शनिवार, 31 अगस्त 2024

सब कुछ इसी हमाम से तो था


फिर से फिसल गया एक महिना ही तो था
खुशफहमी क्या बुरी है अपने ही हाथ में तो था
हाथ अपना ही तो था
कितना कुछ पकड़ कर रखा था
वहम ही सही सारा अपने पास में तो था

अभी कौन सा कहां कुछ फिसलना था
बारिश उस पहाड़ में थी
और दूर समुंदर ही तो उफान में था
आंखें कमजोर नहीं हुई थी
देखने का जुनून ही तो खत्म हुआ था
सपना तो अपनी ही उड़ान में था

शर्म तब भी कौन सा आती थी
जब सुनाई देता था
उजड़ गया अपना नहीं उसका ही मकान तो था
शहर उजड़ रहे हैं कोई और सुन रहा था
अच्छा हुआ सुनाई नहीं देता बंद है अपना ही कान तो था

बहुत कह दिया अब तक
जुबान से निकला था तीर जो भी निकला था
कौन सा कुछ किसी की दुकान से था
जुबान भी अब नहीं फिसलती
ना ही कहने को कुछ मचलती
मनचला था
कौन यहां कुरुक्षेत्र के मैदान से था

अभी और फिसलना था
बहुत कुछ बिना चबाए निगलना था
सभी कुछ किसी गांधी के एक बंदर की
नजदीकी पहचान से तो था
‘उलूक’ फिर फिर पलट कर के आएंगे
गलतफहमी के दौरे तुझे भी
पता है वो भी जानता है
सब कुछ इसी हमाम से तो था

चित्र साभार: https://depositphotos.com/