मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

अपनी अक्ल के हिसाब से ही तो कोई हिसाब किताब लगा पायेगा

सोचता हुआ
आ रहा था
शायद आज
कुछ अच्छा सा
लिखा जायेगा
क्या पता कहीं
कोई फूल सुंदर
एक दिख जायेगा
कोई तो आकर
भूली हुई एक
कोयल की याद
दिला जायेगा
मीठी कुहू कुहू से
कान में कुछ
नया सा रस
घुल के आयेगा
किसे पता था
किराये का चूहा
उसका फिर से
मकान की नींव
खोदता हुआ
सामने सामने
से दिख जायेगा
जंगली होता तो भी
समझ में आता
समझाने पर कुछ
तो समझ जायेगा
पालतू सिखाये हुऐ से
कौन क्या कुछ
कहाँ कह पायेगा
पढ़ाया लिखाया हुआ
इतनी आसानी से
कहाँ धुल पायेगा
बताया गया हो
जिसको बहुत
मजबूती से
खोदता खोदता
दुनियाँ के दूसरे
छोर पर वो
पहुँच जायेगा
उतना ही तो
सोच सकता है कोई
जितना उसकी
सोच के दायरे
में आ पायेगा
भीड़ की भेड़ को
गरडिये का कुत्ता
ही तो रास्ते पर
ले के आयेगा
‘उलूक’ नहीं तेरी
किस्मत में कहना
कुछ बहुत अच्छा
यहाँ तेरे घर को
खोदने वाला ही
तुझे तेरे घर के
गिरने के फायदे
गिनवायेगा
और अपना
खोदता हुआ
पता नहीं कहाँ से
कहाँ पहुँच जायेगा ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (30-04-2014) को ""सत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है " (चर्चा मंच-1598) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जितनी अक्ल वैसा हिसाब .. बहुत खूब!

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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