मंगलवार, 3 जून 2014

अपना समझना अपने को ही नहीं समझा सकता

उसने कुछ लिखा
और मुझे उसमें
बहुत कुछ दिखा
क्या दिखा
अरे बहुत ही
गजब दिखा
कैसे बताऊँ
नहीं बता सकता
आग थी आग
जला रही थी
मैं नहीं
जला सकता
उसके लिखे में
आग होती है
पानी होता है
आँधी होती है
तूफान होता है
नहीं नहीं
कोई जलजला
मैं यहाँ पर
लाने का रिस्क
नहीं उठा सकता
पता नहीं
वो लिखा भी
है या नहीं
जो मुझे दिखा है
किसी को बता
भी नहीं सकता
इसी तरह रोज
उसके लिखे
को पढ़ता हूँ
जलता हूँ
भीगता हूँ
सूखता हूँ
हवा में
उड़ता हूँ
और भी बहुत
कुछ करता हूँ
सब बता के
खुले आम
अपनी धुनाई
नहीं करवा सकता ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (04-06-2014) को "आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ " (चर्चा मंच 1633) पर भी है!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. "बर्बाद चमन को करने को बस एक ही उल्लू काफी था,
    हर शाख पे उल्लू बैठा है अन्जामें गुलिस्तां क्या होगा"

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  3. उसके लिखे
    को पढ़ता हूँ
    जलता हूँ
    भीगता हूँ
    सूखता हूँ
    ---------------------------------- :) shandar

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