बुधवार, 11 जून 2014

रोज होती है मौत रोज ही क्रिया कर्म रोज बनती हैं अस्थियाँ

रोज होती है मौत 
रोज ही क्रिया कर्म 
रोज बनती हैं अस्थियाँ
विसर्जित होने के लिये 

जिनको कभी भी नहीं मिलना होता है 
कोई संगम
प्रवाहित होने के लिये 

कपड़े से मुँह बंद कर रख दी जाती हैं 
मिट्टी के घड़े में रखी हुई हैं सोच कर 
अपने ही अगल बगल कहीं 

महसूस करने के लिये कि
हैंं आस पास कहीं 

दिखते रहने के लिये
पर दिखाई नहीं जाती हैं 
किसी को भी कभी भी

इसलिये नहीं
कि कोई दिखाना नहीं चाहता है 
बल्कि इसलिये
कि दिखा नहीं पाता है 

सभी के पास होते हैं
अपने अपने अस्थियों के 
गले गले तक भरे मिट्टी के कुछ घड़े 
फोड़ने के लिये 

पर ना तो
घड़ा फूटता है कभी 
ना ही राख फैलती है कहीं
किसी गंगाजल में 
प्रवाहित होने के लिये 

बस
एक के बाद एक 
इकट्ठा होते चले जाते हैं 
अस्थियों के घड़े 
कपड़े से मुँह बंद किये हुऐ 

जिसमें अस्थियाँ 
हड्डियों और माँस की नहीं 
एक सोच की होती हैं 

और
रोज ही
किसी पेड़ पक्षी
या आसपास उड़ती धूल मिट्टी
की बात को लेकर 
लिख ही लेता है कोई यूँ ही कुछ

और रोज बढ़ जाता है
एक अस्थि का घड़ा 
अगल बगल कहीं 
कपड़े से बंधा हुआ 

बंद किये हुऐ
एक सोच को 
जो बस
दफन होने के लिये 
ही जन्म लेती है । 

चित्र साभार: https://hindi.oneindia.com/

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब गिरह लगाईं है अपने अपने अवशेषों को फ़ॉसिल्स को। शुक्रिया आपकी टिप्पणी का।

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  2. हर सोचको एक विशेष समय की देन कहें तो समय के साथ उसमेे बदलाव स्वाभाविक है !

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  3. आपकी लिखी रचना शुक्रवार 13 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  4. बढ़िया लिख रहें हैं बंधुवर। शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का।

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  5. बहुत खूब परिचय और कविता |

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