रविवार, 6 अक्तूबर 2013

मान लीजिये नया है दुबारा नहीं चिपकाया है

हर दिन का
लिखा हुआ
कुछ अलग
हो जाता है
दिन के ही
दूसरे पहर
में लिखे हुऐ
का तक मतलब
बदल जाता है
सुबह की कलम
जहां उठाती सी
लगती है सोच को
शाम होते होते
जैसे कलम के
साथ कागज
भी सो जाता है
लिखने पढ़ने और
बोलने चालने को
हर कोई एक सुंदर
चुनरी ओढ़ाता है
अंदर घुमड़
रहे होते हैं
घनघोर बादल
बाहर सूखा पड़ता
हुआ दिखाता है
झूठ के साथ
जीने की इतनी
आदत हो जाती है
सच की बात
करते ही खुद
सच ही
बिफर जाता है
कैसे कह देता है
कोई ऐसे में
बेबाक अपने आप
आज की लिखी
एक नई चिट्ठी
का मौजू उतारा
हुआ कहीं से
नजर आता है
जीवन के शीशे
में जब साफ
नजर आता है
एक पहर से
दूसरे पहर
तक पहुंचने
से पहले ही
आदमी का
आदमी ही
जब एक
आदमी तक
नहीं रह पाता है
हो सकता है
मान भी लिया
वही लिखा
गया हो दुबारा
लेकिन बदलते
मौसम के साथ
पढ़ने वाले के लिये
मतलब भी तो
बदल जाता है ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [07.10.2013]
    चर्चामंच 1391 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाओं सहित
    सादर
    सरिता भाटिया

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  2. उमड़ घुमड़ के बादल बरसे, फिर भी धरती तरसे |
    ताजा बासी जो भी मिलता, पा रविकर मन हरसे-

    आभार आपका-

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  3. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।। त्वरित टिप्पणियों का ब्लॉग ॥

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  4. इस पोस्ट की चर्चा, मंगलवार, दिनांक :-08/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -20 पर.
    आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा

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