सोमवार, 30 जून 2014

चिट्ठियाँ हैं और बहुत हो गई हैं

चिट्ठियाँ  इस जमाने की 
बड़ी अजीब सी हो गई हैं 

आदत रही नहीं 
पड़े पड़े पता ही नहीं चला एक दो करते 
बहुत बड़ा एक कूड़े का ढेर हो गई हैं 

कितना लिखा क्या क्या लिखा 
सोच समझ कर लिखा तौल परख कर लिखा 

किया क्या जाये अगर पढ़ने वाले को ही 
समझ में नहीं आ पाये 
कि 
उसी के लिये ही लिखी गई हैं 

लिखने वाले की भी क्या गलती 
उससे उसकी नहीं बस अपनी अपनी ही
अगर कही गई है 

ऐसा भी नहीं है कि पढ़ने वाले से पढ़ी ही नहीं गई हैं 

आखों से पढ़ी हैं मन में गड़ी हैं 
कुछ नहीं मिला समझने को तो पानी में भिगो कर
निचोड़ी तक गई हैं 

उसके अपने लिये कुछ नहीं मिलने के कारण
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है 

अपनी अपनी कहने की 
अब एक आदत ही हो गई है 
चिट्ठियाँ हैं घर पर पड़ी हैं बहुत हो गई हैं 

भेजने की सोचे भी कोई कैसे ऐसे में किसी को 
अब तो बस उनके साथ ही 
रहने की आदत सी हो गई है ।

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. एक लम्बी अवधि के बाद आप सब से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ सो, प्रभु को धन्यवाद !
    अथ छोटी -छोटी पंक्तियों में अच्छी राचना !

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अच्छी खबरें आती है...तभी अच्छे दिन आते है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. बढ़िया सुंदर लेखन , सर धन्यवाद !

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  5. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार आदरणीय-

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  6. चिट्ठियों के साथ रहने की आदत हो गयी ... यानी ख़्वाबों में रहने की आदत हो गयी ...
    गहरी बात ...

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