सोमवार, 1 जुलाई 2013

रुक के आता दो एक दिन और जब यहाँ कुछ भी नहीं हो रहा था

ऎसा भयानक अनघट
चारों ओर धट रहा था
लिखने की किस को
पडी़ थी देखने में ही
अंदर तक जलता हुआ
लावा सा कुछ इधर
से उधर जैसे हो रहा था
नदी में ही था पानी
पानी की जगह पर
ही तो बह रहा था
वैसे भी किसको क्या
पडी़ थी कोई लिखे
या ना लिखे यहाँ
माथे पर लिखे हुऎ
को समय जब बहुत
बेरहमी से धो रहा था
पानी के शोर की
परवाह कौन करता
जब मौका तरह तरह
के शोर करने का बडी़
मुश्किल से हो रहा था
कुत्ता मालिक के गिरते
मकान का पहरा करते
करते कहीं रो रहा था
ग्लोबल पोजिशनिंग
सिस्टम रिमोट सेंसिंग
की शादी में जैसे
नशे में चूर हो रहा था
मौसम अंतरिक्ष पर्यावरण
सब व्यस्त हो रहे थे
हर बात पर शांतिपूर्वक
बहुत शोध हो रहा था
हर कोई निकल निकल
के जोर जोर से इसी
बात को लेकर रो रहा था
प्रयोगशाला में हो रही
परियोजनाओं का झंडा
पत्रिकाओं में फोटो सहित
ना जाने किस जमाने
से स्टोर हो रहा था
ऎसे मेले में जब हर
अनुभवी एक छोटा
सा पौंधा नहीं बहुत ही
बड़ा पेड़ हो रहा था
'उलूक' अच्छा ही किया
कुछ नहीं लिखा दीवार
पर यहाँ आ कर कुछ दिन
हर कोई चैन से था खुश था
और मजे से सो रहा था ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (03-07-2013) के .. जीवन के भिन्न भिन्न रूप ..... तुझ पर ही वारेंगे हम .!! चर्चा मंच अंक-1295 पर भी होगी!
    सादर...!
    शशि पुरवार

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