शुक्रवार, 23 मई 2014

मदारी जमूरे और बंदर अभी भी साथ निभाते हैं



मदारी जमूरा और बंदर
बहुत कम नजर आते हैं

अब घर घर नहीं जाते हैं

मैदान में स्कूल में
या चौराहे के आस पास
तमाशा अब भी दिखाते हैं

बहुत हैं पर हाँ पुराने भेष में नहीं
कुछ नया करने के लिये
नया सा कुछ पहन कर आते हैं

सब नहीं जानते हैं
सब नहीं पहचानते हैं
मगर रिश्तेदारी वाले
रिश्ता कहीं ना कहीं से
ढूँढ ही निकालते हैं

तमाशा शुरु भी होता है
तमाशा पूरा भी होता है
बंदर फिर हाथ में लकड़ी ले लेता है

चक्कर लगता है भीड़ होती है
साथ साथ मदारी का जमूरा भी होता है

भीड़ बंदर से बहुत कुछ सीख ले जाती है
बंदर के हाथ में चिल्लर दे जाती है

भीड़ छंंटती जरूर है
लेकिन खुद उसके बाद बंदर हो जाती है

बंदर शहर से होते होते
गाँव तक पहुँच जाते हैं
परेशान गाँव वाले
अपनी सारी समस्यायें भूल जाते हैं

दो रोटी की फसल बचाने की खातिर

बंदर बाड़े बनवाने की अर्जी
जमूरे के हाथ मदारी को भिजवाते हैं

बंदर बाड़े बनते हैंं
बंदर अंदर हो जाते हैं

कुछ बंदर दुभाषिये बना लिये जाते हैं
आदमी और बंदरों के बीच संवाद करवाते हैं
ऐसे कुछ बंदर बाड़े से बाहर रख लिये जाते हैं

पहचान के लिये 
कुछ झंडे और डंडे
उनको मुफ्त में दे दिये जाते हैं ।

चित्र सभार: https://www.shutterstock.com/

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (27-05-2014) को "ग्रहण करूँगा शपथ" (चर्चा मंच-1625) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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    1. आज तो आपने सभी कुछ ले लिया चर्चा के लिये दिल से आभार शास्त्री जी आपका :)

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  2. आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 11 मई 2019 को साझा की गई है......... मुखरित मौन पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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