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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

चिट्ठागिरी करने का भी उसूल होता है लिखना लिखाना कहाँ बेफजूल होता है

अपनी
आँखों
से देखता है

कुछ भी
समझ
लेता है

और भी
होती हैं
आंखें

देखती हुई
आसपास में

उन
आँखों में
पहले क्यों नहीं
देख लेता है

किसी को
कुछ भी
समझ में
नहीं आया
हर कोई
कह देता है

तेरे देखे हुऐ में
उनका देखा हुआ
कभी भी
कुछ कहाँ होता है

सब की समझ में
सब की कहीं बातें
आती भी नहीं हैं

बेवकूफ
बक देता है
कुछ भी कहीं भी

फिर
सोचता भी है
उसके बाद
क्यों पास
नहीं होता है

ये
लिखना भी
अजब होता है

लिखने
के बाद भी
बहुत कुछ होता है

टाँग देता है
कोई और
कहीं ले जा कर
लिखा हुआ

बस
उसे पढ़ने वाला
कहीं और को
गया होता है

टिप्पणी
देने और
टिप्पणी लेने
का भी कुछ
उसूल होता है

इतना
आसान नहीं है
समझ लेना
इस बात को

इस खेल को
समझने के लिये
लगातार कई साल
खेलना होता है

पता नहीं
कितनी विधायें हैं
समाहित
लिखने लिखाने में

बकवास
को विधा
बता देने वाला
खुद एक
बहुत बड़ा
बेवकूफ होता है

लिखना
सब को आता है
सब लिखते हैं
जो कुछ भी होता है

तेरा
लिखा हुआ जैसा
और किसी के
लिखे में
कहीं भी
क्यों नहीं होता है

‘उलूक’
करता चला है
बकवास
कई सालों से

एकसी
दो बकवास
कभी
कर भी दी गयी हों
हजारों बकवासों में

कौन सा
किसने
कहीं जा कर
इसे संगीत
देना होता है

कौन सा
किसी ने
इसे गा भी
देना होता है।


चित्र साभार: http://clipartstockphotos.com

सोमवार, 3 सितंबर 2018

कुछ बरसें कुछ बरसात करें बात सुनें और बात सुनायें बातों की बस बात करें



किसी को लग पड़ कर कहीं पहुचाने की बात करें
रास्ते काम चलाऊ उबड़ खाबड़ बनाने की बात करें

कौन सा किसी को कभी कहीं पहुँचना होता है
पुराने रास्तों के बने निशान मिटाने की बात करें

बात करने में संकोच भी नहीं करना होता है
पुरानी किसी बात को नयी बात पहनाने की बात करें

बात है कि छुपती ही नहीं है दूर तक चली जाती है
बेशरम बात को कुछ शरम सिखाने की बात करें

खुद के धंधों में कुछ बेवकूफ होते हैं लगे ही रहते हैं
किसी और के धंधे को अपनी दुकान से पनपाने की बात करें

अपने घर के अपने बच्चे खुद ही बहुत समझदार होते हैं
दूसरों के बच्चों को अपनी बात से चलाने की बात करें

बातों का सिलसिला है सदियों से इसी तरह चलता है
कुछ बात की बरसात करें कुछ बरसात की बात करें

‘उलूक’देर रात गये बैठ कर उजाले की बात लिखता है
रहने भी दें किसलिये एक बेवकूफ की गफलतों की बात करें।

चित्र साभार: http://cliparting.com

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

गिरफ्तारी सजा जेल बीमे की भी जरूरत महसूस होने लगी है आज फितूरी ‘उलूक’ की एक और सुनिये बकवास




जरूरत 
नहीं है
अब 

किसी 
कोर्ट
कचहरी 
वकील की
जनाब 


जजों
को भी 
कह दिया जाये 

कुछ
नया काम 
ढूँढ लिजिये
अब 
अपने लिये भी 

किसी
झण्डे 
के नीचे
आप 

तुरत फुरत में 
होने लगा है 
फटाफट
जब 
अपने आप 

सारा
सब कुछ 
बहुत
साफ साफ 

खबर
के
चलते ही 

छपने छपाने
तक 

पहुँचने
से
पहले ही 

जिरह 
बहस होकर 

फैसला
सुनाना 
शुरु
हो गया है 

किसी 
तरफ से 
कोई एक 

निकाल
कर 
मुँह अपना 

सुबह 
बिना धोये 
उठते उठते 
लिये हाथ में 

गरम धुआँ 
उठाता
हुआ 

चाय
का
गिलास 

दे दे रहा हो 
जैसे
खुद 
खुदा को 

यूँ ही
मुफ्त में 

उसके किये 
करवाये
का 
न्याय और इन्साफ 

गुनहगार 
और
गुनाह 
ही
बस 

जरूरी नहीं 
रह गया है
अब 

अन्दर 
हो
जाने के लिये 

बुद्धिजीवी 
कहलाये जाने 
के लिये 

जरूरी
हो गया 
है होना
लेकिन 

पढ़ाई लिखाई 
में
फीस माफ 

ताकीद है 

जाँच लें
वक्त रहते 

अपनी
सोच की 
लम्बाई और चौड़ाई 

पैमाना लेकर 
खुली धूप में 
बैठ कर 
अपने
आप

मत कह देना 
बाद में

कभी 
बताया नहीं 

छोटी
सोच के 
शेयरों में
ले आये 
अचानक उछाल 

कोई
बिना धनुष 
का
तीरंदाज 

इतनी
वफादारी 
जिम्मेदारी पहरेदारी 
नहीं
देखी होगी 

पूरी हो चुकी 
तीन चौथाई
से 
ज्यादा की
जिन्दगी में 
‘उलूक’
तूने भी 

कुछ सोच
कुछ खुजा 

अपना
खाली दिमाग 

लगा
कुछ अन्दाज 

कर शुरु 

गिरफ्तारी 
जेल सजा बीमा 

कब कौन 
अन्दर हो जाये 

रात
के सपने 
के टूटने
से पहले ही 

बाहर 
निकल कर 
आने का 

कहीं
तो हो 
किसी के पास 

अपना भी 

कुछ 
लेन देन
कर 

लेने देने
का 
हिसाब किताब 

कुछ
बिन्दास। 

चित्र साभार: https://www.dallasnews.com

रविवार, 29 जुलाई 2018

बकवास करेगा ‘उलूक’ मकसद क्या है किसी दीवार में खुदवा क्यों नहीं देता है

उसकी बात
करना
सीख क्यों
नहीं लेता है

भीड़ से
थोड़ी सी
नसीहत क्यों
नहीं लेता है

सोचना
बन्द कर के
देख लिया
कर कभी

दिमाग को
थोड़ा आराम
क्यों नही देता है

तेरा मकसद
पूछता है
अगर
उसका झण्डा

झण्डा
नहीं हूँ
कहकर
जवाब क्यों
नहीं देता है

आइना
नहीं होता है
कई लोगों
के घर में

अपने
घर में है
कपड़े उतार
क्यों
नहीं लेता है

साथ में
रहता है
अंधा बन
पूरी आँखे
खोलकर

पूछता है

क्या
लिखता है
बता क्यों
नहीं देता है

शराफत से
नंगा हो
जाता है

भीड़ में भी
एक शरीफ

नंगों की
भीड़ को
अपना पता

पता नहीं
क्यों नहीं
देता है

बहुत कुछ
लिखना है

पता होता है
‘उलूक’
को भी
हर समय

उस के
ही लोग हैं
उसके ही
जैसे हैं

रहने भी
क्यों नहीं
देता है ।

चित्र साभार: www.fineartpixel.com

रविवार, 17 जून 2018

‘उलूक’ तू दो हजार में उन्नीस जोड़ या इक्कीस घटा तेरी बकवास करने की आदत का सरकार पेटेंट कराने फिर भी नहीं जा रही है

झंडों को 
हो रही

इधर की
बैचेनी

कुछ कुछ
समझ में
आ रही है

शहर में
आज एक
नयी भीड़

एक नये
रंग के
एक नये
झंडे के नीचे

एक नया
झंडा गीत
गा रही है

पुराने
झंडों के
आशीर्वादों
से भर चुके

झंडा
बरदारों
को नींद से

लग रहा है
जैसे
नयी हवा
जगा रही है

कुछ उस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर

कुछ इस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर

कुछ बेरंगे
हो चुके रंगों
में नया रंग

भरने
जा रही है

एक नये रंग
के झंडे का
पुराने झंडों
में से ही

मिल जुल कर
पैदा हो जाने
की खबर

कल के
अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
सुबह सुबह
आने जा रही है

अवसरवादियों
की बाँछें
फिर से एक बार
और जोर लगा कर
मुस्कुरा रही हैं

इस झंडे को
उठाने वालों को
उस झंडे को
उठाने वालों से

मिलजुल कर
रहने का अभ्यास
नये झंडे तले
करा रही हैं

लाल गेरुआ
नीला पीला
हरा बैगनी
की बात
करने की
रुत जा रही है

मेला नजदीक है
सुनाई दे रहा है

झंडों की
नई दुकाने
सजाने के लिये

फड़ों
की लाईन
लगायी
जा रही है

झंडों के
ठेकेदारों की
नयी योजना से

बेपेंदे के लौटों
के लुढ़कने की
आदत सुना है
बदलने जा रही है

झंडे खुश हैं
झंडा बरदार
भी खुश हैं

धीरे धीरे
हौले हौले
टोपियाँ
इस सर से
उस सर
की ओर
खिसकायी
जा रही हैं

‘उलूक’
तू दो हजार
में उन्नीस
जोड़ या
इक्कीस घटा

तेरी
बकवास
करने की
आदत का
सरकार
पेटेंट कराने
फिर भी
नहीं जा
रही है।

 चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 1 नवंबर 2017

आदमी खोदता है आदमी में एक आदमी बोने के लिये एक आदमी

ऊपर
वाला भी
भेज देता
है नीचे

सोच कर
भेज दिया है
उसने
एक आदमी

नीचे
का आदमी
चढ़ लेता है
उस आदमी के
ऊपर से उतरते ही

उसकी
सोच पर
सोचकर
समझकर
समझाकर
सुलझाकर
बनाकर उसको
अपना आदमी

आदमी
समझा लेता है
आदमी को आदमी

खुद
समझ कर
पहले

ये तेरा आदमी
ये मेरा आदमी

बुराई नहीं है
किसी आदमी के
किसी का भी
आदमी हो जाने में

आदमी
बता तो दे
आदमी को
वो बता रहा है
बिना बताये
हर किसी
आदमी को

ये है मेरा आदमी
ये है तेरा आदमी

‘उलूक’

हिलाता है
खाली खोपड़ी
में भरी हवा
को अपनी
हमेशा की तरह

देखता
रहता है

आदमी
खोजता
रहता है
हर समय
हर तरफ
आदमी
खोजता आदमी

बेअक्ल
उलझता
रहता है
उलझाता
रहता है
उलझनों को

अनबूझ
पहेलियों
की तरह
सामने
सामने ही
क्यों नहीं
खेलता है
आदमी का
आदमी
आदमी आदमी

बेखबर
बेवकूफ

अखबार
समझने
के लिये नहीं

पढ़ने
के लिये
चला जाता है

पता ही नहीं
कर पाता है
ऊपर वाला
खुद ही ढूँढता
रह जाता है

आदमी आदमी
खेलते आदमियों में
अपना खुद का
भेजा हुआ आदमी ।

चित्र साभार: Fotosearch

शुक्रवार, 30 जून 2017

बुरा हैड अच्छा टेल अच्छा हैड बुरा टेल अपने अपने सिक्कों के अपने अपने खेल

           
              चिट्ठाकार दिवस की शुभकामनाएं ।


आधा
पूरा 
हो चुके 


साल
के 
अंतिम दिन 

यानि

ठीक 
बीच में 

ना इधर 
ना उधर 

सन्तुलन 
बनाते हुऐ 

कोशिश 
जारी है 

बात
को 
खींच तान 
कर

लम्बा 
कर ले 
जाने
की 

हमेशा 
की
तरह 

आदतन 

मानकर

अच्छी
और 
संतुलित सोच 
के
लोगों को 

छेड़ने
के लिये 
बहुत जरूरी है 

थोड़ी सी 
हिम्मत कर 

फैला देना 
उस
सोच को 

जिसपर 

निकल
कर 
आ जायें 

उन बातों 
के
पर 

जिनका 
असलियत 
से

कभी 
भी कोई 
दूर दूर 
तक
का 
नाता रिश्ता 
नहीं हो 

बस

सोच 
उड़ती हुई 
दिखे 

और 
लोग दिखें 

दूर 
आसमान 
में कहीं 

अपनी
नजरें 
गढ़ाये हुऐ 

अच्छी
उड़ती हुई
इसी 
चीज पर 

बंद
मुखौटों 
के
पीछे से 

गरदन तक 
भरी

सही 
सोच को 

सामने लाने 
के
लिये ही

बहुत
जरूरी है 

गलत
सोच के 

मुद्दे

सामने 
ले कर
आना 

डुगडुगी
बजाना 

बेशर्मी के साथ 

शरम
का 
लिहाज 
करने वाले 

कभी कभी 

बमुश्किल 
निकल कर 
आते हैं
खुले में

उलूक’ 

सौ सुनारी 
गलत बातों
पर 

अपनी अच्छी 
सोच
की 

लुहारी
चोट 
मारने
के
लिये।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

रात का गंजा दिन का अंधा ‘उलूक’ बस रायता फैला रखा है

बहुत कुछ
कहना है
कैसे
कहा जाये
नहीं कहा
जा सकता है

लिखना
सोच के
हिसाब से
किसने
कह दिया
सब कुछ
साफ साफ
सफेद लिखा
जा सकता है

सब दावा
करते हैं
सफेद झूठ
लिखते हैं

सच
लिखने वाले
शहीद हो
चुके हैं
कई जमाने
पहले
ये जरूर
कहा जा
सकता है

लिखने
लिखाने
के कोर्ट
पढ़े लिखे
वकील
परिपक्व
जज
होते होंगे
बस इतना
कहा जा
सकता है

सबको पता
होता है
सब ही
जानते है
सबकुछ
कुछ
कहते हैं
कुछ कुछ
पढ़ते हैं
कुछ
ज्यादा
टिप्पणी
नहीं देते हैं
कुछ
दे देते हैं
यूँ ही
देना है
करके कुछ
कुछ
अपने अपने
का रिश्ता
अपने अपने
का धंधा
लिखने
लिखाने
ने भी
बना रखा है

‘उलूक’
खींच
अपने बाल
किसी ने
रोका
कहाँ है
बस मगर
थोड़ा सा
हौले हौले

जोर से
खींचना
ठीक नहीं
गालियाँ
खायेंगे
गालियाँ
खाने वाले
कह कर
दिन की
अंधी एक
रात की
चिड़िया को
सरे आम
गंजा बना
रखा है।

चित्र साभार: Dreamstime.com

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

खुजली ‘उलूक’ की

युद्ध
हो रहा है

बिगुल
बज रहा है

सारे सिपाही
हो रहे हैं

अपने अपने
हथियारों
के साथ

सीमा पर
जा रहे हैं

देश के
अन्दर
की बात
हो रही है

कुछ ही
देश प्रेमी हैं
बता रहे हैं

बाकी सब
देश द्रोही हैं
देश द्रोहियों
से आह्वान
कर रहे है

देश प्रेमियों
को चुनने
को क्यों
नहीं आगे
आ रहे हैं

देश को
किसलिये
थोड़ा सा
भी नहीं
बचा रहे हैं

देश
द्रोहियों से
कह रहे है
थोड़ा सा
कुछ तो
शरमायें

कुछ
देश भक्त
गिड़गिड़ा
रहे हैं

फालतू में
कुछ
देश द्रोहियों
के चरण
पकड़े थे
पिछली बार

आज खुल
कर बता
रहे हैं

प्रायश्चित
कर रहे हैं

इस बार
वो भी
देशभक्तों
के साथ
आ रहे हैं
समझा रहे हैं

समझिये
देश भक्त
देशभक्ति
चुनाव और
लोगों की
सक्रियता

सभी कर
रहे हैं
कुछ
ना कुछ

देश के
लिये
शहीद
होने
जा रहे हैं

‘उलूक’
तेरे दिमाग
में भरे
हुऐ गोबर
के कीड़े

बहुत
ज्यादा
कुलबुला
रहे हैं


मत खोला
कर अपना
मुँह इस
तरह से

तेरे बारे में
बहुत से
लोग लगे हैं
समझाने में
बहुत से
लोगों को
बहुत कुछ

पता नहीं
इतना एक
उल्लू से
किसलिये
लोग
घबरा रहे हैं

कल किसे
पता है
कौन रहेगा
देश भक्तों
के साथ

किसे
मालूम है
कौन रहेगा
देश द्रोहियों
के साथ

कौन से
देश भक्त
अभी जा
रहे हैं
या
कुछ देर
के बाद
आ रहे हैं

जो अभी हैं
वो रहेंगे
जो नहीं हैं
वो क्या करेंगे

किसे पता है
किसे पड़ी है
अपनी अपनी
खुजली लोग
अपने आप
खुजला रहे हैं ?

चित्र साभार: ClipartFest

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

आदमी सोचते रहने से आदमी नहीं हुआ जाता है ‘उलूक’

एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के

फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना

कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है

जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ

इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है

फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा

निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है

खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है

पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है

आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है

भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये

रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये

उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती 

ही हैं

आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'

कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी

तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।

चित्र साभार: Free Clip art

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कविता बकवास नहीं होती है बकवास को किसलिये कविता कहलवाना चाहता है

जैसे ही
सोचो
नये
किस्म
का कुछ
नया
करने की

कहीं
ना कहीं
कुछ ना
कुछ ऐसा
 हो जाता है
जो
ध्यान
भटकाता है
और
लिखना
लिखाना
शुरु करने
से पहले ही
कबाड़ हो
जाता है

बड़ी तमन्ना
होती है
कभी एक
कविता लिख
कर कवि
हो जाने की

लेकिन
बकवास
लिखने का
कोटा कभी
पूरा ही
नहीं हो
पाता है

हर साल
नये साल में
मन बनाया
जाता है

जिन्दे कवियों
की मरी हुई
कविताओं को
और
मरे हुऐ
कवियों की
जिंदा
कविताओं
को याद
किया जाता है

कविता
लिखना
और
कवि हो
जाना
इसका
उसका
फिर फिर
याद आना
शुरु हो
जाता है

कविता
पढ़
लेने वाले
कविता
समझ
लेने वाले
कविता
खरीद
और बेच
लेने वालों
से ज्यादा
कविता पर
टिप्प्णी कर
देने वालों के
चरण
पादुकाओं
की तरफ
ध्यान चला
जाता है

रहने दे
‘उलूक’
औकात में
रहना ही
ठीक
रहता है

औकात से
बाहर जा
कर के
फायदे उठा
ले जाना
सबको नहीं
आ पाता है

लिखता
चला चल
बकवास
अपने
हिसाब की

कितनी लिखी
क्या लिखी
गिनती करने
कोई कहीं से
नहीं आता है

मत
किया कर
कोशिश
मरी हुई
बकवास से
जीवित कविता
को निकाल
कर खड़ी
करने की

खड़ी लाशों
के अम्बार में
किस लिये
कुछ और
लाशें अपनी
खुद की
पैदा की हुई
जोड़ना
चाहता है ।

चित्र साभार: profilepicturepoems.com

बुधवार, 9 नवंबर 2016

जन्म दिन राज्य का मना भी या नहीं भी सोलह का फिर भी होते होते हो ही गया है

पन्द्रह
पच्चीसी
का राजकुवँर

आज
सौलहवीं
पादान पर
आ कर
खड़ा
हो गया है

पैदा
होने से
लेकर जवानी
की दहलीज पर
पहुँचते पहुँचते

क्या
हुआ है
क्या
नहीं हुआ है

बड़े
घर से
अलग होकर

छोटे
घर के
चूल्हे में
क्या क्या
पका है
क्या कच्चा
रह गया है

जंगल हरे
भस्म हुऐ हैं
ऊपर कहीं
ऊँचाइयों के

धुआँ
आकाश में
ही तो फैला
है दूर तक

खुद को
खुद ही
आइने में
इस धुंध के

ढूँढना
मुश्किल
भी हो गया है

तो क्या
हो गया है

बारिश
हुई भी है
एक मुद्दत के बाद

तकते तकते
बादलों को लेकिन

राख से
लिपट कर
पानी नदी
नालौं का
खारा हो गया है

तो
कौन सा
रोना हो गया है

विपदा
आपदा में
बचपन से
जवानी तक

खेलता कूदता
दबता निकलता

पहाड़ों
की मिट्टी
नदी नालों में

लाशों को
नीलाम
करता करता

बहुत ही
मजबूत
हो गया है


ये बहुत है

खाली
मुट्ठी में
किसी को

सब कुछ
होने का
अहसास
इतनी जल्दी
हो गया है

कपड़े
जन्मदिन के
उपहार में
मिले उससे

उतारे
भी उसने

किससे
क्या कुछ
कहने को
अब रह गया है

उसकी
छोड़ कर गुलामी
बदनसीबी की

अब
इसके
गुलाम हो लेने
का मौसम
भी हो गया है

जन्मदिन
होते ही हैं
हर साल
सालों साल

हर
किसी के
‘उलूक’

इस
बार भी
होना था
हुआ है

क्या गया
क्या मिला

पुराना
इक हिसाब
अगले साल
तक के लिये

पुराने
इस साल
के साथ
ही आज
फिर से
दफन
हो गया है ।

चित्र साभार: Revolutionary GIS - WordPress.com

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

हत्यारे की जाति का डी एन ए निकाल कर लाने का एक चम्मच कटोरा आज तक कोई वैज्ञानिक क्यों नहीं ले कर आया

शहर के एक
नाले में मिला
एक कंकाल
बेकार हो गया
एक छोटी
सी ही बस
खबर बन पाया
किस जाति
का था खुद
बता ही
नहीं पाया
खुद मरा
या मारा गया
निकल कर
अभी कुछ
भी नहीं आया
किस जाति
के हत्यारे
के हाथों
मुक्ति पाया
हादसा था
या किसी ने
कुछ करवाया
समझ में
समझदारों के
जरा भी नहीं
आ पाया
बड़ी खबर
हो सकती थी
जाति जैसी
एक जरूरी
चीज हाथ में
लग सकती थी
हो नहीं पाया
लाश की जाति
और
हत्यारे की जाति
कितनी जरूरी है
जो आदमी है
वो अभी तक
नहीं समझ पाया
विज्ञान और
वैज्ञानिकों को
कोई क्यों नहीं
इतनी सी बात
समझा पाया
डी एन ए
एक आदमी
का निकाल कर
उसने कितना
बड़ा और बेकार
का लफ़ड़ा
है फैलाया
जाति का
डी एन ए
निकाल कर
लाने वाला
वैज्ञानिक
अभी तक
किसी भी
जाति का
लफ़ड़े को
सुलझाने
के लिये
आगे निकल
कर नहीं आया
‘उलूक’
कर कुछ नया
नोबेल तो
नहीं मिलेगा
देश भक्त
देश प्रेमी
लोग दे देंगे
जरूर
कुछ ना कुछ
हाथ में तेरे
बाद में मत
कहना
किसी से
इतनी सी
छोटी सी
बात को भी
नहीं बताया
समझाया ।

चित्र साभार: Clipart Kid

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

कर कुछ उतारने की कोशिश तू भी कभी 'उलूक'

कोशिश
कर तो सही
उतारने की
सब कुछ कभी

फिर दौड़ने
की भी
उसके बाद
दिन की
रोशनी में ही
बिना झिझक

जो सब
कर रहे हैं
क्यों नहीं हो
पा रहा है तुझसे

सोचने का
विषय है तेरे लिये

उनके लिये नहीं
जिन्होने उतार
दिया है सब कुछ
कभी का
सब कुछ के लिये

हर उतारा हुआ
उतारे हुए के साथ
ही खड़ा होता है
तू बस देखता
ही रहता है

दोष
किसका है
उतार कर तो देख
बस एक बार
शीशे के सामने ही सही

अकेले में
समझ सकेगा
पहने हुऐ
होने के नुकसान

जाति उतारने
की बात नहीं है

क्षेत्र उतारने
की बात नहीं है

धर्म उतारने
की बात नहीं है

कपड़े उतारने
की बात भी नहीं है

बात उतरे हुए
को सामने से
देख कर ही
समझ में आती है

निरन्तरता
बनाये रखने
के लिये वैसे भी
बहुत जरूरी है
कुछ ना कुछ
करते चले जाना

समय के साथ
चलने के लिये
समय की तरह
समय पहने तो
पहन लेना

समय उतारे तो
उतार लेना अच्छा है

सब को सब की
सारी बातें समझ में
आसानी से नहीं आती हैं

वरना आदमी
के बनाये आदमी
के लिये नियमों
के अन्दर किसी को
आदमी कह देने
के जुर्म में कभी भी
अन्दर हो सकता है
कोई भी आदमी

आमने सामने
ही पीठ करके
एक दूसरे से
निपटने में
लगे हुऐ
सारे आदमी

अच्छी तरह
जानते हैं
उतारना पहनना
पहनना उतारना

तू भी लगा रह
समेटने में अपने
झड़ते हुए परों को
फिर से चिपकाने की
सोच लिये ‘उलूक’

जिसके पास
उतारने के लिये
कुछ ना हो
उसे पहले कुछ
पहनना ही पड़ता है

पंख ही सही
समय की मार
खा कर गिरे हुए ।

चित्र साभार:
www.clipartpanda.com

शनिवार, 24 सितंबर 2016

तू भी कुछ फोड़ना सीख ‘उलूक’ धमाके करने लगा है कुछ भी फोड़ कर हर मुँगेरीलाल महान देश का

कुछ फोड़
कुछ मतलब
कुछ भी
फोड़ने में
कुछ लगता
भी नहीं है
नफे नुकसान
का कुछ
फोड़ लेने
के बाद
किसी ने
कुछ सोचना
भी नहीं है
फोड़ना कहीं
जोड़ा और
घटाया हुआ
दिखता भी
नहीं है
बेहिसाब
फूट रहा
हो जहाँ
कुछ भी
कहीं भी
कैसे भी
और
फोड़ रहा
हो हर कोई
अपनी औकात
के आभास से
धमाका बनाया
जा रहा हो
खरीदने बेचने
के हिसाब से
आज जब
इतना
आजाद है
आजादी
और
कुछ ना कुछ
फोड़ने की
हर किसी
में है बहुत
ज्यादा बेताबी
तू भी नाप
तू भी तौल
अपनी औकात
और
निकल बाहर
परवरिश
में खुद के
अन्दर पनपे
फालतू मूल्यों
के बन्धन
सारे खोल
और
फिर फोड़
कुछ तो फोड़
फोड़ेगा नहीं
तो धमाका
कैसे उगायेगा
धमाका नहीं
अगर होगा
बाजार में
क्या बेचने
को जायेगा
फोड़
कुछ भी
फोड़
किसी ने
नहीं देखनी
है आग
किसी ने
नहीं देखना
है धुआँ
बाकी करता
रह सारे
काम अपने
अपनी दिनचर्या
चाहे नोंच माँस
चाहे नोंच हड्डियाँ
चाहे जमा कर
चाहे सुखा
बूँद बूँद
इन्सानी खून
पर फोड़
कुछ फोड़
नहीं फोड़ेगा
अपने संस्कारी
उसूलों में
दब दबा
जायेगा
सौ पचास
साल बाद
देश द्रोही
या
गाँधी
की पात में
खड़ा कर
तुझे एक
अपराधी
घोषित कर
दिया जायेगा
इसलिये
बहुत जरूरी है
कुछ फोड़।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 21 सितंबर 2016

‘उलूक’ वन्दे माता नमो जय ऊँ काफी है इससे ज्यादा कहाँ से चढ़ कर कूदना चाहता है

कहाँ कहाँ
और
कितना कितना
रफू करे
कोई बेशरम
और
करे भी
किसलिये
जब फैशन
गलती से
उधड़ गये को
छुपाने का नहीं
खुद बा खुद
जितना हो सके
उधाड़ कर
ज्यादा से ज्यादा
हो सके तो
सब कुछ
बेधड़क
दिखा ले
जाने का है

इसी बात पर
अर्ज किया है

कुछ ऐसा है कि
पुराने किसी दिन
लिखे कुछ को
आज दिखाने
का सही मौका है
उस समय मौका
अपने ही
मन्दिर का था
समय की
बलिहारी
होती है
जब वैसा ही
देश में
हो जाता है

दीमकें छोटी
दिखती हैं
पर फैलने में
वक्त नहीं लेती हैं

तो कद्रदानो सुनो

जिस दिन
एक बेशरम को
शरम के ऊपर
गद्दी डाल कर
बैठा ही
दिया जाता है
हर बेशरम को
उसकी आँखों से
उसका मसीहा
बहुत पास
नजर आता है
शरम के पेड़
होते हैं
या
नहीं होते हैं
किसे जानना
होता है
किसे चढ़ना
होता है
जर्रे जर्रे पर
उगे ठूँठों
पर ही जब
बैठा हुआ
एक बेशरम
नजर आता है

अब हिन्दू
 की बात हो
मुसलमान
की बात हो
कब्र की
बात हो
या
शमशान
की बात हो

अबे जमूरे
ये हिन्दू
मुसलमान
तक तो
सब ठीक था
ये कब्र और
शमशान
कहाँ से
आ गये
फकीरों की
बातों में


समझा करो
खिसक गया
हो कोई तो
फकीर याद
आना शुरु
हो जाता है

अब खालिस
मजाक हो
तो भी
ये सब हो
ही जाता है

अब क्या
कहे कोई
कैसे कहे
समझ
अपनी अपनी
सबकी
अपनी अपनी
औकात की

दीमक के
खोदे हुऐ के
ऊपर कूदे
पिस्सुओं से
अगर एक
बड़ा मकान
ढह जाता है

क्या सीन
होता है

सारा देश
जुमले फोड़ना
शुरु हो जाता है

‘उलूक’
तू खुजलाता रह
अपनी पूँछ

तुझे पता है
तेरी खुद की
औकात क्या है

ये क्या कम है
आता है
यहाँ की
दीवार पर
अपने भ्रम
जिसे सच
कहता है
चैप जाता है

छापता रह खबरें

कौन “होशियार”
 बेवकूफों के
अखबार में
छपी खबरों से
हिलाया जाता है ।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com/

सोमवार, 5 सितंबर 2016

अर्जुन को नहीं छाँट कर आये इस बार गुरु द्रोणाचार्य सुनो तो जरा सा फर्जी ‘उलूक’ की एक और फर्जी बात

जब
लगाये गये
गुरु कुछ
गुरु छाँटने
के काम पर
किसी गुरुकुल
के लिये
दो चार और
गुरुओं के साथ
एक ऐ श्रेणी के
गुरुकुल के
महागुरु
के द्वारा

पता चला
बाद में
अर्जुन पर नहीं
एकलव्य पर
रखकर
आ चुके हैं
गुरु अपना हाथ
विश्वास में लेकर
सारे गुरुओं की
समिति को
अपने साथ

अब जमाना
बदल रहा
हो जब
गुरु भी
बदल जाये
तो कौन सी
है इसमें
नयी बात

एक ही
अगर होता
तो कुछ
नहीं कहता
पर एक
अनार के
लिये सौ
बीमार हो
जाते हों जहाँ
वहाँ यही तो
है होना होता

समस्या बस
यही समझने
की बची
इस सब के बाद
एक लव्य ने
किसे दे दिया
होगा अँगूठा
अपना काट

फिर समझ
में आया
फर्जी गुरु
‘उलूक’ के
भी कुछ

कुछ कुछ
सब कुछ में
से देख कर
जब देख बैठा
एक सफेद
लिफाफा मोटा
भरा भरा
हर गुरु
के हाथ

वाह
एकलव्य
मान गये
तुझे भी
निभाया
तूने इतने
गुरुओं को
अँगूठा काटे
बिना अपना
किस तरह
एक साथ ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

'उलूक’ पहले अपना खुद का नामरद होना छिपाना सीख

सोच को सुला
फिर लिख ले
जितनी चाहे
लम्बी और
गहरी नींद

 सपने देख
मशालें देख
गाँव देख
लोग देख
गा सके
तो गा
नहीं गा सके
तो चिल्ला
क्राँति गीत

कहीं भी
किसी भी
गिरोह में
जा और देख
गिरोह में
शामिल करते
गिरोहबाजों
की कलाबाजियाँ
पैंतरेबाजियाँ
और कुछ
सीख

हरामखोरियों
की
हरामखोरियाँ
ही सही
सीख

देश राज्य
जिला शहर
मोहल्ले की
जगह अपनी
जगह पर
अपनी जमीन
खुद के नीचे
बचाने
की कला
सीख

कोशिश कर
उतारने की
सब कुछ
कोशिश कर
दौड़ने की
दिन की
रोशनी में
नंगा होकर
बिना झिझक
जिंदा रहने
के लिये
बहुत
जरूरी है
सीख

किसी
भी चोर
को गाँधी
बनाना
और
गाँधी को
चोर बनाना
सीख

इन्सान
की मौत
पर बहा
घड़ियाली
आँसू

कुछ
थोड़ा सा
आदमी का
खून पी
जाना भी
सीख

सब जानते हैं
सब को पता है
सब कुछ बहुत
साफ साफ
सारे ऐसे
मरदों को
रहने दे

‘उलूक’
ये सब
दुनियादारी है
रहेगी हमेशा
पहले अपना
खुद का
नामरद होना
छिपाना
सीख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 11 मई 2016

किसे पड़ी है तेरे किसी दिन कुछ नहीं कहने की उलूक कुछ कहने के लिये एक चेहरा होना जरूरी होता है



लिखा हुआ हो 
कहीं पर भी हो कुछ भी हो 
देख कर उसे पढ़ना और समझना 
हमेशा जरूरी नहीं होता है 

कुछ कुछ खराब हो चुकी आँखों को 
खुली रख कर जोर लगा कर 
साफ साफ देखने की कोशिश करना 

कुछ दिखना कुछ नहीं दिखना 
फिर दिखा दिखा सब  दिख गया कहना 
कहने सुनने सुनाने तक ही ठीक होता है 

सुना गया सब कुछ कितना सही होता है 
सुनाई देने के बाद सोचना जरूरी नहीं होता है 

रोजाना कान की सफाई करना 

ज्यादातर लोगों 
की आदत में वैसे भी
शामिल नहीं होता है 

लिखने लिखाने से कुछ होना है 
या नहीं होना है 

लिखने वाले कौन है 
और लिखे को पढ़ कर 
लिखे पर सोचने 
लिखे पर कुछ कहने वाले कौन हैं 

या किसने लिखा है क्या लिखा है 

लिख दिया है बताने वाले लोगों को 
सारा लिखा पता होना जरूरी नहीं होता है 

लेखक लेखिका का पोस्टर लगा कर 
दुकान खोल लेने से 
किताबें बिकना शुरु होती भी हैं 
तब भी हर दुकान का रजिस्ट्रेशन 
लेखक के नाम से हर जगह होना होता है 
या नहीं होता है किसे पता होता है 

लिखने लिखाने वाला 
लिखने की दुकान के
शटर खोलने की आवाज के साथ उठता है 
शटर गिराने की आवाज के साथ सोता है 

कौन जानता है 
ऐसा भी होता है या नहीं होता है 

अपनी अपनी किताबें संभाले हुए लोगों को 
आदत पड़ चुकी होती है 
अपना लिखा अपने आप पढ़नें की 

खुद समझ कर खुद को खुद ही समझा ले जाना 
खुदा भी समझ पाया है या नहीं खुदा ही जानता है 
सब को पता हो ये भी जरूरी नहीं होता है 

किसी के कुछ लिखे को नकार देने की हिम्मत 
सभी में नहीं होती है 

पूछने वाले पढ़ते हैं या नहीं 
पता नहीं भी होता है 

प्रश्न करना इतना जरूरी नहीं होता है 

लिखना कुछ भी कहीं भी कभी भी 
इतना जरूरी होता है  

दुनियाँ चलती है चलती रहेगी 
हर आदमी खरीफ की फसल हो 

जरूरी कहीं थोड़ा सा होता है 
कहीं जरा सा भी नहीं होता है 

फारिग हो कर आया हर कोई कहे
जरूरी है जमाने के हिसाब से खेत में जाना 

इस जमाने में अब जरूरी नहीं 
थोड़ा नहीं बहुत ही खतरनाक होता है 

सफेद पन्ना दिखाने के लिये रख 

काफी है ‘उलूक’ 

लिखा 
लिखाया काला सब सफेद होता है । 

 चित्र साभार: www.pinterest.com

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आदत है उलूक की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की



चर्चा है कुछ है
कुछ लिखने की है
कुछ लिखाने की है
टूटे बिखरे पुराने
बेमतलब शब्दों
की जोड़ तोड़ से
खुले पन्नों की
किताबों की 
एक दुकान को
सजाने की है
शिकायत है
और बहुत है
कुछ में से भी
कुछ भी नहीं
समझा कर
बस बेवकूफ
बनाने की है
थोड़ा सा कुछ
समझ में आने
लायक जैसे को भी
घुमा फिरा कर
सारा कुछ लपेट
कर ले जाने की है
चर्चा है गरम है
असली खबर के
कहीं भी नहीं
आने की है
आदमी की बातें हैं
कुछ इधर की हैं
कुछ उधर की हैं
कम नहीं हैं
कम की नहीं हैं
बहुत हैं बहुत की हैं
मगर आदमी के लिये
उनको नहीं
बना पाने की है
कहानियाँ हैं लेकिन
बेफजूल की हैं
कुछ नहीं पर भी
कुछ भी कहीं पर भी
लिख लिख कर
रायता फैलाने की है
एक बेचारे सीधे साधे
उल्लू का फायदा
उठा कर हर तरफ
चारों ओर उलूकपना
फैला चुपचाप झाड़ियों
से निकल कर
साफ सुथरी सुनसान
चौड़ी सड़क पर आ कर
डेढ़ पसली फुला
सीना छत्तीस
इंची बनाने की है
चर्चा है अपने
आस पास के
लिये अंधा हो
पड़ोसी  के लिये
सी सी टी वी
कैमरा बन
रामायण गीता
महाभारत
लिख लिखा
कर मोहल्ला रत्न
पा लेने के जुगाड़ में
लग जाने की है
कुछ भी है सब के
बस की नहीं है
बात गधों के
अस्तबल में रह
दुलत्ती झेलते हुए
झंडा हाथ में
मजबूती से
थाम कर जयकारे
के साथ चुल्लू
भर में डूब
बिना तैरे तर
जाने की है
मत कहना नहीं
पड़ा कुछ
भी पल्ले में
पुरानी आदत
है
उलूक की
बात मुँह के अंदर
कुछ और रख
बाहर कुछ और
फैलाने की है ।

चित्र साभार:
www.mkgandhi.org