शनिवार, 6 जनवरी 2018

बाहर हवा है खिड़कियों को पता रहता है

 
खुली रखें खिड़कियाँ 
पूरी नहीं तो आधी ही
इतने में भी संकोच हो
तो बना लें कुछ झिर्रियाँ

नजर भर रखने के लिये
बाहर चलती हवाओं के रंग ढंग पर
बस खयाल रखें इतना
हवायें आती जाती रहें
खिड़कियों से बना कर गज भर की दूरी

चलें सीधे मुँह मुढ़ें नहीं कतई
खिड़कियों की ओर
देखने समझने के लिये
रंग ढंग खिड़कियों के

खिड़कियाँ समेट लेती हैं
हवा अन्दर की
पर्दे खिड़कियों पर लटके हुऐ
लगा लेते हैं लगाम हवाओं पर

समझा लेती हैं मजहब
हवाओं को हवाओं का खिड़कियाँ 
मौसम का हाल देखने के लिये
खुद अपनी ही आँखों से अपने सामने
जरूरी नहीं खिड़कियों से बाहर झाँकना

सुबह के अखबार
दूरदर्शन के जिन्दा समाचार
बहुत होते हैं
पता करने के लिये हवाओं के मौसम का हाल
बेहाल हवायें खुद ही छिपा लेती हैं अपने मुँह

बहुत आसान होता है हवा हवा खेलना
बैठकर दूर कहीं अंधेरे में
और समझ लेना रुख हवा का

‘उलूक’ हवा देता है
हवा हवा खेलने वाले कहाँ परवाह करते हैं
बहुत आसान होता है फैला देना
किसी के लिये भी हवा में कह कर
हवा लग गई है ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com

1 टिप्पणी:

  1. इस कविता की सबसे खास बात ये है कि ये सिर्फ हवाओं और खिड़कियों की बात नहीं करती, ये दरअसल सोच, नज़रिए और उस ‘फिल्टर’ की बात करती है जिससे हम दुनिया को देखते हैं। आजकल तो हर कोई हवा का मतलब अपने हिसाब से निकाल लेता है, बिना सोचे-समझे।

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