शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

'मोतिया' कहीं लिखता नहीं पर मेरा जैसा कैसे हो जाता है


बहुत सालों से 
सड़क पर
कहीं ना कहीं रोज टकराता है

एक आदमी
जैसा था तीस साल पहले
अभी भी वैसा ही नजर आता है

बस थोड़ा सा पके हुऐ बाल
अस्त व्यस्त कपड़े

चाल में थोड़ा सा
सुस्ती सी दिखाई देती है

लेकिन
सोचने का ढंग वही पुराना
अब तक वैसा ही नजर आता है

उसी मुद्रा में
आज भी
अखबारों की कतरनों को
बगल में दबाता है

अभी भी
जरूरत होती है उसे
बस एक रुपिये के सिक्के की

जिसका आकार अब
अठन्नी से चवन्नी का होने को आता है

वो आज भी
किसी से कुछ नहीं कहने को जाता है

अपनी ही धुन में रहता है

कहीं कुछ नहीं बोलते हुऐ भी 
बहुत कुछ यूं ही कह जाता है

सामने से उसके आने वाला
समझ जाता है

समझ गया है
बस ये ही नहीं कभी बताता है

उसके हाव भाव इशारों से
आज भी ऐसा महसूस
कुछ हो जाता है

जैसे
रोज का रोज कुछ ना कुछ
दीवार पर लिखने 
कोई यहां बेकार में चला आता है

बहुत से लोगों का उसको जानने से 
कुछ भी नहीं हो जाता है

एक शख्स मेरे शहर की
एक ऐसी ही पहचान हो जाता है

जिस के सामने से
हर कोई उसी तरह से निकल जाता है

जिस तरह से
यहां की भीड़ में कभी कभी
अपने आप को ही ढूंंढ ले जाना
एक टेढ़ी खीर हो जाता है ।

4 टिप्‍पणियां: