मंगलवार, 15 सितंबर 2009

आदमी

अंंधेरे का खौफ बढ़ गया इतना
रात को दिन बना रहा आदमी।

दिये का चलन खत्म हो चला समझो
बल्ब को सूरज बना रहा आदमी।

आदमीयत तो मर गयी ऎ आदमी
रोबोट को आदमी बना रहा आदमी।

रोना आँखों की सेहत है सुना था कभी
रोया इतना कि रोना भूल गया आदमी।

हंसने खेलने की याद भी कहाँ आती है उसे
सोने चाँदी के गेहूँ जो उगा रहा आदमी।

अब पतंगे कहाँ जला करते है यारो
दिये को खुद रोशनी दिखा रहा आदमी।

आदमी आदमी
हर तरफ आदमी
रहने भी दो
अब जब खुदा भी
खुद हो चला आदमी।

7 टिप्‍पणियां:

  1. खुदा होने से पहले
    आदमी से जुदा
    हो चला आदमी।

    जवाब देंहटाएं
  2. ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला
    बीच बाज़ार में खुद को नीलम कर गया यू हर आदमी khubsurat sunil bhai

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार( 31-07-2020) को "जन-जन का अनुबन्ध" (चर्चा अंक-3779) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह!लाजवाब सृजन सर। आभार मीना दी पढ़वाने हेतु।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. दिये का चलन खत्म हो चला समझो
    बल्ब को सूरज बना रहा आदमी।
    वाह!!!
    लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं