मंगलवार, 21 जनवरी 2014

होने होने तक ऐसा हुआ जैसा होता नहीं मौसम आम आदमी जैसा हो गया

मौसम का मिजाज था
कोई आदमी का नहीं
मनाये जाने तक
ये गया और वो गया
कहने कहने तक
थोड़ा कुछ नहीं
बहुत कुछ हो गया
उजाला हुआ फिर
अंधेरा अंधेरा
सा हो गया
कोहरा उठा
अपने पीछे छिपा
ले गया सारे दृश्य
खुद को ही खोज लेना
जैसे बहुत दूभर हो गया
कुछ देर के लिये
थम सा गया समय
जैसे घड़ी को एक
घड़ी में कोई चाभी देने
से हो रह गया
बूँदा बाँदी होना
शुरु होना था
पानी जैसे इतने में
ही बहुत हल्का होकर
रूई जैसा हो गया
धुँधला धुँधला हुआ
कुछ कुछ होते होते
सब जैसे सुर्ख सफेद
चादर जैसा हो गया
शांत हुआ इतना हुआ
जैसे बिना साज के
सँगीतमय वातावरण
सारा हो गया
कहीं गीत लिखा गया
मन ही मन में
किसी के मन से एक
काल जैसे कालजयी
किसी और के
लिये कहीं हो गया
कहीं उकेरा गया
किसी की नर्म
अंगुलियों से एक चित्र
सफेद बर्फ की चादर पर
जिसे देख देख कर
चित्रकार ही दीवाना
दीवाना सा हो गया
एक शाम से लेकर
बस एक ही रात में
जैसे एक छोटा सा
सफर बहुत ही
लम्बा हो गया
समाधिस्त होता हुआ
भी लगा कहीं
कोई पेड़ या पहाड़
सब कुछ कुछ पल
के लिये जैसे
साधू साधू हो गया
एक लम्बी रात के
गुजर जाने के बाद
का सूरज भी होते होते
जैसे कुछ पागल
पागल सा हो गया
नहाया हुआ सा दिखा
हर कण आस पास का
जैसा कुछ कुछ गुलाबी
गुलाबी हो गया
प्रकृति के एक खेल को
खेलता हुआ जैसे
एक मुसाफिर
देर से चल रही एक
गाड़ी पर फिर से
सवार होकर
रोज के आदी सफर पर
कुछ मीठी खुश्बुओं को
मन में बसाकर
रवाना हो गया
मौसम का मिजाज
जैसे फिर से
आम आदमी के
रोज के मिजाज
का जैसा हो गया ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक शाम से लेकर
    बस एक ही रात में
    जैसे एक छोटा सा
    सफर बहुत ही
    लम्बा हो गया
    ....वाह....अद्भुत और प्रभावी चित्रण...

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  2. आपकी इस प्रस्तुति को आज की सीमान्त गांधी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. मौसम का मिजाज
    जैसे फिर से
    आम आदमी के
    रोज के मिजाज
    का जैसा हो गया । सुन्दर पंक्तियों के साथ प्रभावी रचना...आभार..सुशील जी..

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