मंगलवार, 28 जनवरी 2020

समझना जरूरी नहीं होता है हमेशा पागलपन



एक
लम्बे अर्से तक टिक कर 
अघोषित अर्धविक्षिप्तता के अंधेरे में 
की गयी बड़बड़ाहट को 

सफेद कागज के ऊपर 
काले अक्षरों को भैंस बराबर 
देखते समझते जानबूझ कर 
रायते की तरह फैलाने की कोशिश 
जरूर कामयाब होती है 

एक नहीं 
कई उदाहरण सामने से नजर आयेंगे 
जरूरत प्रयास करने की है 

अब 
कौन विक्षिप्त है कौन अर्धविक्षिप्त है 

ये 
तरतीब से पहने हुऐ कपड़े 
या दिखायी जा रही अच्छी आदतों से 
बताया जा सकता है या नहीं 
अलग प्रश्न पत्र का प्रश्न है 

फर्क
बस कोण का होता है 
होती हर किसी में है 
ये पक्का है 

पर
पैमाना किसका है 
और
नापा क्या जा रहा है 
ज्यादा महत्वपूर्ण है 

पहले पहले चलना सीखते 
सड़क से बाहर उतर जाना 

उसी तरह का है 
जैसे उछलते कूदते फाँदते 
बड़बड़ाहट के शब्दों का 
कलम से निकलते निकलते 
फिसल कर कागज से बाहर हो जाना 

और
बचा रह जाना 
बस शब्दों की छीलन का कागज पर 

नहीं आयेगा समझ में 

क्योंकि
नहीं समझ में आया ही 
बदल जाता है होंठों के बीच 
दाँतों से निकलती हवा में 

रह जाती हैंं कुछ आवाजें 
फुस्स फिस्स
जैसी 

और
आवाजों के अर्थ 
किसी शब्दकोष में 
कहाँ पाये जाते हैं 

‘उलूक’ 
पागल पागल होते हैं 
पागल कैसे बनायेंगे किसी को 

समझना
जरूरी नहीं है 
हमेशा पागलपन। 

चित्र साभार: 

रविवार, 26 जनवरी 2020

चालीस लाख कदम के लिये आभार

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हो सकता है 
यूँ ही घूमने आते होगेंं 
आप 
पर मेरे लिये 
आपका एक कदम इनाम है 
चालीस लाख कदम के लिये 
आभार ।  

ulooktimes.blogspot.com २६/०१/२० के दिन

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भारत मेें 23000 से नीचे । 
आभार।

मंगलवार, 21 जनवरी 2020

शब्दों की रेजगारी और ‘उलूक’ का फटा हुआ बटुवा


खड़े खड़े

किनारे
 में
कहीं

पहले
से
सूखे हुए

किसी पेड़
के

हरियाली
सोचते
हुए

थोड़े से
समझ
में

थोड़ा थोड़ा
करके

समय
के
साथ

समझ
आ बैठे

शब्दों
की
रेजगारी
के
साथ

मगजमारी
करते

सामने वाले
के

मगज
की
लुगदी बनाने
की

फिराक
में
तल्लीन

समकालीन
 दौड़ों से
दूरी
बनाकर

लपेटते
हुऐ

वाक्यों के साथ
कलाबाजियाँ
करते

कब
दौड़
के
मैदान में
पहुँचा जाता है

अपनी
बकवास
लेकर

वो भी
दौड़ते
साहित्य
के
बिल्कुल
मध्य में

अपने अपने
मेडल
पकड़ कर

लटकते
उलझते
शब्द

अपने
वाक्यों से
झूझते

कलाबाजियाँ
खाते हुऐ

रोज
नये कपड़े
पहन कर

जैसे
शामिल
हो रहे हों
कैट वॉक में

रस्सियों
के
सहारे
खेल दिखाते

बिना टाँग
के
वाक्य

शब्दों
के
मोहताज
कभी भी
नहीं
होते हैं

खुले आम
सड़क के बीच
दौड़ते धावक

किसलिये
जंगल में
दौड़ना
शुरु कर देते हैं

समझते
भी नहीं

दौड़ में

शामिल
नहीं
होने वाले
खरपतवार
झाड़

सब्जी होना
शुरु
हो लेते हैं

बन्द
हो
जाता है
उनका
उगना
तेजी से
ना
चाह कर भी

लिखना
जरूरी है
‘उलूक’

उतना
ही

जितने
शब्द से
पहचान हो

वाक्य
टूटे हों
कोई
फर्क
नहीं पड़ता है

दौड़ भी
अच्छी है

मेडल
के
साथ हो

सोने में
सुहागा है

मैदान
में
दौड़ना
समझ में
आता है

चूने
की
रेखाओं
से

बाहर
निकल कर

खड़े
बेवकूफों
को
शामिल
कर लेना
ठीक नहीं

दौड़ते
रहें

साहित्य
जिंदा रहेगा

बकवास
कभी
साहित्य
नहीं बनेगा

‘उलूक’
डर मत
साहित्य
से
लिखता रह

दौड़ते
शब्द
टूटते वाक्य
उलझते पन्ने

सब
समय है

और
समय

घड़ी
की
सूईयों से

नहीं
नापा जाता है।

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

फिजाँ कैसी मीठी मीठी हो रही है मक्खियाँ ही मक्खियाँ हर तरफ हो रही हैं मधुमक्खियाँ नजर अब आती नहीं हैं ना जाने कहाँ सब लापता हो रही हैं


मक्खियाँ 
ही 
मक्खियाँ 

हो 
रही हैं 

हर तरफ 
से 

भिन भिन 
हो 
रही है 

बस 
कहाँ हैं 

पता नहीं 
चलने 
दे 
रही हैं 

ठण्ड 

बहुत 
हो 
रही है 

इस साल 

शायद 

सिकुड़
कर 
छोटी 
हो रही हैं 

महसूस 
भर 
हो रही हैं 

हर 
तरफ 
उड़ रही हैं 
मक्ख़ियाँ

बस 
दिखाई
नहीं दे रही हैं 

कलम 
हैंं 

मगर
उठ 
नहीं रही हैं 

बस 
थोड़ी बहुत 
घिसट 
सी 
रही हैं 

कागज कागज 
बैठी हुयी हैं 
मक्खियाँ 

कुछ 
लिखने
भी 

नहीं 
दे रही हैं 

इस
पर 
लिख कहीं 

उधर
से 
माँग 
हो रही है 

उस पर 
लिखने
की 
चाहत 

इधर 
भी 
हो रही है 

मक्खियाँ 
हैं 
कि 
सोच में 

बैठी 
ही 
नहीं हैं 

चारों 
तरफ 
लिखे लिखाये 
के 

उड़ती 
फिर रही हैं 

कितनी 
मीठी मीठी 
बारिशें 
हो 
रही हैं 

शायद 
मक्खियाँ 
भी 
ज्यादा 

इसलिये 
पैदा 
हो रही हैं 

इतना 
मीठा 
हो चुका है 

सारा 
सभी कुछ 

बस 
मधुमक्खियाँ
हैं 

कहीं
भी 
दिखाई 
नहीं 
दे रही हैं 

ना
जानें 
इधर 
कुछ 
सालों से 

क्यों 

लापता 
सी 
हो रही हैं 

लिखने लिखाने 
की 
जगह सारी 

भरी भरी 
सी 
हो रही हैंं 

कैसे लिखे 
कोई 
कुछ 

पता ही 
नहीं 
चल रहा है 

‘उलूक’ 

मक्खियों 
की 
नसबन्दियाँ 

कब से 
शुरु हो रही हैंं ? 

चित्र साभार: 

बुधवार, 8 जनवरी 2020

किसी ने कहा लिखा समझ में आता है अच्छा लिखते हो बताया नहीं क्या समझ मे आता है



Your few poems touched me.
इस बक बक ️को कुछ लोग समझ जाते हैं । वो *पागल* में कुछ *पा* के *गला* ️हुआ इंसान देख लेते हैं । ऐसे लोगो की कविताओं में गूढ़ इशारे होतें हैं । जो जागे हुए लोगों को दिख जातें हैं । मुझे आपकी कविताओं में कुछ अलग दिखा, जिसके कारण में आने उद्गारों को रोक नही पाया ।
 मैँ आपकी बक बक का मुरीद हुं आगे और भी सुन्ना चाहूंगा यूट्यूब पर । 
वी पी सिंह

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नहीं लिखने 
और लिखने के बीच में 
कुछ नहीं होता है 

दिन भी संख्याओं में गिने जाते हैं 
लिखने लिखाने के दिन 
या 
नहीं लिख पाने के दिन 
सब एक से होते हैं 

दर्द अच्छे होते हैं जब तक गिने जाते हैं 
संख्याओं के खेल निराले होते हैं 
कहीं जीत के लिये संख्या जरूरी होती है 
कहीं हार जरूरी होती है संख्या के जीतने से अच्छा 

सब से बुरा होता है गाँधी का याद आना 
मतलब साफ साफ 
एक धोती एक लाठी एक चश्मे की तस्वीर का 
देखते देखते सामने सामने द्रोपदी हो जाना 

चीर 
अब होते ही नहीं हैं 
हरण जो होता है उसका पता चल जाये 
इससे बड़ी बात कोई नहीं होती है 

अजीब है जो सजीव है बेजान में जीवन देखिये
जान है नजर भी आ जाये 
मुँह में बस एक कपड़ा डाल लीजिये 
निकाल लीजिये 

नहीं समझा सकते हैं किसी को 
समझाना शुरु हो जाते हैं 
समझदार लोग पुराने साल 

कत्ल हो भी गया 
कोई सवाल नहीं करना चाहिये 
क्योंकि कत्ल पहली बार जो क्या हुआ है 

सनीमा भीड़ का घर से देखकर 
घर से ही कमेंट्री कर 
उसे परिभाषित कर देने का 
मजा कुछ और है 

क्योंकि लगी आग में झुलसा 
अपने घर का कोई नहीं होता है 

लगे रहिये गुंडों के देवत्व को 
महिमामण्डित करने में 

भगवान करे तुम या तुम्हारे घर का 
तुम्हारा अपना कोई 
आदमखोर का शिकार ना होवे 

और उस समय तुम्हें अपनी छाती पीटने का 
मौका ही ना मिले 

‘उलूक’ की बकवास किसी की समझ में आयी 
और उसने ईमेल किया कि बहुत कुछ समझ में आया 

बस रुक गया कहने से कि बहुत मजा 
जो अभी आना है क्यों नहींं आया।

चित्र साभार: https://www.pngfly.com/