उलूक टाइम्स: बकवास
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रविवार, 18 नवंबर 2018

गधा धोबी का धोबी के लिये गधा दोनों एक दूसरे का पर्याय हो ही जाता है

हर समय
कुछ ना कुछ
किसी पर
लिखा ही
जाता है

क्यों
लिखा जाये
किस के लिये
लिखा जाये
अलग बात है

पर
प्रश्न तो एक
सामने से
आकर खड़ा
हो ही जाता है

रोकते
रोकते हुऐ
फिर भी

ज्वालामुखी
फटने की
कगार पर
होने के
आसपास

थोड़ा सा लावा
आदममुख
से बाहर
निकल कर
आ जाता है

माफ करेंगे
झेलने वाले

बकवास
करने के लिये
कोई अगर
यहाँ चला
भी आता है

‘उलूक’ की
बकवास में
एक दो शब्दों
का बहुतायत में
पाया जाना

अभी तक तो
नाजायज नहीं
माना जाता है

झेलना
परिस्थिति को
हर किसी के
आसपास

और
हिसाब की
कहना भी
जरूरी
हो जाता है

तो शुरु करें
आज का
पकाया हुआ

देखें कहाँ तक
अपनी गंध
फैला पाता है

हर गधा

गौर करियेगा
गधा

गधे की
बकवासों में
कितनी कितनी बार
प्रयोग किया जाता है

हाँ तो
हर गधा
धोबी होना
चाहता है

धोबी होकर
अपने
मातहतों को
गधा बना कर
धोना चाहता है

सबसे
अच्छा गधा
होने के लिये
वाहन चालक होना
जरूरी माना जाता है

कम्प्यूटर
जानने वाला गधा
दूसरे नम्बर पर
रखा जाता है

गधा बनाने
की प्रक्रिया में
जाति धर्म
देश प्रदेश पर
ध्यान नहीं
दिया जाता है

सोशियल
मीडिया में
भेजा गया गधा

कभी अपना
खाली दिमाग
नहीं लगाता है

खुद ही
अपने लिखे
लिखाये से

किसका
गधा हूँ
बता जाता है

किसी के
सच का आईना
सामने लाने पर
गधों का एक समूह
पगला जाता है

तर्क देना
जरूरी नहीं
माना जाता है

घेर कर
ऐसे ही सच को

गधों
के द्वारा
लपेटने या पटकने
का प्रयास
किया जाता है

हर गधा
अपने सामने वाले के
गधेपन का फायदा
उठाना चाहता है

‘उलूक’ खुद
एक गधा
समझता है
खुद को

अपने
आसपास
के धोबियों से

अपनी पीठ
बचाने का हिसाब
खुद ही लगाता है

कभी
फंस जाता है
कभी
थोड़ा कुछ
बचा भी ले जाता है

माफ करेंगे
विद्वान लोग

गधा धोबी
पुराण से
देश चल रहा
हो जहाँ

वहाँ
जो जितनी जोर से
रेंक लेता है

उतना
सम्मानित
बता कर
उपहारों से
लाद दिया जाता है

बहुत ज्यादा
एक ही बार में
लिखना ठीक
भी नहीं है

छोटी छोटी
कहानियाँ
गधों की
मिला कर भी
गधा पुराण
बनाया जाता है ।

चित्र साभार: https://moralstories29897.blogspot.com

रविवार, 4 नवंबर 2018

क्यों कह देता होगा कुछ भी लिखे को कविता कोई कवि नहीं करते बकबक लिखते हैं दिमाग पर लगा कर जोर

कैसे
बनती होगी
एक कविता

रस छन्द
और
अलंकार
से
सराबोर

 कैसे
सोचता होगा
एक कवि

क्या
देखता होगा

और
किस दिशा
की ओर

कौन
पढ़ लेता होगा

आँखें
कवि की खोल
मन में अपने

हो लेता होगा
उतना ही विभोर

इन्द्रियाँ
बस में
होती होंगी
किस की इतनी

अवशोषित
कर लेता होगा

जो केवल
संगीत
छान कर
सारे शोर

किस के
पन्ने में
छपे अक्षर

नजर आना
शुरु
हो जाते होंगे
एक पाठक को

मोती जैसे
लपक रहा हो
चमक देख कर

उनकी
तरफ कोई
गोताखोर

 शायद:

अनन्त में
होता होगा
ध्यान केन्द्रित

दूर बहुत
होते होंगे
जोकर
कलाकार
चोर छिछोर

नजर पड़ती
होगी बस
सारे सफेद
कबूतरों पर

काले कौओं
को समझा कर
ले जाता होगा

समय
कहीं किसी
मोड़ की ओर

सीख:

क्यों
बैठा
रहता होगा
‘उलूक’

करने को
बकवास

देखता
घनघोर
अमावस में भी

फाड़ कर
आँखें चार
किसी पाँचवीं
दिशा की छोर

सीखता
क्यों नहीं होगा
थोड़ा सा भी
हटकर लिखना
अच्छा लिखना

मुँह
मोड़ कर
इधर उधर से

देख देख कर

कहीं
कुछ जमीन
के अन्दर

कुछ
आकाश
की ओर।

चित्र साभार: https://melbournechapter.net

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

बकवास करना भी कभी एक नशा हो जाता है अपने लिखे को खुद ही पढ़ कर अन्दाज कहाँ आता है



कहावतें भी समय के साथ बह जाती हैं 
चिंता चिता के समान होती होंगी कभी 
अब मगर चितायें भी बहा ले जायी जाती हैं 

लकड़ियाँ रह भी गयी अगर जलाती नहीं है 
बस थोड़ा थोड़ा सा सुलगाती हैं 

इसलिये लगा रह चिंता कर 
लेकिन कभी कभी बकवास भी पढ़ लिया कर 

अंगरेजी में कहते हैं फॉर ए चेंज 

बकवास लिखने के कई फायदे जरूर हैं 
फिर भी बकवास लिखने के कायदे भी
कुछ हजूर हैं 

कभी कोशिश कर के देख ले लिखने की 
कोई भी बकवास 
देख कर समझ कर कुछ भी 
अपने ही अगल बगल अपने ही आसपास

बकवास कभी इतिहास नहीं हो पाती है 
ध्यान रहे एक दिन के बाद 
दूसरे दिन साँस भी नहीं ले पाती है 

कोई देखने नहीं आता है 
कोई नहीं 
हाँ तो मतलब देखना पड़ता है जो किया जाता है 
उसको कितनों के द्वारा नजर के दायरे में लिया जाता है 

सोचो जरा 
कूड़े के ढेर में कौन कौन सा 
किस प्रकार का कैसा कैसा कूड़ा गेरा गया है 
कौन इतना ध्यान लगाता है 

सारा मिलमिला कर सब एक जैसा 
सार्वभौमिक हो जाता है 
एक तरह से ईश्वरीय हो जाता है 
सर्वव्यापी क्या होता है महसूस करा जाता है 

अब सब लोग कूड़ा क्यों देखेंगे भला 
अच्छा भी तो बहुत सारा होता है 
जिस पर सबका हिस्सा माना जाता है 

और जो मिलजुल कर साथ साथ 
कूड़े को पाँव के नीचे दबाकर 
उँचे स्वर में गाया जाता है 

दुर्गंध क्या होती है 
जब सड़ाँध है को होने के बावजूद 
सर्वसम्मति से नकार दिया जाता है 
मतलब इस सब के बीच कोई लिखने में लग जाता है 

ऊल जलूल लिखा हुआ किसी को 
कविता कहानी जैसा नजर आना शुरु हो जाता है 

क्या किया जाये 
अंधा लूला लंगड़ा काना 
किस दिशा में किस चीज में रंगत देख ले जाये 
कौन बता पाता है 

अब ‘उलूक’ इस सब के बीच 
बकवास करने के धंधें में कब पारंगत हो जाता है 

उसे भी तब अन्दाज आता है 
जब कोई कहना शुरु कर देता है 

अबे तू किसलिये फटे में टाँग अड़ा कर 
इतना खिलखिलाता है 

सार ये है कि 
ठंड रखना सबसे अच्छा हथियार माना जाता है 

कुछ दिन चला कर देख ले 
कितना मजा आता है ।

***********************************************
कुरेदना राख को उसका
देखिये जनाब बबाल कर गया 
आग बैठी देखती रह गयी बहुत दूर से
कमाल कर गया ।
***********************************************

चित्र साभार: http://www.i2clipart.com

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

चूहों से बचाने के लिये बहुत कुछ को थोड़े कुछ को कुछ चूहों पर दाँव पर लगाना ही होता है

होता है

निगाहें
कहीं और

को लगी होती हैं

और
निशाना

कहीं और को
लगा होता है

इस
सब के लिये

आँखों का
सेढ़ा होना

जरूरी
नहीं होता है


ये भी होता है

बकवास को
पढ़ना नहीं होता है

बढ़ती
आवत जावत
की घड़ी की सूईं
पढ़ने पढ़ाने का
पैमाना नहीं होता है

ये मजबूरी होता है

हरी भरी
कविताओं से भरी
क्यारियों के बीच में
पनपती हुयी भुर भुरी
खरपतवार को
उखाड़ने के लिये
ध्यान देना
बहुत जरूरी होता है

इसे होना होता है

देर रात
सड़क पर
दल बल सहित
निकले पहरेदार को

सायरन
बजाना ही होता है

किनारे हो लो
जहाँ भी 
हो

सेंध में लगे 
चोर भाईयों को
सन्देश दूर से
पहुँचाना होता है

ये जरूरी होता है

ज्यादा चूहों से
अनाज को
बचाने के लिये
दिमाग
लगाना होता है

कुछ चूहों की
एक समीति बनाकर

सारे अनाज को
उनकी देखरेख में
थोड़ा थोड़ा कर
कुतरवाना होता है

इसका
कुछ नहीं होता है

गाय की तरह
बातों की घास को
दिनभर निगल कर

‘उलूक’ ने
रातभर
जुगाली
करने में
बिताना ही
होता है।

चित्र साभार:
https://www.deviantart.com

बुधवार, 12 सितंबर 2018

'उलूक’ तख़ल्लुस है



साहित्यकार कथाकार कवि मित्र 
फरमाते हैं 

भाई 
क्या लिखते हो 
क्या कहना चाहते हो 
समझ में ही नहीं आता है 

कई बार तो 
पूरा का पूरा 
सर के ऊपर से 
हवा सा निकल जाता है 

और 
दूसरी बला 
ये ‘उलूक’ लगती है 
बहुत बार नजर आता है 

है क्या 
ये ही पता नहीं चल पाता है 

हजूर 

साहित्यकार अगर 
बकवास समझना शुरु हो जायेगा 
तो उसके पास फिर क्या कुछ रह जायेगा 

‘उलूक’ तखल्लुस है 
कई बार बताया गया है 
नजरे इनायत होंगी आपकी 
तो समझ में आपके जरूर आ जायेगा 

इस ‘उलूक’ के भी 
बहुत कुछ समझ में नहीं आता है 

किताब में 
कुछ लिखता है लिखने वाला 
पढ़ाने वही कुछ और 
और समझाने 
कुछ और ही चला आता है 

इस 
उल्लू के पट्ठे के दिमाग में 
गोबर भी नहीं है लगता है 

हवा में 
लिखा लिखाया 
कहाँ कभी टिक पाता है 

देखता है 
सामने सामने से होता हुआ 
कुछ ऊटपटाँग सा 

अखबार में 
उस कुछ को ही 
कोई
आसपास 
का सम्मानित
ही 
भुनाता हुआ नजर आता है 

ऐसा बहुत कुछ 
जो समझ में नहीं आता है 

उसे ही 
इस सफेद श्यामपट पर 
कुछ अपनी 
उलझी हुई लकीर जैसा बना कर 
रख कर चला जाता है 

हजूर

आपका 
कोई दोष नहीं है 

सामने से 
फैला गया हो 
कोई दूध या दही 

किसी को 
शुभ संदेश 
और किसी को 
अपशकुन नजर आता है 

आँखें 
सबकी एक सी 
देखना सबका एक सा 

बस
यही 
अन्तर होता है 

कौन
क्या चीज 
क्यों और किस तरह से देखना चाहता है 

‘उलूक’ ने 
लिखना है लिखता रहेगा 
जिसे करना है करता रहेगा 

इस देश में 
किसी के बाप का कुछ नहीं जाता है 

होनी है जो होती है 
उसे अपने अपने पैमाने से नाप लिया जाता है 

जो जिसे 
समझना होता है 
वो कहीं नहीं भी लिखा हो 
तब भी समझ में आ जाता है

'उलूक’
तख़ल्लुस  है 

कवि नहीं है 
कविता लिखने नहीं आता है 

जो उसे 
समझ में नहीं आता है 
बस उसे
बेसुरा गाना शुरु हो जाता है 
। 

चित्र साभार: www.deviantart.com

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

चिट्ठागिरी करने का भी उसूल होता है लिखना लिखाना कहाँ बेफजूल होता है

अपनी
आँखों
से देखता है

कुछ भी
समझ
लेता है

और भी
होती हैं
आंखें

देखती हुई
आसपास में

उन
आँखों में
पहले क्यों नहीं
देख लेता है

किसी को
कुछ भी
समझ में
नहीं आया
हर कोई
कह देता है

तेरे देखे हुऐ में
उनका देखा हुआ
कभी भी
कुछ कहाँ होता है

सब की समझ में
सब की कहीं बातें
आती भी नहीं हैं

बेवकूफ
बक देता है
कुछ भी कहीं भी

फिर
सोचता भी है
उसके बाद
क्यों पास
नहीं होता है

ये
लिखना भी
अजब होता है

लिखने
के बाद भी
बहुत कुछ होता है

टाँग देता है
कोई और
कहीं ले जा कर
लिखा हुआ

बस
उसे पढ़ने वाला
कहीं और को
गया होता है

टिप्पणी
देने और
टिप्पणी लेने
का भी कुछ
उसूल होता है

इतना
आसान नहीं है
समझ लेना
इस बात को

इस खेल को
समझने के लिये
लगातार कई साल
खेलना होता है

पता नहीं
कितनी विधायें हैं
समाहित
लिखने लिखाने में

बकवास
को विधा
बता देने वाला
खुद एक
बहुत बड़ा
बेवकूफ होता है

लिखना
सब को आता है
सब लिखते हैं
जो कुछ भी होता है

तेरा
लिखा हुआ जैसा
और किसी के
लिखे में
कहीं भी
क्यों नहीं होता है

‘उलूक’
करता चला है
बकवास
कई सालों से

एकसी
दो बकवास
कभी
कर भी दी गयी हों
हजारों बकवासों में

कौन सा
किसने
कहीं जा कर
इसे संगीत
देना होता है

कौन सा
किसी ने
इसे गा भी
देना होता है।


चित्र साभार: http://clipartstockphotos.com

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

गिरफ्तारी सजा जेल बीमे की भी जरूरत महसूस होने लगी है आज फितूरी ‘उलूक’ की एक और सुनिये बकवास




जरूरत 
नहीं है
अब 

किसी 
कोर्ट
कचहरी 
वकील की
जनाब 


जजों
को भी 
कह दिया जाये 

कुछ
नया काम 
ढूँढ लिजिये
अब 
अपने लिये भी 

किसी
झण्डे 
के नीचे
आप 

तुरत फुरत में 
होने लगा है 
फटाफट
जब 
अपने आप 

सारा
सब कुछ 
बहुत
साफ साफ 

खबर
के
चलते ही 

छपने छपाने
तक 

पहुँचने
से
पहले ही 

जिरह 
बहस होकर 

फैसला
सुनाना 
शुरु
हो गया है 

किसी 
तरफ से 
कोई एक 

निकाल
कर 
मुँह अपना 

सुबह 
बिना धोये 
उठते उठते 
लिये हाथ में 

गरम धुआँ 
उठाता
हुआ 

चाय
का
गिलास 

दे दे रहा हो 
जैसे
खुद 
खुदा को 

यूँ ही
मुफ्त में 

उसके किये 
करवाये
का 
न्याय और इन्साफ 

गुनहगार 
और
गुनाह 
ही
बस 

जरूरी नहीं 
रह गया है
अब 

अन्दर 
हो
जाने के लिये 

बुद्धिजीवी 
कहलाये जाने 
के लिये 

जरूरी
हो गया 
है होना
लेकिन 

पढ़ाई लिखाई 
में
फीस माफ 

ताकीद है 

जाँच लें
वक्त रहते 

अपनी
सोच की 
लम्बाई और चौड़ाई 

पैमाना लेकर 
खुली धूप में 
बैठ कर 
अपने
आप

मत कह देना 
बाद में

कभी 
बताया नहीं 

छोटी
सोच के 
शेयरों में
ले आये 
अचानक उछाल 

कोई
बिना धनुष 
का
तीरंदाज 

इतनी
वफादारी 
जिम्मेदारी पहरेदारी 
नहीं
देखी होगी 

पूरी हो चुकी 
तीन चौथाई
से 
ज्यादा की
जिन्दगी में 
‘उलूक’
तूने भी 

कुछ सोच
कुछ खुजा 

अपना
खाली दिमाग 

लगा
कुछ अन्दाज 

कर शुरु 

गिरफ्तारी 
जेल सजा बीमा 

कब कौन 
अन्दर हो जाये 

रात
के सपने 
के टूटने
से पहले ही 

बाहर 
निकल कर 
आने का 

कहीं
तो हो 
किसी के पास 

अपना भी 

कुछ 
लेन देन
कर 

लेने देने
का 
हिसाब किताब 

कुछ
बिन्दास। 

चित्र साभार: https://www.dallasnews.com

रविवार, 29 जुलाई 2018

बकवास करेगा ‘उलूक’ मकसद क्या है किसी दीवार में खुदवा क्यों नहीं देता है

उसकी बात
करना
सीख क्यों
नहीं लेता है

भीड़ से
थोड़ी सी
नसीहत क्यों
नहीं लेता है

सोचना
बन्द कर के
देख लिया
कर कभी

दिमाग को
थोड़ा आराम
क्यों नही देता है

तेरा मकसद
पूछता है
अगर
उसका झण्डा

झण्डा
नहीं हूँ
कहकर
जवाब क्यों
नहीं देता है

आइना
नहीं होता है
कई लोगों
के घर में

अपने
घर में है
कपड़े उतार
क्यों
नहीं लेता है

साथ में
रहता है
अंधा बन
पूरी आँखे
खोलकर

पूछता है

क्या
लिखता है
बता क्यों
नहीं देता है

शराफत से
नंगा हो
जाता है

भीड़ में भी
एक शरीफ

नंगों की
भीड़ को
अपना पता

पता नहीं
क्यों नहीं
देता है

बहुत कुछ
लिखना है

पता होता है
‘उलूक’
को भी
हर समय

उस के
ही लोग हैं
उसके ही
जैसे हैं

रहने भी
क्यों नहीं
देता है ।

चित्र साभार: www.fineartpixel.com

बुधवार, 25 जुलाई 2018

दिमाग बन्द करते हैं अपने चल पढ़ाने वाले से पढ़ कर के आते हैं

बहुत
लिख लिया
एक ही
मुद्दे पर
पूरे महीने भर

इस
सब से
ध्यान हटाते हैं


शेरो शायरी
कविता कहानी
लिखना लिखाना
सीखने सिखाने
की किसी दुकान
तक हो कर
के आते हैं

कई साल
हो गये
बकवास
करते करते
एक ही
तरीके की

कुछ नया
आभासी
सकारात्मक
बनाने
दिखाने
के बाद
फैलाने का भी
जुगाड़ अब
लगाते हैं

घर में
लगने देते हैं आग
घुआँ सिगरेट का
समझ कर पी जाते हैं

बची मिलती है
राख कुछ अगर
इस सब के बाद भी

शरीर
में पोत कर खुद ही
शिव हो जाते हैं

उसके
घर की तरफ
इशारे करते हैं

जाम
इल्जाम के बनाते हैं

नशा हो झूमे शहर
बने एक भीड़ पागल
इस सब के पहले

अपने घर के पैमाने
बोतलों के साथ
किसी मन्दिर की
मूरत के पीछे
ले जाकर छिपाते हैं

बरसात
का मौसम है
बादलों में चल रहे
इश्क मोहब्बत की
खबर एक जलाते हैं

कहीं से भी
निकल कर आये
कोई नोचने बादलों को

पतली गली
से निकल कर कहीं
किनारे
पर बैठ नदी के
चाय पीते हैं
और पकौड़े खाते हैं

ये कारवाँ
वो नहीं रहा ‘उलूक’
जिसे रास्ते खुद
सजदे के लिये ले जाते हैं

मन्दिर मस्जिद
गुरुद्वारे चर्च की
बातें पुरानी हो गयी हैं

चल किसी
आदमी के पैरों में
सबके सर झुकवाते हैं ।

चित्र साभार: www.thecareermuse.co.in

गुरुवार, 28 जून 2018

कबीर दौड़ रहा है सूर को सावधान रहने के लिये कहने के लिये ढूँढ रहा है तुलसी अदालत में फंसा हुआ है





आज
अचानक
गली के
मोड़ पर
तेजी से
भागता हुआ
कबीर मिला था

एक नयी
बहुत मंहगी
चमकीली
साफ सुथरी
चादर से
ढका हुआ
उड़ता हुआ
जैसे एक
बुलबुला
बन रहा था

पूछ बैठा
था कोई
भाई तू
लगभग
पाँच सौ
साल से
यूँ ही
पड़ा रहा था

अब
किस लिये
मजार
छोड़ कर
भाग आया

एक नयी
चादर में
उलझा हुआ
अपना
एक पाँव

बाहर
निकाल
कर उसने
चादर को
किनारे लगाया

जोर से
चिल्लाया
समझा करो
कबीर था

तब तक
जब तक
किसी को
मेरे जुलाहे
होने का
पता नहीं था

पाँच सौ
साल में
बदल जाती
है कायनात तक

मैं तो
उस जमाने
के सीधे साधे
आदमियों के
बीच का था
बस एक
फकीर था

हिंन्दू रहा था
ना मुसलमान रहा था

जुलाहे होने का
थोड़ा सा बस
अभिमान रहा था

दोहे
कह बैठा था
उस समय
के हिसाब से

पर आज
उन सब में जैसे
सारी जिन्दगी का
फलसफाऐ शैतान था

किसे पता था
पाँच सौ साल बाद
रजिया गुँडों के
बीच फंस जायेगी

कबीर के दोहे
किताबों से
दब जायेंगे
ईवीएम
की मशीन
कबीर के
भजन गायेगी
संगीत सुनायेगी

‘उलूक’
कब सुधरेगा
पता नहीं
उसकी बकवास
करने की आदत
भी नहीं जायेगी

कबीर ने
कुछ कहा था
समझना जरूरी
भी नहीं था

कल शायद
सूर की भी बारी
कहीं ना कहीं
आ जायेगी

तुलसी
फंसा हुआ है
मन्दिर की
सोच रहा है

पता नहीं
कौन सी कब्र
किस समय
और किसलिये
खोली जायेगी

बकवास है
शहर की
नहीं है
विनती है आपसे

मत कह देना
कबीर की आत्मा
मेरे घर में रुकी थी
कल चली जायेगी।

चित्र साभार: http://www.pngnames.com

रविवार, 17 जून 2018

‘उलूक’ तू दो हजार में उन्नीस जोड़ या इक्कीस घटा तेरी बकवास करने की आदत का सरकार पेटेंट कराने फिर भी नहीं जा रही है

झंडों को 
हो रही

इधर की
बैचेनी

कुछ कुछ
समझ में
आ रही है

शहर में
आज एक
नयी भीड़

एक नये
रंग के
एक नये
झंडे के नीचे

एक नया
झंडा गीत
गा रही है

पुराने
झंडों के
आशीर्वादों
से भर चुके

झंडा
बरदारों
को नींद से

लग रहा है
जैसे
नयी हवा
जगा रही है

कुछ उस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर

कुछ इस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर

कुछ बेरंगे
हो चुके रंगों
में नया रंग

भरने
जा रही है

एक नये रंग
के झंडे का
पुराने झंडों
में से ही

मिल जुल कर
पैदा हो जाने
की खबर

कल के
अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
सुबह सुबह
आने जा रही है

अवसरवादियों
की बाँछें
फिर से एक बार
और जोर लगा कर
मुस्कुरा रही हैं

इस झंडे को
उठाने वालों को
उस झंडे को
उठाने वालों से

मिलजुल कर
रहने का अभ्यास
नये झंडे तले
करा रही हैं

लाल गेरुआ
नीला पीला
हरा बैगनी
की बात
करने की
रुत जा रही है

मेला नजदीक है
सुनाई दे रहा है

झंडों की
नई दुकाने
सजाने के लिये

फड़ों
की लाईन
लगायी
जा रही है

झंडों के
ठेकेदारों की
नयी योजना से

बेपेंदे के लौटों
के लुढ़कने की
आदत सुना है
बदलने जा रही है

झंडे खुश हैं
झंडा बरदार
भी खुश हैं

धीरे धीरे
हौले हौले
टोपियाँ
इस सर से
उस सर
की ओर
खिसकायी
जा रही हैं

‘उलूक’
तू दो हजार
में उन्नीस
जोड़ या
इक्कीस घटा

तेरी
बकवास
करने की
आदत का
सरकार
पेटेंट कराने
फिर भी
नहीं जा
रही है।

 चित्र साभार: www.dreamstime.com

सोमवार, 11 जून 2018

जरूरी है फटी रजाई का घर के अन्दर ही रहना खोल सफेद झक्क बस दिखाते चलें धूप में सूखते हुऐ करीने से लगे लाईन में

खोल
जरूरी है

साफ
सफेद झक्क

फटी हुई
रजाई को
ढकने के लिये

सारे
सफेद खोल
लटके हुऐ
करीने से
चमचमाती
धूप में 

सूखते हुऐ

खुशनसीब
खुशफहमी
की रूईयाँ

उधड़ी 
दरारों से
झाँकती हुई

घर के अन्दर
अंधेरे की
खिड़कियों को
समझाती हुई

परहेज करना
रोशनी से 


फटी
रजाई ओढ़ते
आदमी का

बाहर
झाँकता चेहरा
साँस लेने के लिये

साफ हवा
भी जरूरी है

लेकिन खोल
ज्यादा जरूरी है

और
जरूरी है

उसका
धुला होना
साफ होना
झक्कास रहना

चमकना 
धूप में
फिर स्त्री 

किया जाना

फटी हुयी
रजाइयाँ 

और
आदत 

में शामिल
बाहर 

को लटकते
रूई के फाहे

खोल
मजबूरी
नहीं होते हैं
किसी के लिये

एक
पाठ्यक्रम
हो जाते हैं

बिना 

खोल के
उधड़ा 

हुआ आदमी
बेकार है 

बेमानी है

आइये
सजायें
ला ला कर
सफेद
झक्कास
खोलों को

अलग अलग
जगह के
अलग अलग
आदमी के

आदमी के
लिये ही
बनाने 

और
दिखाने के
लिये इंद्रधनुष

सात रंगों
के नशे में
चूर के लिये
नशे की सोच
भी पाप है

और 

प्रायश्चित
बस 

एक ही है

साफ 

सफेद
धुले हुऐ
धूप में
लाईन 

लगा कर
सुखाये 

गये खोल

फटी हुई
रजाई
कहीं भी
नजर नहीं
आनी चाहिये
'उलूक'
किसे
जरूरत है

आँखें
अच्छा देखें
कान
अच्छा सुनें
अच्छे
की आशायें
खोल में
समाहित
होती हैं

यही
फलसफा है
बकवास
करते चले
जाने का।

चित्र साभार: www.amazon.com

रविवार, 25 मार्च 2018

बकवास ही तो हैं ‘उलूक’ की कौन सा पहेलियाँ है जो दिमाग उलझाने की हैं

समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर

समझ को
बढ़ाने की है
पकाने की है
फैलाने की है

नासमझ
कभी तो
कोशिश कर
लिया कर
समझने की

नासमझी
की दुनियाँ
आज बस
पागल हो
चुके किसी
दीवाने की है

कुछ खेलना
अच्छा होता है
सेहत के लिये

कोई भी हो
एक खेल
खेल खेल में

खेलों की
दुनियाँ में
खेलना
काफी
नहीं है
लेकिन

ज्यादा
जरूरत
किसी
अपने को
अपना
मन पसन्द
एक खेल
खिलाने
की है
जिसकी
ताजा एक
पकी हुई
खबर
कहीं भी
किसी एक
अखबार के
पीछे के
पन्ने में
ही सही
कुछ ले दे के
छपवाने की है

कौन
आ रहा है
कौन
जा रहा है
लिखना बन्द
किये हुऐ
दिनों में
बड़ी हुई
इतनी भीड़
खाली पन्नों में
सर खपाने की है

कहना
सुनना
चलता रहे
कागज का
कलम से
कलम का
दवात से

बकवास
ही तो हैं
‘उलूक’ की
कौन सा
पहेलियाँ हैंं
जो दिमाग
उलझाने की हैं ।

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

तेरह सौ वीं बकवास हमेशा की तरह कुछ नहीं खास कुछ नजर आये तो बताइये


तेरह 
के नाशुक्रे
नामुराद अंक
पर ना जाइये

इतनी तो
झेल चुके हैं
पुरानी कई

आज की
ताजी नयी पर
इरशाद फरमाइये

कहने का
बस अन्दाज है
एक नासमझ का
जनाब अब तो
समझ ही जाइये

हिन्दी और
उर्दू से मिलिये
इस गली की
इस गली में

उस गली की
अंगरेजी
उस गली में
रख कर आइये

किसलिये
बतानी हैं
दिल की
बातें किसी को

छुपाने के लिये
कुछ छुपी
बातें बनाइये

तलबगार
किसलिये हैं
मीठे के इतने
नमकीन खाइये


निकल लीजिये
किसी पतली गली में
बेहोश हो कर गिर जाइये


छुपती नहीं है
दोस्ती दुश्मनी
बचिये नहीं
खुल के सामने आइये

मरना तो
सब को है इक दिन
कुछ इस तरह से
या उस तरह से


मरवा दे
कोई इस से पहले
मौका ना देकर
खुद ही मर जाइये


‘उलूक’
तेरहवीं करे
तेरह सौ वीं
बकवास
की जब तक

नई
इक ताजी
खबर की
कबर पर
आकर

मुट्ठी भर
धूल उड़ाइये।

चित्र साभार: https://www.lilly.com.pk/en/your-health/diabetes/complications-of-diabetes/index.aspx

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

कभी ऐसा भी कुछ यूँ ही बिना कुछ पर कुछ भी सोचे


कोई
बुरी बात
नहीं है

ढूँढना
लिखे हुवे
के चेहरे को

कुछ
लोग आँखें
भी ढूँढते हैं

कुछ
की नजर
लिखे हुवे की
कमर पर
भी होती है

कुछ
पाजेब और
बिछुओं को
देख भर लेने
की ललक
के साथ

शब्दों से
ढके हुऐ
पैरों की
अँगुलियों
के दीदार
भर के लिये
नजरें तक
बिछा देते हैं

सबके लिये
रस्में हैं
अपने
हिसाब से
जगह के
हिसाब से
समय के
हिसाब से

कुछ को
लिखे हुऐ में
अपना चेहरा
भी नजर
आ जाता है

कुछ
के लिये
बहुत साफ
कुछ
के लिये
कुछ धुँधला सा
कुछ
के लिये चाँद
हो जाता है

कुछ नहीं
किया जा
सकता है
अगर कोई
ढूँढना शुरु
कर दे रिश्ते
लिखे हुऐ के
पीछे से
झाँकते हुऐ
अर्थों में

बबाल तो
हर जगह
होते हैं

कुछ
बने बनाये
होते हैं

कुछ
खुद के लिये
कुरेद कर
पन्नों को
बिना नोंक
की पेन्सिल से
खुद ही
बनाये गये
होते हैं

फट चुके
कागज भी
चुगली करने में
माहिर होते हैं

अब
इस सब से
‘उलूक’ को
क्या लेना देना

फटे में
अपनी टाँग
अढ़ाने के
चक्कर में
कई बार
खुद भी
फटते फटते
बचा हो कोई
या
फट भी
गया हो
तो भी
क्या है

होना तो
वही होता है
जो सुना
जा चुका
होता है

‘राम जी रच चुके हैं’

गाल पीटने
वालों के
गालों से
उन सब
को कहाँ
मतलब
होता है

जिन्हें
पिटने
या
पीटने की
आवाज
संगीत ही
सुनाई
देती हो

रहने दीजिये
ये रामायण
का आखरी
पन्ना नहीं है

अभी
कई राम
और पैदा
होने के
आसार हैं

भविष्यवाणी
करना ठीक
नहीं है

हनुमानों
पर नजर
रखते चलिये

कुछ
ना कुछ
संकेत
जरूर मिलेंगे

अब
लिखा हुआ
ही आईना हो
या
आईने में ही
लिखा गया हो

रहने
भी दीजिये
इस पर
फिर कभी कुछ

अगली
बकवास
के पैदा होने
तक के लिये
 ‘राम राम’

चित्र साभार: study.com

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

पीछे की बहुत हो गयी बकवासें कुछ आगे की बताने की क्यों नहीं सीख कर आता है

मत नाप
बकवास को
उसकी लम्बाई
चौड़ाई और
ऊँचाई से

नहीं होती हैं
दो बार की
गयी बकवासें
एक दूसरे की
प्रतिलिपियाँ

बकवासें जुड़वा
भी नहीं होती हैं

ये भी एक अन्दाज है
हमेशा गलत निशाना
लगाने वाले का

इसे शर्त
मत मान लेना
और ना ही
शुरू कर देना
एक दिन
की बकवास
को उठाकर
दूसरे दिन की
बकवास के ऊपर
रखकर नापना

बकवास आदत
हो जाती हैं
बकवास खूँन में
भी मिल जाती हैं

बैचेनी शुरु
कर देती हैं
जब तक
उतर कर
सामने से लिखे
गये पर चढ़ कर
अपनी सूरत
नहीं दिखाती हैं

कविता कहानियाँ
बकवास नहीं होती है
सच में कहीं ना कहीं
जरूर होती हैं

लिखने वाले कवि
कहानीकार होते है
कुछ नामी होते हैं
कुछ गुमनाम होते हैं

बकवास
बकवास होती है
कोई भी कर
सकता है
कभी भी
कर सकता है
कहीं भी
कर सकता है

बकवासों को
प्रभावशाली
बकवास बना
ले जाने की
ताकत होना
आज समझ
में आता है
इससे बढ़ा
और गजब का
कुछ भी नहीं
हो सकता है
बकवास करने
वाले का कद
बताता है

कुछ समय
पहले तक
पुरानी धूल जमी
झाड़ कर
रंग पोत कर
बकवासों को
सामने लाने
का रिवाज
हुआ करता था

उसमें से कुछ
सच हुआ करता था
कुछ सच ओढ़ा हुआ
परदे के पीछे से
सच होने का नाटक
मंच के लिये तैयार
कर लिये गये का
आभासी आभास
दिया करता था

रहने दे ‘उलूक’
क्यों खाली खुद
भी झेलता है और
सामने वाले को
भी झिलाता है

कभी दिमाग लगा कर
‘एक्जिट पोल’ जैसा
आगे हो जाने वाला
सच बाँचने वाला
क्यों नहीं हो जाता है

जहाँ बकवासों को
फूल मालाओं से
लादा भी जाता है
और
दाम बकवासों का
झोला भर भर कर
पहले भी
और बाद में भी
निचोड़ लिया जाता है ।

चित्र साभार: http://www.freepressjournal.in

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

पन्ना एक सफेद सामने से आया हुआ सफेद ही छोड़ देना अच्छा नहीं होता है

बकवास का
हिसाब रखने
वाले को
पता होता है

उसने कब
किस समय
कहाँ और
कितना कुछ
कहा होता है

इस जमाने
के हिसाब से
कुछ भी
कहीं भी
कभी भी
कितना भी
कह कर
हवा में
छोड़ देना
अच्छा होता है

पकड़ लेते हैं
उड़ती हवाओं
में से छोड़ी
गयी बातों को
पकड़ लेने वाले

बहुत सारे
धन्धों के
चलने में
इन्ही सारी
हवाओं का
ही कुछ
असर होता है

गिन भी लेना
चाहिये फेंकी
गयी बातों को
उनकी लम्बाई
नापने के साथ

बहुत कुछ होता है
करने के लिये
ऐसी जगह पर
सारा शहर जहाँ
हर घड़ी आँखें
खोल कर खड़े
होकर भी सोता है

सपने बना कर
बेचने वाले भी
 इन्तजार करते हैं
हमेशा अमावस
की रातों का

चाँद भी बेसुध
हो कर कभी
खुद भी सपने
देखने के
लिये सोता है

‘उलूक’
तबियत के
नासाज होने
का कहाँ
किसे अन्दाज
आ पाता है

कब बुखार में
कब नींद में
और
कब नशे में

क्या क्यों और
किसलिये
बड़बड़ाता
हुआ सा कहीं
कुछ जब
लिखा होता है ।

चित्र साभार: Clipart Library

रविवार, 12 नवंबर 2017

बकवास ही कर कभी अच्छी भी कर लिया कर

किसी दिन तो
सब सच्चा
सोचना छोड़
दिया कर

कभी किसी
एक दिन
कुछ अच्छा
भी सोच
लिया कर

रोज की बात
कुछ अलग
बात होती है
मान लेते हैं

छुट्टी के
दिन ही सही
एक दिन
का तो
पुण्य कर
लिया कर

बिना पढ़े
बस देखे देखे
रोज लिख देना
ठीक नहीं

कभी किसी दिन
थोड़ा सा
लिखने के लिये
कुछ पढ़ भी
लिया कर

सभी
लिख रहे हैं
सफेद पर
काले से काला

किसी दिन
कुछ अलग
करने के लिये
अलग सा
कुछ कर
लिया कर

लिखा पढ़ने में
आ जाये बहुत है
समझ में नहीं
आने का जुगाड़
भी साथ में
कर लिया कर

काले को
काले के लिये
छोड़ दिया कर
किसी दिन
सफेद को
सफेद पर ही
लिख लिया कर

‘उलूक’
बकवास
करने
के नियम
जब तक
बना कर
नहीं थोप
देता है
सरदार
सब कुछ
थोपने वाला

तब तक
ही सही
बिना सर पैर
की ही सही
कभी अच्छी भी
कुछ बकवास
कर लिया कर ।

चित्र साभार: BrianSense - WordPress.com

शनिवार, 30 सितंबर 2017

नवाँ महीना दसवीं बात गिनता चल खुद की बकवास आज दशहरा है

राम समझे
हुऐ हैं लोग 
राम समझा
रहे हैं लोग
आज दशहरा है

राम के गणित
का खुद हिसाब
लगा रहे हैं लोग
आज दशहरा है

अज्ञानियों का ज्ञान
बढा‌ रहे हैं लोग
आज दशहरा है

शुद्ध बुद्धि हैं
मंदबुद्धियों की
अशुद्धियों को
हटा रहे हैं लोग
आज दशहरा है

दशहरा है
दशहरा ही
पढ़ा रहे हैं लोग
आज दशहरा है

आँख बन्द रखें
कुछ ना देखें
आसपास का
कहीं दूर एक राम
दिखा रहे हैं लोग
आज दशहरा है

कान बन्द रखें
कुछ ना सुने
विश्वास का
रावण नहीं होते
हैं आसपास कहीं
बता रहे हैं लोग
आज दशहरा है

मुंह बन्द रखें
कुछ ना कहें
अपने हिसाब का
राम ने भेजा हुआ है
बोलने को एक राम
झंडे खुद बन कर
राम समझा रहे हैं लोग
आज दशहरा है

दशहरे की
शुभकामनाएं
राम के लोग
राम के लोगों को
राम के लोगों के लिये
देते हुऐ इधर भी
और उधर भी
‘उलूक’ को
दिन में ही
नजर आ
रहे हैं लोग
आज दशहरा है ।

चित्र साभार: Rama or Ravana- On leadership

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कविता बकवास नहीं होती है बकवास को किसलिये कविता कहलवाना चाहता है

जैसे ही
सोचो
नये
किस्म
का कुछ
नया
करने की

कहीं
ना कहीं
कुछ ना
कुछ ऐसा
 हो जाता है
जो
ध्यान
भटकाता है
और
लिखना
लिखाना
शुरु करने
से पहले ही
कबाड़ हो
जाता है

बड़ी तमन्ना
होती है
कभी एक
कविता लिख
कर कवि
हो जाने की

लेकिन
बकवास
लिखने का
कोटा कभी
पूरा ही
नहीं हो
पाता है

हर साल
नये साल में
मन बनाया
जाता है

जिन्दे कवियों
की मरी हुई
कविताओं को
और
मरे हुऐ
कवियों की
जिंदा
कविताओं
को याद
किया जाता है

कविता
लिखना
और
कवि हो
जाना
इसका
उसका
फिर फिर
याद आना
शुरु हो
जाता है

कविता
पढ़
लेने वाले
कविता
समझ
लेने वाले
कविता
खरीद
और बेच
लेने वालों
से ज्यादा
कविता पर
टिप्प्णी कर
देने वालों के
चरण
पादुकाओं
की तरफ
ध्यान चला
जाता है

रहने दे
‘उलूक’
औकात में
रहना ही
ठीक
रहता है

औकात से
बाहर जा
कर के
फायदे उठा
ले जाना
सबको नहीं
आ पाता है

लिखता
चला चल
बकवास
अपने
हिसाब की

कितनी लिखी
क्या लिखी
गिनती करने
कोई कहीं से
नहीं आता है

मत
किया कर
कोशिश
मरी हुई
बकवास से
जीवित कविता
को निकाल
कर खड़ी
करने की

खड़ी लाशों
के अम्बार में
किस लिये
कुछ और
लाशें अपनी
खुद की
पैदा की हुई
जोड़ना
चाहता है ।

चित्र साभार: profilepicturepoems.com