शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मेरी संस्था मेरा घर मेरा शहर या मेरा देश कहानी एक सी

उसे लग रहा है
मेरा घर शायद
कुछ बीमार है
पता लेकिन नहीं
कर पा रहा है
कौन जिम्मेदार है
वास्तविकता कोई
जानना नहीं चाहता है
बाहर से आने वाले
मेहमान पर तोहमत
हर कोई लगाता है
बाहर से दिखता है
बहुत बीमार है
शायद किसी जादूगर
ने किया जैसे वार है
पर घाव में पडे़ कीडे़
किसी को नजर
कहाँ आते हैं
हमारे द्वारा ही तो
छुपाये जाते हैं
वो ही तो घाव के
मवाद को खाते हैं
अंदर की बात
यहाँ नहीं बताउंगा
घर का भेदी
जो कहलाउंगा
खाली कुछ सच
कह बैठा अगर
हमाम के बाहर भी
नंगा हो जाउंगा
असली जिम्मेदार
तो मैं खुद हूँ
किसी और के
बारे में क्या
कुछ कह पाउंगा
लूट मची हो जहाँ
अपने हिस्से के लिये
जरूर जोर लगाउंगा ।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

बस चले मेरा तो अपने घर को भी केन्द्रीय बनवा दूँ !

जैसे ही मैने सुना
वो एक बीमार के लिये
नये कपडे़ कुछ
बनाने जा रहा है
बीमारी उसकी
दिख ना जाये
किसी को गलती
से भी कहीं
उसके लिये एक महल
बना कर उसे उसमें
सुलाने जा रहा है
खाने पीने का इंतजाम
बहुत अच्छा हो जायेगा
केंद्र से मिलने वाली
ग्रांट ढेर सारी
दिलवा रहा है
मुझे याद आ गयी
उसकी पुरानी साख की
जब उसकी छत्र छाया
में बहुत से कोयले
हीरे हो जाया करते थे
तब उसके पास कुछ
नहीं हुआ करता था
वो बहुतों को बहुत
कुछ दिया करता था
इन्ही लोगों ने
उस समय उसकी
बीमारियों को बढ़ाया
वो गेहूँ खाता था
उसे डबलरोटी और
केक का लालच दिलवाया
पैबंद पर पैबंद लगा कर
नया हो गया है
हम सब को समझाया
अब वो फिर वही
कारनामा दुहराने
जा रहा है
पैबंद लगे पर
पैबंद एक नया
फिर लगवा रहा है
हम आदी हो चुके
पुराने कभाड़ को
यूँ ही सजाने के
नया बने कुछ
नयी जमीन पर कहीं
नहीं सोचेंगे हम कभी
किसके पास है
फुरसत अपने
को छोड़ के सोचने की
और कौन दे रहा है
कुछ पैसे हमें
ऎसी बातों को
पचाने के ।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

फिर आया घोडे़ गिराने का मौसम



किसने बताया कहाँ सुन के आया

कि
लिखने वाले 
ने जो लिखा होता है
उसमें उसकी तस्वीर और उसका पता होता है

किसने बताया कहाँ सुन के आया

कि
बोलने वाले ने 
जो बोला होता है
उससे उसकी सोच और उसके कर्मो का लेखा जोखा होता है

बहुत बडे़ बडे़ लोगों 
के
आसपास मडराने 
वालों के
भरमाने 
पर मत आया कर

थोड़ा गणित ना 
सही
सामाजिक 
साँख्यिकी को ध्यान में ले आया कर

इस जमाने में
चाँद में पहुँचने की तमन्ना रखने वाले लोग ही
सबको घोडे़ दिलवाते हैं
जल्दी पहुँच जायेगा मंजिल किस तरह से
ये भी साथ में समझाते हैं

घोडे़ के आगे 
निकलते ही
घोडे़ की पूँछ में पलीता लगाते हैं
चाँद में पहुँचाने वाले दलाल को
ये सब घोडे़ की दौड़ है कह कर भटकाते हैं
घोडे़ ऎसे पता नहीं कितने
एक के बाद एक गिरते चले जाते हैं

समय मिटा देता है
जल्दी ही लोगों की यादाश्त को
घोडे़ गिराने वाले फिर कहीं और
लोगों को घोड़ों में बिठाते हुऎ नजर फिर से आते है

बैठने वाले ये भी 
नहीं समझ पाते हैं
बैठाने वाले खुद कभी भी कहीं भी
घोडे़ पर बैठे हुऎ नजर क्यों नहीं आते हैं ?

चित्र साभार: https://www.freepik.com/

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

टीम

कल एक मकसद
फिर सामने से
नजर आ रहा है
दल बना इसके
लिये समझा
बुझा रहा है
बहुत से दल
बनते हुऎ भी
नजर आ रहे हैं
इस बार लेकिन
इधर के कुछ
पक्के खिलाडी़
उधर जा रहे हैं
कर्णधार हैं
सब गजब के
कंधा एक ढूँढने
में समय लगा रहे हैं
मकसद भी दूर
बैठे हुऎ दूर से
दूरबीन लगा रहे हैं
मकसद बना
अपना एक
किसी को नहीं
बता रहे हैं
चुनकर दूसरे
मकसद को
निपटाने की
रणनीति
बना रहे हैं
शतरंज के
मोहरे एक
दूसरे को जैसे
हटा रहे हैं
टी ऎ डी ऎ
के फार्म इस
बार कोई भी
भरने नहीं
कहीं जा रहे हैं
मकसद खुद ही
दल के नेता के
द्वारा वाहन
का इंतजाम
करवा रहे हैं
एक दल
एक गाडी़
नाश्ता पानी
फ्री दिलवा
रहे हैं
कर्णधार कल
कुछ अर्जुन
युद्ध के लिये
चुनने जा रहे हैं
आने वाले समय
के सारे कौरव
मुझे अभी से
आराम फरमाते
नजर आ रहे हैं
पुराने पाँडव
अपने अपने
रोल एक दूसरे
को देने जा रहे हैं
नाटक करने को
फिर से एक बार
हम मिलकर
दल बना रहे हैं
पिछली बार
के सदस्य इस
बार मेरे साथ
नहीं आ रहे हैं
लगता है वो खुद
एक बड़ी मछली
की आँख फोड़ने
जा रहे हैं
इसलिये अपना
निशाना खुद
लगा रहे हैं ।

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

मत परेशां हुआ कर

मत परेशां हुआ कर
क्या कुछ हुआ है कहीं
कुछ भी तो नहीं
कहीं भी तो नहीं
देख क्या ये परेशां है
देख क्या वो परेशां है
जब नहीं कोई परेशां है
तो तू क्यों परेशां है
सबके चेहरे खिले जाते हैं
तेरे माथे पे क्यों
रेशे नजर आते हैं
तेरी इस आदत से
तो सब परेशां है
वाकई परेशां है
तुझे देख कर ही तो
सबके चेहरे इसी
लिये उतर जाते हैं
कुछ कहीं कहाँ होता है
जो होता है सब की
सहमति से होता है
सही होता होगा
इसी लिये होता है
एक तू परेशां है
क्यों परेशां है
अपनी आदत को बदल
जैसे सब चलते हैं
तू भी कभी तो चल
कविता देखना तेरी
तब जायेगी कुछ बदल
सब फूल देखते हैं
सुंदरता के गीत
गाते हैं सुनाते हैं
तेरी तरह हर बात पर
रोते हैं ना रुलाते हैं
उम्रदराज भी हों अगर
लड़कियों की
तरफ देख कर
कुछ तो मुस्कुराते हैं
मत परेशां हुआ कर
परेशां होने वाले
कभी भी लोगों
में नहीं गिने जाते हैं
जो परेशांनियों
को अन्देखा कर
काम कर ले जाते हैं
कामयाब कहलाते हैं
परेशानी को अन्देखा कर
जो हो रहा है
होने दिया कर
देख कर आता है
कविता मत लिखा कर
ना तू परेशां होगा
ना वो परेशां होगा
होने दिया कर
जो कर रहे हैं कुछ
करने दिया कर
मत परेशां हुआ कर ।

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

सोच कपडे़ और खुश्बू नहीं बताते



मेरा
सलीकेदार सुन्दर सा पहनावा
मेरी  गर्व भरी चाल
मेरा संतुलित व्यवहार

मेरी मीठी रसीली सी बोलचाल
मेरी कविता का सौंदर्यबोध
मेरा संतुलित सामजिक समरसता
का सुन्दर सा खोल

मुझे दिखाना 
ही दिखाना है
जब भी अपने जैसे
तमीजदारों की सभाओं में कहीं
भाषण 
फोड़ कर आना है

बस वो ही 
बताना है वो ही सुनाना है
जिससे बने कुछ छवि सुन्दर सी
किसी भी तरह कैसे भी

करना क्या है
उससे किसी को क्या मतलब वैसे भी रह जाना है

मेरे बच्चे बच्चे
दूसरों के बच्चे जन्संख्या का सिद्धांत
अपनाना है

अपने घर को जाते जाते
सड़क पर झूल रहे
बिजली और दूरभाष के उलझे तारों के
किनारे से निकल

सड़क को 
घेर रहे 
मेरे घर को जाते हुऎ पानी के पाईपों से
बस नहीं टकराना है

पालीथीन में बंधे हुऎ
मेरे घर के अजैविक और जैविक
कूडे़ की दुर्गंध पर
नाक पर बस रुमाल ही तो एक लगाना है

बहुत कुछ है बताने को इस तरह से 
सैंस नहीं बस नानसैंस जैसा ही तो होता है ये सिविक सैंस

आप अपने काम से रखते हो मतलब
मेरे काम में दखलंदाजी लगती है
आप को हमेशा ही बेमतलब

इसलिये मुझे हमेशा
कोई ना कोई पुरुस्कार जरूर कुछ पाना है

समय नहीं है ज्यादा कुछ बताने के लिये

कल की मीटिंग के लिये अभी
मुझे नाई की दुकान पर
फेशियल करवाने के लिये जाना है ।

चित्र सभार: https://greatbridalexpo.wordpress.com/2013/03/11/spa-tips-for-men/

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

हुई कुछ हलचल मेरे शहर में

भारत में जन्मा
एक गोरा अंग्रेज
आज मेरे शहर
में आकर हमें
फिर आईना
दिखा गया
कुछ चटपटी
कुछ अटपटी
सी हिन्दी लेकिन
बस वो हिन्दी में ही
बोलता चला गया
इशारों इशारों में
उजागर किया
उसने कई बार
अपने देशप्रेम को
अंग्रेजों की दी
वसीयत से अब तो
मोह भंग कर जाओ
भारत और
भारतीयता
की उँचाइयाँ
कितनी हैं
गहरी अब तो
कुछ समझ में
अपनी ले आओ
भारतीय संस्कृति
में ही है ऎसा कुछ
जिससे ऎसा
वैसा रास्ता
उससे ना ही
कभी चुना गया
चीन देखो सामने
सामने कत्लोआम पर
गुजर कर तरक्की
कितनी पा गया
सरकार न्यायपालिका
नौकरशाह अगर
कर भी रहे हैं
दखलंदाजी एक
दूसरे के काम में
ऎ आदमी भारत के
तेरा ही तो
इस सब में
सब कुछ तूने
खुद ही तो
हमेशा से
है बहा दिया
उठ खडे़ हो
गौर कर सोच कुछ
मौके बहुत हैं
मुकाम पर देश
देखना ये गया
और वो गया
गाँधी और उसकी
गीता कौन
अब है देखता
वो फिर एक बार
उसकी याद हमको
अपनी बातों में
दिला गया
बहुत कुछ दिखा
उस शख्स में
अच्छा हुआ
ना जाते जाते मैं
उसको सुनने के
लिये चला गया
‘मार्क टली’
दिल से आभारी
हूँ तेरा आज मैं
मेरे सोते हुऎ
शहर को आज
तू कुछ थोड़ा सा
जो हिला गया ।