रविवार, 21 जून 2015

नाटक कर पर्दे में उछाल खुद ही बजा अपने ही गाल

कुछ भी
संभव
हो सकता  है

ऐसा
कभी कभी
महसूस होता है

जब दिखता है

नाटक
करने वालों
और दर्शकों
के बीच में

कोई भी

पर्दा
ना उठाने
के लिये होता है
ना ही गिराने
के लिये होता है

नाटक
करने वाले
के पास बहुत सी
शर्म होती है

दर्शक
सामने वाला
पूरा बेशर्म होता है

नाटक
करने भी
नहीं जाता है

बस दूर से
खड़ा खड़ा
देख रहा होता है

वैसे तो
पूरी दुनियाँ ही
एक नौटंकी होती है

नाटक
करने कराने
के लिये ही
बनी होती है

लिखने लिखाने
करने कराने वाला
ऊपर कहीं
बैठा होता है

नाटक
कम्पनी का
लेकिन अपना ही
ठेका होता है

ठेकेदार
के नीचे
किटकिनदार होते हैं

किटकिनदार
करने कराने
के लिये पूरा ही
जिम्मेदार होते हैं

‘उलूक’
कानी आँखों से
रात के अंधेरे
से पहले के
धुंधलके में
रोशनी समेट
रहा होता है

दर्शकों
में से कुछ
बेवकूफों को
नाटक के
बीच में कूदते हुऐ
देख रहा होता है

कम्पनी के
नाटककार
खिलखिला
रहे होते हैं

अपने लिये
खुद ही तालियाँ
बजा रहे होते हैं

बाकी फालतू
के दर्शकों
के बीच से
पहुँच गये
नाटक में
भाग लेने
गये हुऐ
नाटक कर
रहे होते हैं

साथ में
मुफ्त में
गालियाँ खा
रहे होते हैं
गाल
बजाने वाले
अपने गाल
खुद ही
बजा रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.india-forums.com

4 टिप्‍पणियां:

  1. भावपूर्ण और वास्तविक जीवन के नाटक को उजागर करती प्रभावी रचना
    सादर

    आग्रह है-- होना तो कुछ चाहिए

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  2. वास्‍तविकता को सामने रखती ही यह रचना।

    जवाब देंहटाएं