जाने
अंजाने में
अंजाने में
खुद
या
सामूहिक
रूप से
किये गये
किये गये
अपराधों के
दंश को
मन के
किसी
कोने में दबा कर
उसके ऊपर
रंगबिरंगी
फूल पत्तियाँ
कुछ
बनाकर
ढक देने से
अपराधबोध
छिप
कहाँ पाता है
सहमति
के
साथ
तोड़ मरोड़कर
काँटों के जाल
का
एक फूल
बना
बना
देने से
ना तो
ना तो
उसमें खुश्बू
आ पाती है
ना ही
ऐसा कोई
सुन्दर
सा रंग
जो
सा रंग
जो
भ्रमित कर सके
किसी को
भी
भी
कुछ देर
के
के
लिये ही सही
सदियां
हो गई
इस तरह की
प्रक्रिया
को
को
चलते आते हुऐ
पता नहीं
कब से
आगे भी
चलनी हैं
बस
तरीके बदले हैं
समय के साथ
जुड़ते
चले जा रहे हैं
इस तरह एक साथ
अपराध दर अपराध
जिसकी
ना किसी
अदालत में सुनवाई
ही होनी है
ना ही
ना ही
कोई फैसला
किसी
किसी
को ले लेना है
सजा के लिये
बस
शूल की तरह
उठती हुई चुभन को
दैनिक जीवन
का
एक नित्यकर्म
मानकर
सहते
सहते
चले जाना है
और
मौका मिलते ही
मौका मिलते ही
संलग्न
हो जाना है
हो जाना है
कहीं
खुद
या कहीं
खुद
या कहीं
किसी
समूह के साथ
समूह के साथ
उसके दबाव
में
में
करने
के लिये एक
मान्यता प्राप्त
अपराध।
अपराध।
सच अपराध कैसा भी कभी न कभी वह आगे-पीछे सामने आता है..भले ही सबके सामने नहीं तो अपने मन में कभी न कभी उभर कर आता है ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
मित्र! सचमुच आपकी छन्द-मुक्त रचना छन्द-बढ रचना से अधिक सशक्त होंती है साथ ही आप की शान्त और गंभीर रसव में रूचि भी सराहनीय है !!
जवाब देंहटाएंnc post sr
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंमस्त
जवाब देंहटाएंलम्बी सशक्त रचना सवगत कथन शैली में।
जवाब देंहटाएंकल 01/जून /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंअपराध का आत्मबोध,उसकी आत्म स्वीकृति सबसे बड़ी शक्ति है जी इंसान को महान बना देती है , छी रचना हेतु सुशीलजी आपका आभार
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