शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

कभी होता है पर ऐसा भी होता है

मुश्किल
हो जाता है
कुछ
कह पाना
उस
अवस्था में
जब सोच
बगावत
पर उतरना
शुरु हो
जाती है
सोच के
ही किसी
एक मोड़ पर

भड़कती
हुई सोच
निकल
पड़ती है
खुले
आकाश
में कहीं
अपनी मर्जी
की मालिक
जैसे एक
बेलगाम घोड़ी
समय को
अपनी
पीठ पर
बैठाये हुऐ
चरना शुरु
हो जाती है
समय के
मैदान में
समय को ही

बस
यहीं
पर जैसे
सब कुछ
फिसल
जाता है
हाथ से

उस समय
जब लिखना
शुरु हो
जाता है
समय
खुले
आकाश में
वही सब
जो सोच
की सीमा
से कहीं
बहुत बाहर
होता है

हमेशा
ही नहीं
पर
कभी कभी
कुछ देर के
लिये ही सही
लेकिन सच
में होता है

मेरे तेरे
उसके साथ

इसी बेबसी
के क्षण में
बहुत चाहने
के बाद भी
जो कुछ
लिखा
जाता है
उसमें
बस
वही सब
नहीं होता है
जो वास्तव में
कहीं जरूर
होता है

और जिसे
बस समय
लिख रहा
होता है
समय पढ़
रहा होता है
समय ही
खुद सब कुछ
समझ रहा
होता है ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (30-11-2013) को "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" : चर्चामंच : चर्चा अंक : 1447 में "मयंक का कोना" पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. बढ़िया है आदरणीय-
    बधाई स्वीकारें-

    जवाब देंहटाएं