सफेद अब कहीं नहीं दिखेगा

शतरंज की
काली सफेद
गोटियाँ
अचानक
अपने डिब्बे
को छोड़ कर
सारी की सारी
बाहर हो गयी हैं

दिखा रही हैं
डिब्बे के
अन्दर साथ
रहते रहते
आपस में
हिल मिल कर
एक दूसरे में
खो गयी हैं

समझा
रही हैं
तैयार हैं
खुद ही
मैदान में
जाने के लिये

आदेशित
नहीं की
गयी हैं
विनम्र
होते होते
खुद ही
निर्देशित
हो गयी हैं

कुछ काली
कुछ सफेद के
साथ इधर
की हो गयी हैं
कुछ सफेद
कुछ काली के
साथ उधर
को चली गयी हैं

अपने खेल
गोटियाँ अब
खुद खेलेंगी
चाल चलने
वालों को
अच्छी तरह से
समझा गयी हैं

घोड़े ऊँठ
और हाथी
पैदल वजीर
के साथी
सोचना छोड़ दें
पुराना खेल
खेलने के आदी

हार जीत
की बात
कोई नहीं
करेगा
भाईचारे के
खेल का
भाईचारा
भाई का भाई
अपने अखबार में
कम्पनी के लिये नहीं
खिलाड़ियों के
लिये ही
बस और बस
लिखता
हुआ दिखेगा

खेल का
मैदान भी
काले सफेद
खानों में
नहीं बटेगा

आधे
सफेद खाने
के साथ आधा
काला खाना भी
बराबरी के साथ
कंधे से कंधा
मिलाता
हुआ दिखेगा

 जातिवाद
क्षेत्रवाद
आतंकवाद
इसी तरह से
खेल खेल में
शतरंज के
खेल को
उसी की
गोटियों के हाथ
स्वतंत्रता के साथ
खेलने देने के हक
दे डालने के बाद
से मिटता हुआ
अपने आप दिखेगा

‘उलूक’
समझ ले
हिसाब किताब
पीछे पीछे कुछ भी
नहीं अब चलेगा

इस सब
के बाद
काला काले
के लिये ही
और सफेद
सफेद के
लिये ही नहीं

काला सफेद
के लिये और
सफेद काले
के लिये भी
आसानी से
सस्ते दामों में
खुली बाजार में
बिकता हुआ दिखेगा ।

चित्र साभार: 123RF.com

रविवार, 23 जुलाई 2017

अपना सच कह देना अच्छा है ताकि सनद रहे

बहुत अच्छा
लगता है

जब अपने
मोहल्ले की
अपनी गली में

अपने जैसा ही
कोई मिलता है
अपनी तरह का
अपने हाथ
खड़े किये हुऐ

उसे भी
वो सब
पता होता है
जितना तुम्हें
पता होता है

ना तुम
कुछ कर
पाते हो
ना वो
कुछ कर
सकता है

हाँ
दोनों की
बातों की
आवृति
मिलती है
दो सौ
प्रतिशत

फलाँ
चोर है
फलाँ
बिक
गया है
फलाँ
बेच
रहा है
फलाँ
बेशरम है

हाँ
हो रहा है
पक्का

अजी
बेशरमी से
शरम है
ही नहीं

लड़कियों
को फंसा
रही है वो

बहुत
गन्दे खेल
चल रहे हैं

नाक ए है
कहते हैं
आप लोग

ना जी ना
अखबार में
नहीं आ
सकती हैं
ये सब बातें

नौकरी का
सवाल हुआ

कोई नहीं
तुम अपने
अखबार में
लिखते रहो
अपने फूलों
के लड़ने
की खबरें
उनकी
खुश्बुओं
पर खुश्बू
छिड़क कर

हम तो
लिखते
ही हैं
बीमार हैं

जरूरी है
लिखनी
अपनी
बीमारी
इलाज
नहीं है
कर्क
रोग का
जानते हुऐ

अच्छा लगा
मिलकर

दो भाइयों
का मिलन
हाथ खड़े
किये हुऐ ।

चित्र साभार: Shutterstock

सोमवार, 17 जुलाई 2017

फेस बुक मित्र के मित्रों के मित्रों के गिरोहों की खबरें

गिरोह
गिरोह की
बात करें

देखें
समझें
एक दूसरे को
आदाब करें

किसने
रोका है


खामखा
अकेले
चने को

भीड़ की
खबरें
दिखा कर

उसकी
शामें तो
ना बरबाद करें

माना कि
जमीन से
कुछ उठाने
के लिये
झुकना बहुत
जरूरी है

मिल कर झुकें
हाथ में हाथ
डाल कर झुकें

उठा लें
सारा
सब कुछ
मिल बाँट कर

मिट्टियाँ
अपने अपने
खेतों के नाम करें

सर उठा
कर जीने दें
एक दो पैर पर
खड़े इन्सान को

काट लें
बहुत जरूरी हो
सर कलम का
अगर मजबूरी हो

अपनी
खुद की
आँखों में

किसी
के शर्मसार
होने का ना
इन्तजाम करें

आपका
पन्ना है
आपके
दोस्त हैं

जो
करना है करें
कल्तेआम करें

जो
नहीं चाहता है
शामिल होना
गिरोहों के
जलसों
की खबरों में

उसके
पन्नों में
ले जा जाकर
खबरें अपनी

विज्ञापन
अपने अपने
धन्धों के
ना सरे आम करें

‘उलूक’
की आदत है
दिन के अंधेरे में
नहीं देखने के
बहाने लिखना

लिखने दें
भाड़ नहीं
फोड़ सकने
की खिसियाहट
उसे भी थोड़ी

मिल जुल कर
करें चीर हरण

खबर
अर्जुन ने
किया
बलात्कार

या फिर
कन्हैया
के ही
नाम करें।

चित्र साभार: Chatelaine

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

अपनी अपनी लकीरें

तुझे अपनी
खींचनी हैं
लकीरें

मुझे अपनी
खींचने दे

मैं भी
आता हूँ
देखने
तेरी लकीरें

तू भी
बिना नागा
आता रहा है

लकीरें
समझने
आता है
कोई या
गिन कर
चला
जाता है
पता नहीं
चलता है

फिर भी
आना जाना
लगा रहता है
क्या कम है

लकीरें
खींचने वाला
आने जाने
वालों की
गिनती से
अपनी लकीरों
को गिनना
शुरु नहीं
 कर देता है

लकीरें खींचना
मजबूरी होती है

लकीरें
सब की होती हैं

कौन किस
लकीर का
किस तरह
से उपयोग
कर ले
जाता है
उसे ही
पता होता है

कान नाक
और आँख
सबकी
एक जैसी
दिखती हैं
पर होती
नहीं हैं

कुछ दिखाना
पसन्द करते हैं
कुछ छिपाना
पसन्द करते हैं

पर खेल
सारा लकीरों
का ही है

तेरी लकीर
मेरी लकीर से
कितनी लम्बी
कितनी सीधी
या ऐसा कुछ भी

अपनी अपनी
लकीरें ले कर
दूसरों की
लकीरों को
तव्वजो
दे लेना
बहुत बड़ी
बात है

लकीरें
समझने
के लिये
होती भी
नहीं हैं

इसीलिये
‘उलूक’
भी लकीरें
पीट रहा
है अपनी

अब किसी
की लकीर
बड़ी हो
जाती है
किसी की
सीधी हो
जाती है

कोई बात
नहीं है
अगली
 लकीर में
 संशोधन
किया जा
सकता है

लकीरबाजों
को ठंड
रखनी भी
जरूरी है ।

चित्र साभार: notimerica.com960