सोमवार, 5 मई 2014

चमक से बच चश्मा काला चाहे पड़ौसी से उधार माँग कर पास में रख

काँच के रंगीन
महीन टुकड़े
दिख रहे हैं
रोशनी को
बिखेरते हुऐ
चारों तरफ
इंद्रधनुष
बन रहे
हों जैसे
हर किसी
के लिये
अपने अपने
अलग अलग
टुकड़ा टुकड़ा
लालच का
लपकने के लिये
बिखर कर
फैल रही
चमक और रंगीन
रोशनी में थोड़ी देर
के लिये सही
आनंद तो है
हमेशा के लिये
मुट्ठी में बंद
कर लेने के लिये
आकर्षित कर रहे हैं
हीरे जैसे काँच
ये जानते बूझते हुऐ
रोशनी छिर जायेगी
उँगलियों के पोरों से
अंधेरे को छोड़ते हुऐ
हथेली के बीचों बीच
काँच के टुकड़े
घालय करेंगे
कुछ नाजुक पैर
रास्ते के बीच में
रहते हुऐ भी
हथेली में रख लेना
बिना भींचे उनको
महसूस नहीं
किया जायेगा
उनका स्पर्श
रिसना ही है
दो एक बूंद
लाल रँग
अंधेरी हथेली
के बीच से
अपनी तृष्णा
को साझा
कर लेने
का रिवाज
ही नहीं हो
जिस जगह
कोयले के
अथाह ढेर पर
बैठे अब
किसी और ने
बाँसुरी बजानी
शुरु कर दी है
हीरे पहले
कभी नहीं बने
अब बनेंगे
कोयले बता रहे हैं
ऐसा कहीं किसी
अखबार में
छपा था
किसी पेज में
अंदर की तरफ
‘उलूक’ उड़ के
निकल लेना
रास्ते के ऊपर
से बच कर
तेरे लिये यही
सबसे बेहतर
एक रास्ता है ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना बुधवार 07 मई 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-05-2014) को "खो गई मिट्टी की महक" (चर्चा मंच-1604) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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