गुरुवार, 13 मार्च 2014

रंगो का त्यौहार क्या कुछ रंगहीन हो गया है

कहाँ हैं रंग
कहाँ है इंद्रधनुष
कहाँ है पानी
की बौछारें
भीगता बाहर
का ही नहीं
था सब कुछ
अंदर भी छूटती
थी कुछ फुहाँरे
दो चार दिन
का नहीं कोई
खेल होता था
महीने महीने का
जमता था अखाड़ा
सुनाई देती थी
ढोलक की थापें
और मजीरे की
मीठी मीठी आवाजें
रात रात भर
बिना पिये ही
होता था नशा
उतरता कब था
नहीं  होता था
किसी को पता
घर घर से
निकाल निकाल
कर बच्चे जवान
और बूढ़ो का
किया जाता था
गलियों में जमावाड़ा
गालियाँ भी होती थी
गीतों की टोली
भी होती थी
चंदा भी माँगा
जाता था
दे देता था
हर कोई
खुशी खुशी कभी
मुँह भी टेड़ा
नहीं बनाता था
पता नहीं
क्या हो गया है
समय के साथ
जैसे सब कुछ
कहीं खो गया है
कह रहे हैं
सब के सब
रंग भी हैं
फुहारें भी हैं
होली भी है
पर शायद
“उलूक”
तुझे ही
कुछ कुछ
कहीं हो गया हैं
इंद्रधनुष ही नहीं
बनता है कहीं
भी आसपास तेरे
रंगों का सब कुछ
जैसे बस काला
सफेद हो गया है
जाकर अपनी
आँखों का टेस्ट
करवा ले
मुझे पक्का
लगने लगा है
होली अपनी
जगह पर
अपनी जैसी ही
हो रही है
बस एक तू
ही शायद
कलर ब्लाइंड
हो गया है ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही कहा है कि होली का वह राग,रंग,अनुराग सब कुछ खो सा गया है.महीने भर पहले से गांवों के दरवाजे पर पड़ने वाली ढोलक की थाप थम गई है.बदलते वक्त के साथ होली भी बदल गया लगता है.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (14-03-2014) को "रंगों की बरसात लिए होली आई है" (चर्चा अंक-1551) में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. जीवन का ढर्रा बहुत बदल गया है ,न उतना अवकाश है न वैसे मन .अब के बच्चे तो जानते भी नहीं तब कैसे-क्या होता था . अब नये-नये त्यौहार नए ढंग .दुनिया ऐसे ही बदलती है .

    जवाब देंहटाएं