गुरुवार, 24 सितंबर 2009

साये का डर


गुपचुप गुपचुप गुमसुम गुमसुम
अंधेरे में खड़ी हुई तुम

अलसाई सी घबराई सी
थोड़ा थोड़ा मुरझाई सी

बोझिल आँखे पीला चेहरा
लगा हुवा हो जैसे पहरा

सूरज निकला प्रातः हुवी जब
आँखों आँखों बात हुवी तब

तब तुम निकली ली अंगड़ाई
आँखो में फिर लाली छाई

चेहरा बदला मोहरा बदला 

घबराहट का नाम नहीं था
चोली दामन साँथ नहीं था

हँस कर पूछा क्या आओगे
दिन मेरे साथ बिताओगे

अब साया मेरी मजबूरी थी
ड्यूटी बारह घंटे की पूरी थी

पूरे दिन अपने से भागा
साया देख देख कर जागा

सूरज डूबा सांझ हुवी जब
कानो कानो बात हुवी तब

तुम से पूछा क्या आओगे
संग मेरे रात बिताओगे

सूरज देखो डूब गया है
साया मेरा छूट गया है

बारह घंटे बचे हुए हैं
आयेगा फिर से वो सूरज

साया मेरा जी जायेगा
तुम जाओगे सब जायेगा

अब यूँ ही मैं घबरा जाउंगा

गुपचुप गुपचुप गुमसुम गुमसुम
अपने में ही उलझ पडूंगा ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत..एक से एक लफ़्ज़ जैसे कि एक माला मे पेरो दिये हों..आनंद आ गया.

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  2. गुपचुप गुपचुप
    गुमसुम गुमसुम
    अपने में ही
    उलझ पडूंगा।

    -बढ़िया है.

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  3. बहुत खुबसुरत व उम्दा रचना। बहुत-बहुत बधाई,,,,,,,........

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  4. हम सुलझे हुओं को
    देखा दिया है उलझा
    अब सुलझा तब सुलझा
    कहां सुलझा नहीं सुलझा
    गुमसुम गुपचुप सब गुमचुप।

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  5. अच्छी प्रस्तुती साथ ही वो हुआ कि जगह हुवा का भाव...प्रात: हुवी(हुई) जब
    एक अलग एहसास रहा पढ़ना। बेहतरीन

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  6. कल 13/अगस्त/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  7. उलूक के पिटारे में व्यंग्य में भिगोई गयी लच्छेदार बातों के अलावा भी बहुत कुछ है.
    उलूक अब बहुत अच्छी और भावुकतापूर्ण कविता भी करने लगा है.

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