रविवार, 10 नवंबर 2013

सोच तो होती ही है सोच

अपनी अपनी
होती है सोच

सुबह होते
अंगडाई सी
लेती है सोच

सुबह की
चाय के कप
से निकलती
भाप होती
है सोच

दूध की
दुकान की
लाईन में
हो रही
भगदड़
से उलझ रही
होती है सोच

दैनिक
समाचार
पत्रों के प्रिय
हनुमानों की
हनुमान
चालीसा
पढ़ रही
होती
है सोच

काम पर
जाने के
उतावले पन
में कहीं
खो रही
होती है सोच

दिन
होते होते
पता नहीं क्यों
बावली हो रही
होती है सोच

कहां कहां
भटक रही
होती है
बताने
की बात
जैसी नहीं हो
रही होती है सोच

शाम
होते होते
जैसे कहीं
कुछ खुश
कहीं
कुछ उदास
कहीं
कुछ थकी
कहीं
कुछ निराश
हो रही
होती है सोच

जब घर
को वापस सी
लौट रही
होती है सोच

रात
होते होते
ये भी होता है
जैसे किसी की
किसी से
घबरा रही
होती है सोच

कौन
बताता है
अगर बौरा रही
होती है सोच

सुकून
का पल
बस वही होता है

जब यूं ही
उंघते उंघते
सो जा रही
होती है सोच

पता किसे
कहाँ होता है
सपनों में क्या
आज की रात
दिखा रही है सोच

मुझे
अपनी समझ
में कभी भी
नहीं आती

क्या
तुझे समझ
में कुछ आ
रही है सोच ।

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