शनिवार, 31 मार्च 2018

घर में तमाशे हो रहे हों रोज कुछ दिनों चाँद की ओर निकल लेने में कुछ नहीं जाता है

खोला तो
रोज ही
जाता है

लिखना भी
शुरु किया
जाता है

कुछ नया
है या नहीं है
सोचने तक

खुले खुले
पन्ना ही
गहरी नींद में
चला जाता है

नींद किसी
की भी हो
जगाना
अच्छा नहीं
माना जाता है

हर कलम
गीत नहीं
लिखती है

बेहोश
हुऐ को
लोरी सुनाने
में मजा भी
नहीं आता है

किस लिये
लिख दी
गयी होती हैं
रात भर
जागकर नींदें
उनींदे
कागजों पर

सोई हुवी
किताबों के
पन्नों को जब
फड़फड़ाना
नहीं आता है

लिखने
बैठते हैं
जो
सोच कर
कुछ
गम लिखेंगे
कुछ
दर्द भी

लिखना
शुरु होते ही
उनको अपना
पूरा शहर
याद
आ जाता है

सच लिखने की
हसरतों के बीच

कब किसी झूठ
से उलझता है
पाँव कलम का

अन्दाज ही
नहीं आता है

उलझता
चला जाता है

बहुत आसान
होता है
क्योंकि
लिख देना
एक झूठ ‘उलूक’

जिस पर
जब चाहे
लिखना
शुरु करो
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा जाता है

घर
और तमाशे
से शुरु कर
एक बात को
चाँद
पर लाकर
इसी तरह से
छोड़ दिया
जाता है ।

चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com

रविवार, 25 मार्च 2018

बकवास ही तो हैं ‘उलूक’ की कौन सा पहेलियाँ है जो दिमाग उलझाने की हैं

समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर

समझ को
बढ़ाने की है
पकाने की है
फैलाने की है

नासमझ
कभी तो
कोशिश कर
लिया कर
समझने की

नासमझी
की दुनियाँ
आज बस
पागल हो
चुके किसी
दीवाने की है

कुछ खेलना
अच्छा होता है
सेहत के लिये

कोई भी हो
एक खेल
खेल खेल में

खेलों की
दुनियाँ में
खेलना
काफी
नहीं है
लेकिन

ज्यादा
जरूरत
किसी
अपने को
अपना
मन पसन्द
एक खेल
खिलाने
की है
जिसकी
ताजा एक
पकी हुई
खबर
कहीं भी
किसी एक
अखबार के
पीछे के
पन्ने में
ही सही
कुछ ले दे के
छपवाने की है

कौन
आ रहा है
कौन
जा रहा है
लिखना बन्द
किये हुऐ
दिनों में
बड़ी हुई
इतनी भीड़
खाली पन्नों में
सर खपाने की है

कहना
सुनना
चलता रहे
कागज का
कलम से
कलम का
दवात से

बकवास
ही तो हैं
‘उलूक’ की
कौन सा
पहेलियाँ हैंं
जो दिमाग
उलझाने की हैं ।

मंगलवार, 20 मार्च 2018

जरूरी है सबूत होने ना होने का रद्दी निकाल कबाड़ निकाल सुनना अच्छा लगता है दिनों के बाद

आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में

सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस

अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा

मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर

लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा

रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर

कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें

होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब

कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को

किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की

नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये

रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये

सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में

मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही

आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही  सही

आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ

अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’

याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी 
होता है कभी कभी ।

चित्र साभार: https://www.pinterest.co.uk/