गुरुवार, 14 मई 2015

समझदार एक जगह टिक कर अपनी दुकान नहीं लगा रहा है


किसलिये हुआ जाये 
एक अखबार
क्यों सुनाई जायें  खबरें रोज वही
जमी जमाई दो चार

क्यों बताई जायें  शहर की बातें
शहर वालों को हर बार
क्यों ना कुछ दिन शहर से
हो लिया जाये फरार

वो भी यही करता है करता आ रहा है

यहाँ जब कुछ कहीं नहीं कर पा रहा है
कभी इस शहर 
तो कभी उस शहर चला जा रहा है

घर की खबर 
घर वाले सुन और सुना रहे हैं
वो अपनी खबरों को
इधर उधर फैला रहा है

सीखना चाहिये 
इस सब में भी 
बहुत कुछ है 
सीखने के लिये ‘उलूक’
बस एक तुझी से 
कुछ नहीं हो पा रहा है

यहाँ बहुत हो गया है अब
तेरी खबरों का ढेर

कभी तू भी उसकी तरह 
अपनी खबरों को लेकर
कुछ दिन 
देशाटन करने को 
क्यों नहीं चला जा रहा है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

15 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसा अनर्थ कदापि न कीजियेगा आदरणीय अगर आप अपनी लेखन दुकान कहीं और लगा लेंगे तो हम आपके उत्तम लेखन का रसानन्द लेने कहाँ जायेंगे देशाटन पर जाने की इच्छा बलवती हो तो हमे नई दुकान का पता जरूर बता दीजियेगा।
    मजेदार प्रस्तुति।

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  2. वाह जनाब .....आगे भी प्रतीक्षा रहेगी सुशील जी |

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-05-2015) को "झुकी पलकें...हिन्दी-चीनी भाई-भाई" {चर्चा अंक - 1977} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
    ---------------

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  4. rachna bhi sandesh bhi ..aur chahne valo ke liye meseg bhi ??? bahut kuchh hai isame ..inme se kya samjha jaye ??

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    1. आभार कविता जी । अपनी बात कह देना उचित है समझने वाले अपने हिसाब से समझ लेते हैं :)

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  5. यार, आपकी कविता पढ़कर मैं सच में मुस्कुरा पड़ा। आपने अख़बार, खबरों और शहर की भागदौड़ को जिस मज़ेदार अंदाज़ में उलूक से जोड़ दिया है, वह बड़ा दिलचस्प लगा। मैं भी अक्सर सोचता हूँ कि हम लोग कितनी बार एक ही चीज़ों में फँसे रहते हैं जबकि दुनिया बाहर घूमने को बुला रही होती है।

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