रविवार, 13 अप्रैल 2014

रस्में कोई जानता है किसी को समझाई जा रही होती हैं

चुनाव क्यों
करवा रहे हैं
पता नहीं
वोट क्यों
डलवा रहे हैं
पता नहीं
तो पता क्या है
अरे सब पता है
कौन हार रहा है
कौन जीत रहा है
कैसे हार रहा है
कैसे जीत रहा है
कैसे पता है
किसने बताया
फिर वही बात
जो बात
पता होती है
वो किसी से
पूछी नहीं जाती है
अपने आप
गुणा भाग करके
दिमाग में
बैठ जाती है
गिन लो
उठे हुऐ हाथ
यहाँ कमप्यूटर के
खुले हुऐ सारे
पन्नों में
सब के चेहरों
के ऊपर
उनकी वोट
लिखी हुई
नजर आती है
जिनकी नहीं
लिखी होती है
उनकी कोई बिल्ली
चुगली कर जाती है
कमप्यूटर एक
खुली किताब है
हर पन्ने से
कोई ना कोई
झाँक रहा है
अपनी छोड़ कर
हर तीसरे की
वोट को
आँक रहा है
उसे भी पता है
इस देश में अब
चुनाव दो के
बीच में
ही होता है
बाकी फालतू है
बेकार का है
खाली में
कुछ ना कुछ
यूँ ही
हाँक रहा है
तुझे इतना भी
मालूम नहीं है
तभी तो तेरी
बातों को कोई
तूल नहीं देता है
वो हारने वाला
होता है
जो यहाँ पर गाली
खा रहा होता है
कोई ना कोई
अपने कमप्यूटर
पर जिसका 
एक कार्टून
बना रहा होता है
जीतता वो है
जिसे माला पहनाई
जा रही होती है
कमप्यूटर से
कमप्यूटर तक
जिसकी बिना धागे
की पतंग उड़ाई
जा रही होती है
बाकी बेवकूफ
गरीबों की दुनिया है
किसी पोलिंग बूथ
पर एक लम्बी लाईन
लगा रही होती है
उनकी वोट वोट
नहीं होती है
कमप्यूटर पर अगर
कहीं भी कभी भी
दिखाई नहीं
जा रही होती है 

उलूक पता है 
तू कितना
बेवकूफ है
कितनी बात
किस समय तेरी
समझ में आ
रही होती है
कितनी तेरे 
सिर के ऊपर 
से चली जा
रही होती है
परेशान होने की
जरूरत नहीं होती है
जब सरकार
रिश्तेदारों की ही
आ रही होती है
वोट डालना डलवाना 
एक रस्म है
किसी तरह 
से निभाई जा
रही होती है । 

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (14-04-2014) के "रस्में निभाने के लिए हैं" (चर्चा मंच-1582) पर भी होगी!
    बैशाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सब कुछ पता होते हुए भी कितनी बातें महज रस्मों के तौर पे निभाई जा रही हैं ... सटीक लेखन !

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  3. सुन्दर प्रासंगिक बात कही है।

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  4. अरबों खर्च हो जायेंगे जब तक ये रस्म संपन्न होगी...

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